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कभी जर्मनी जाने वाला था यूनियन कार्बाइड का जहरीला कचरा

६ जनवरी २०२५

यूनियन कार्बाइड के जिस जहरीले कचरे को जलाने की योजना का मध्य प्रदेश में विरोध हो रहा है, उस कचरे को कुछ सालों पहले जर्मनी भेजा जाना था. लेकिन वो क्या अड़चन थी जिसकी वजह से यह नहीं हो सका?

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यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री के अंदर जंग लगी एक मशीन
यूनियन कार्बाइड के 337 टन जहरीले कचरे को 40 सालों बाद फैक्ट्री के परिसर से हटाया गया हैतस्वीर: Chris Burton/Deposithphots/IMAGO

इस जहरीले कचरे को मध्य प्रदेश के पीथमपुर में जलाए जाने की योजना का इतना विरोध हो रहा है कि राज्य सरकार को काम पूरा करने के लिए मध्य प्रदेश हाई कोर्ट से अतिरिक्त समय मांगना पड़ा. सोमवार छह जनवरी को अदालत ने सरकार को छह महीनों का समय दे दिया.

विरोध को देखते हुए सरकार ने अदालत से कहा कि उसे पीथमपुर की जनता को यह भरोसा दिलाने के लिए समय चाहिए कि कचरे का निपटारा सुरक्षित तरह से किया जाएगा. 337 टन कचरा विशेष ड्रमों में बंद कर दो जनवरी को भोपाल से पीथमपुर पहुंचाया गया था.

जर्मनी से थी उम्मीद

मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक पीथमपुर में इस कचरे के असुरक्षित होने को लेकर पहले से आशंकाएं थीं, लेकिन उसके वहां पहुंचने के बाद कई अफवाहें भी उड़ने लगीं जिनसे विरोध और भड़क उठा. दो लोगों के आत्मदाह करने की कोशिश की भी खबरें आईं.

भोपाल में 2016 में यूनियन कार्बाइड का सांकेतिक पुतला जलाते लोग
2012 में इस कचरे को जर्मनी लाने के प्रस्ताव का भी विरोध हुआ थातस्वीर: Sanjeev Gupta/dpa/picture alliance

इस जहरीले कचरे का निपटारा बीते 40 सालों से एक बड़ी समस्या रहा है. इस दौरान इसे नष्ट करने करने के कई सुझाव आए और कई कोशिशें की गईं. ऐसी ही एक कोशिश 2012 में की गई थी, जब जर्मनी की एक एजेंसी ने इस कचरे को जर्मनी ले जाकर विशेष भट्टियों में सुरक्षित तरीके से जलाने का प्रस्ताव दिया था.

जर्मन सरकार की जर्मन एजेंसी फॉर इंटरनेशनल कोऑपरेशन (जीआईजेड) ने प्रस्ताव दिया था कि वह इस कचरे को सुरक्षित रूप से जर्मनी ले जाएगी और हैम्बर्ग में एक विशेष भट्टी में जला देगी. जर्मनी को उस समय खतरनाक कचरे को जलाने की तकनीक विकसित करने में एक अग्रणी शक्ति माना जाता था और दुनियाभर से इस तरह का कचरा नष्ट करने के लिए वहां भेजा जाता था.

भारत सरकार और जीआईजेड के बीच कई महीनों तक बातचीत चली और 30 करोड़ रुपयों के खर्च पर इसका ठेका दिए जाने की बात होने लगी. हालांकि सितंबर, 2012 में जीआईजेड ने अचानक इस प्रस्ताव से अपना हाथ पीछे खींच लिया.

विरोध ने कराया प्रोजेक्ट रद्द

मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक एजेंसी ने बयान जारी कर कहा, "हमने जर्मनी में स्थिति का मूल्यांकन किया और फैसला लिया कि भारत और जर्मनी के बीच मजबूत सहयोग के लिए सबसे अच्छा रास्ता यही होगा कि हम इस प्रोजेक्ट को और आगे ना बढ़ाएं."

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असल में जैसे आज पीथमपुर में विरोध हो रहा है, उस समय जर्मनी में इस प्रोजेक्ट का विरोध शुरू हो गया था. दो एनजीओ - ग्रीनपीस और फ्रेंड्स ऑफ द अर्थ जर्मनी (बीयूएनडी) - इस विरोध का नेतृत्व कर रहे थे. दोनों संगठनों का कहना था कि कचरा जहां का है उसे वहीं नष्ट किया जाना चाहिए.

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जीआइजेड ने उस समय कहा था कि इसकी तकनीक जटिल है और भारत में इसके विकसित होने में अभी समय लगेगा, लेकिन बीयूएनडी का जवाब था कि ऐसे में कचरे को विशेष ड्रमों में बंद कर भारत में ही तब तक रखा जा सकता है जब तक वहां इसे नष्ट करने की तकनीक विकसित नहीं हो जाती.

भारत में हमेशा से पर्यावरणकार्यकर्ताओं की राय रही है कि सबसे पहले तो भारत सरकार को यूनियन कार्बाइड को मजबूर करना चाहिए कि वही इस कचरे के निपटारे की जिम्मेदारी ले और उसका खर्च भी उठाए. हालांकि ऐसा कभी हो नहीं सका. 2012 में भी भारत सरकार ही करीब 30 करोड़ रुपए खर्च उठाने जा रही थी और आज भी भारत सरकार ही 126 करोड़ रुपए खर्च कर रही है.

पीथमपुर में इस कचरे को सुरक्षित रूप से नष्ट किया जाएगा इस वादे को लेकर सरकार वहां की जनता के मन में विश्वास जगाना फिलहाल सरकार की ज्यादा बड़ी चुनौती है.