चीन और जापान की दोस्ती कभी मजबूत क्यों नहीं हुई
२८ सितम्बर २०२२एशिया की दो बड़ी अर्थव्यवस्थाओं जापान और चीन के बीच अच्छे रिश्ते का होना इलाके में स्थिरता और समृद्धि के लिये बहुत जरूरी है. हालांकि सच्चाई यह है कि पूर्वी चीन सागर के द्वीपों को लेकर विवाद और इलाके में चीन की सैन्य और आर्थिक दबंगई दोनों का मनमुटाव और प्रतिद्वंद्विता बढ़ाती जा रही है.
विशेषज्ञों का कहना है कि चीन और जापान के बीच आने वाले कुछ वर्षों में रिश्तों के सुधरने की उम्मीद कम ही है. चीन और जापान के रिश्तों पर एशियाई मामलों के विशेषज्ञ डॉ राहुल मिश्र कहते हैं, "दुश्मनी का अभाव दोस्ती नहीं है. विश्वयुद्धों के दौरान और उससे पहले हुई घटनाएं चीन की जापान के साथ दोस्ती में असहजता की सबसे बड़ी वजहें हैं."
दोस्ती मजबूत क्यों नहीं हुई जानने से पहले दुश्मनी के कारणों को जान लेते हैं.
क्षेत्रीय विवाद
विवाद का एक बड़ा कारण रहे हैं जापान के नियंत्रण वाले पूर्वी चीन सागर के बियाबान द्वीप जिन पर चीन दावा करता है. जापान में इन्हें सेनकाकू और चीन में डिआयू कहा जाता है. कभी इन द्वीपों पर जापानी सीफूड की फैक्ट्रियां थीं और जापान इन्हें ऐतिहासिक रूप से और अंतरराष्ट्रीय कानूनों के मुताबिक अपना बताता है. उधर चीन का कहना है कि जापान ने इन द्वीपों को 1895 में चीन से छीन लिया था और दूसरे विश्वयुद्ध के खत्म होने के बाद इन्हें चीन को लौटाया जाना चाहिये था.
विवादित द्वीप के आसपास सागर में मछलियों की घनी आबादी होने के साथ ही तेल के भंडार भी मौजूद हैं. जापान का आरोप है कि 1969 में संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में सागर के नीचे संसाधनों की खबर आने के बाद अचानक चीन ने इलाके पर अपना दावा ठोक दिया.
1972 में दोनों देशों के बीच जब रिश्तों को सामान्य बनाने की संधि हुई तो उसमें इस मुद्दे पर कोई समझौता नहीं हुआ. 2012 में जापान ने सेनकाकू द्वीपों का राष्ट्रीयकरण करके इस मुद्दे को हवा दे दी. इसके बाद पूरे चीन में हिंसक प्रदर्शन हुए. चीन के तटरक्षक बल और मछली पकड़ने वाली नावों का इन इलाकों के चक्कर लगाने शुरू कर दिये और नियमित रूप से जापानी जल सीमा का उल्लंघन होने लगा.
ताईवान में आपातकाल का डर
जापान अपने सुरक्षा सहयोगी अमेरिका के साथ दक्षिण चीन सागर में चीन की बढ़ती गतिविधियों की आलोचना करता है. जापान ताइवान जलडमरूमध्य में शांति और स्थिरता के लिये दबाव बना रहा है. स्वायत्तशासी लोकतांत्रिक ताइवान पर चीन दावा करता है और ताकत का इस्तेमाल कर उसे अपने साथ मिलाने की धमकी देता है.
अमेरिका और चीन के बीच कारोबारी जंग और इलाके में नौसैनिक तनाव बढ़ने के बाद ताइवान में आपातकालीन स्थिति को लेकर जापान की आशंकाएंबढ़ गई है. जापानी तटों के पास रूस के साथ चीन के युद्धाभ्यासों ने भी उसे नाराज किया है. जापान अपनी सेनाओं को दक्षिण पश्चिमी जापान की ओर ले जा रहा है इनमें ओकिनावा और ताइवान के पूर्व में मौजूद दूरदराज के द्वीप भी शामिल हैं.
अमेरिकी संसद की स्पीकर नैंसी पेलोसी की ताइवान यात्रा पर विरोध जताने के लिये ताइवान के आसपास के इलाकों में चीन ने अगस्त में युद्धाभ्यास किये. ओकिनावा के पास पांच बैलिस्टिक मिसाइलें भी दागी गईं. ताइवान को लेकर युद्ध की आशंका में जापान ने अपनी सैन्य क्षमता तेजी से बढ़ानी शुरू कर दी है. इसके लिए बजट भी बढ़ाया गया है और राष्ट्रीय सुरक्षा नीति की भी समीक्षा हो रही है. इसके जरिये पहले से हमला करने की क्षमताएं विकसित करने को भी शामिल किया जा सकता है जो जापान के मौजूदा संविधान का उल्लंघन होगा.
युद्ध का इतिहास
दोनों देशों ने आपस में युद्ध लड़ा है. इसकी शुरुआत 1930 में हुई और अंत 1945 में जापान की हार के बाद. चीन और जापान के युद्ध में जापानी जुल्मों की दास्तान लंबी है. इनमें नानकिंग के बलात्कार के साथ ही रासायनिक और जैविक हथियारों का इस्तेमाल भी शामिल है. इसके अलावा मंचूरिया में इंसानों पर कई तरह के प्रयोग भी किये गये. जापान ने करीब 40 हजार चीनी मजदूरों को जापानी खदानों और फैक्ट्रियों में काम करने पर मजबूर किया. इनमें से ज्यादातर कुपोषण और दुर्व्यवहार के कारण मर गये.
1972 की संधि में चीन ने युद्ध के लिये मुआवजे की मांग छोड़ दी. विशेषज्ञों का कहना है कि इसके बदले जापान की ओर से माफी और चीन को एकमात्र वैध सरकार के रूप में मान्यता देने की बात थी. हालांकि जापान ने पिछले चार दशकों में चीन को कुल 25 अरब अमेरिकी डॉलर की विकास सहायता दी है.
राहुल मिश्र का कहना है कि चीन और जापान के बीच में जो दरार है वो दक्षिण कोरिया की कंफर्ट वीमन जैसा मामला नहीं है जो एक या दो घटनाओं पर टिका हो. इसके साथ ही डीडब्ल्यू से बाचतीत में मिश्र ने यह भी कहा, "चीन की कम्युनिस्ट पार्टी लगातार जापान का विरोध करती आई है और इस विरोध के आधार पर देश में अपनी स्थिति मजबूत करती है. चीन और जापान के रिश्तों में सहजता तभी संभव है जब पार्टी सत्ता से दूर हो जो फिलहाल तो संभव नहीं दिखता."
यासुकुनी श्राइन
चीन टोक्यो के यासुकुनी श्राइन को जापान के युद्ध के दौर में सैन्यवाद के प्रतीक के रूप में देखता है. यह स्मारक युद्ध में मारे गये 25 लाख लोगों के सम्मान में बनाया गया है इनमें युद्ध अपराधी भी शामिल हैं. इस जगह जापानी सांसदों और मंत्रियों के दौरे को चीन युद्ध के दौरान जापान की तरफ से चीन पर हुई ज्यादतियों के प्रति संवदेनहीनता के रूप में देखता है. दक्षिण कोरिया के साथ चीन नियमित रूप से इस तरह के दौरों का विरोध करता है. दक्षिण कोरिया 1910 से 1945 तक जापानी उपनिवेश था.
आर्थिक सुरक्षा
अमेरिका का परम सहयोगी और चीन का प्रमुख कारोबारी साझीदार जापान एक जटिल स्थिति में है और दो ताकतवर देशों के बीच उसे संतुलन बनाये रखना होगा. चीन दूसरे देशों की सरकारों पर चीन के नेतृत्व में चल रही गतिविधियों में शामिल होने के लिये ज्यादा दबाव बनाता है. इसमें क्षेत्रीय स्तर पर विस्तृत आर्थिक साझेदारी के लिये बना एक समूह भी शामिल है. दूसरी तरफ जापान अमेरिका के साथ ऐसे तरीकों पर काम कर रहा है जिससे कि इलाके में चीन के आर्थिक असर को बढ़ने से रोका जा सके. चीन इलाके में दूसरे लोकतांत्रिक देशों के साथ आर्थिक सुरक्षा को भी मजबूत करना चाहता है. सप्लाई चेन और संवेदनशील तकनीक की सुरक्षा खासतौर से उसके एजेंडे में है.
पूर्व जापानी प्रधानमंत्री यासुओ फाकुदा चीन और जापान के बेहतर संबंधों के हिमायती हैं. उनका कहना है कि दोनों के बीच संघर्ष मोटे तौर पर चीन अमेरिका के कारोबारी तनाव की वजह से है. फुकुदा का कहना है, "सवाल यह है कि क्या वैश्विक कारोबार चीन को बाहर करने के बाद अच्छे से चल सकेगा."
एनआर/ओएसजे (रॉयटर्स)