पाकिस्तान की नई सरकार से भारत को क्या उम्मीद है?
२३ फ़रवरी २०२४पाकिस्तान में पिछले दिनों हुआ राष्ट्रीय चुनाव विवादों से घिरा रहा. चुनावों में किसी भी प्रमुख दल को सरकार बनाने के लिए स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था.
राजनीतिक दल अब नई सरकार बनाने के लिए सत्ता में भागीदारी का समझौता करने में सफल रहे हैं. सत्तारूढ़ गठबंधन में देश की ताकतवर सेना के समर्थन वाली पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज (पीएमल-एन), पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) और कई छोटे दल शामिल होंगे.
दोनों प्रमुख दल शहबाज शरीफ को प्रधानमंत्री पद देने और पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो के पति आसिफ अली जरदारी को राष्ट्रपति बनाने पर सहमत हो गए हैं.
सेना के समर्थन पर टिकी होगी सरकार
डीडब्ल्यू को सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक, भारत सरकार अपने पड़ोसी और प्रतिद्वंद्वी पर करीबी निगाह रखे हुए है. बहुदलीय गठबंधन को वो "अस्थिर और कमजोर" मानती है.
इसकी एक वजह वे आरोप हैं, जिनके मुताबिक पाकिस्तान में 8 फरवरी को हुए चुनाव में धांधली हुई थी. जेल में बंद पूर्व नेता इमरान खान और उनकी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) पार्टी के समर्थकों और कार्यकर्ताओं के भारी दबाव का सामना भी नई सरकार को करना होगा. संसद के लिए निर्वाचित हो कर आए सबसे ज्यादा सदस्य इमरान की पार्टी से ही जुड़े हैं.
पार्टी नेताओं को चुनाव लड़ने से रोकने के लिए सरकार के दमन को देखते हुए पीटीआई ने स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में अपने नेताओं को चुनाव मैदान में उतारा था.
चुनाव अभियान में कथित तौर पर सेना ने इमरान खान के प्रतिद्वंद्वंदी दलों का समर्थन किया था. ऐसे में भारत में कुछ लोगों का कहना है कि चुनावी नतीजों से पाकिस्तानी सेना और उसके प्रमुख जनरल आसिम मुनिर के प्राधिकार की वैधता पर सवाल उठे हैं.
फिर भी सेना-समर्थित दल पीटीआई को सरकार से बाहर रखने में सफल रहे. एक वरिष्ठ सुरक्षा अधिकारी ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर डीडब्ल्यू को बताया, "आखिरकार लगता है कि पाकिस्तानी सेना को जो चाहिए था, वो उसे मिल गया है, सत्ता में अपनी पसंद के राजनीतिक दलों का एक कमजोर और दब्बू गठबंधन वो चाहती थी, वही हुआ."
पड़ोसियों से 'बेहतर रिश्ते' चाहते हैं नवाज
पूर्व राजनयिकों और नीति विशेषज्ञों ने इस बात की ओर रेखांकित किया है कि नए गठबंधन को पहले देश के आर्थिक संकट और अंदरूनी सुरक्षा मामलों पर ध्यान देने के साथ शुरुआत करनी होगी.
अमेरिका में भारत की पूर्व राजदूत मीरा शंकर ने डीडब्ल्यू को बताया, "वहां लोकतंत्र अभी भी कमजोर है और सशस्त्र बल बहुत बड़ी भूमिका निभाते आ रहे हैं. पाकिस्तान बहुत सारे संकटों से जूझ रहा है और उसकी सरकार को प्राथमिकता के साथ इन मुद्दों से निपटना होगा."
लेकिन यह भी एक तथ्य है कि शहबाज शरीफ ने सत्ता पर पकड़ बना ली है और इससे कुछ उम्मीद बनती है. उनके भाई और पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने अतीत में भारत के साथ मेल-जोल बढ़ाने पर जोर दिया है, और जबसे वह निर्वासन से लौटे हैं, तो उन्होंने इस बारे में बहुत से मैत्रीपूर्ण बयान जारी किए हैं.
वोटों की गिनती के दौरान भारत के लिए एक अप्रत्यक्ष संदेश में नवाज शरीफ ने कहा, "खुदा ने चाहा, तो अपने पड़ोसियों के साथ हमारे रिश्ते बेहतर होंगे."
चुनाव के विवाद से अलग रहेगा भारत
पाकिस्तान में भारत के पूर्व उच्चायुक्त अजय बिसारिया कहते हैं कि पाकिस्तान को कैसा होना चाहिए, इस ढंग से उसे देखने की बजाय जैसा वो है, भारत सरकार उसे वैसा ही देखना ही चाहती है. वह कहते हैं कि चुनावों में धांधली के आरोपों पर भारत सरकार चुप ही रहेगी. बेशक यह बात साफ है कि चुनावी प्रक्रिया में बहुत गड़बड़ी थी और सेना ने चुनाव कराए थे.
बिसारिया कहते हैं, "भारत के उलट अमेरिका ने चुनाव को 'प्रतिस्पर्धी' बताया है." उनके मुताबिक यह अमेरिका के "कथित हित" में है कि "लोकतांत्रिक मूल्यों पर जोर देने और इमरान खान के पुशबैक की तसदीक का जोखिम उठाने की अपेक्षा पाकिस्तानी सेना के साथ अच्छे संबंध बना कर रखे जाएं."
उनके मुताबिक, भारत के लिए प्रमुख मुद्दा ये है कि नई सरकार सीमा पार आतंकवाद के मुद्दे को सुलझाने में समर्थ होगी या नहीं.
अजय बिसारिया कहते हैं, "भारत को इस बारे में कोई भ्रम नहीं है कि पाकिस्तान में सेना ही भारत से जुड़ी नीति तय करेगी. मौजूदा स्थिति में कोई भी सिविलियन सरकार, भारत नीति पर बहुत मामूली हरकत ही कर पाएगी लेकिन शरीफ बंधुओं का भारत के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाने में ट्रैक रिकॉर्ड इमरान खान की सरकार के तीन साल के कार्यकाल से बेहतर ही रहा है."
भारत के साथ कैसा रहेगा तालमेल?
कश्मीर और सीमा पार टकरावों को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच लंबे समय से मनमुटाव रहा है. भारत ने 2019 में क्षेत्र का कानूनी दर्जा बदला, तो पाकिस्तान ने दोतरफा व्यापार स्थगित कर दिया. कूटनीतिक रिश्तों में भी ठहराव आ गया.
पाकिस्तान 2008 से नागरिक शासन के अधीन है, लेकिन सेना का राजनीति पर मजबूत प्रभाव रहा है. आमहेर्स्ट कॉलेज के स्कूल ऑफ पब्लिक पॉलिसी में फुलब्राइट-नेहरू विजिटिंग चेयर, शांति मैरियत डिसूजा का कहना है कि पाकिस्तानी सेना का दबदबा बना रहेगा.
डिसूजा ने डीडब्ल्यू को बताया, "पाकिस्तान में कोई भी पार्टी चुनाव जीते या कोई भी गठबंधन सरकार बनाए, वहां सेना का पलड़ा ही हमेशा भारी रहता है. पाकिस्तान के इतिहास मे कभी कोई मजबूत सिविल सरकार नहीं रही है और इसी से पता चलता है कि भारत-पाकिस्तान शांति प्रक्रिया सही मायनों में कभी गति ही नहीं पकड़ पाई."
वह कहती हैं कि सेना की सहमति के बगैर नवाज शरीफ के शांति समर्थक रवैये का भी कोई अर्थ नहीं है. डिसूजा के मुताबिक, "यह संदेहजनक लगता है क्योंकि पाकिस्तान की ओर से शांति के पक्ष में कोई सही संकेत तभी माना जाएगा, जब वह कश्मीर के बारे में सेना के प्रभाव को झुकाते हुए अपनी पुख्ता पोजीशन छोड़ दे."