सैन्य बगावतों से क्यों घिरे पूर्व फ्रांसीसी उपनिवेश
१८ अगस्त २०२३अफ्रीका के पूर्व फ्रांसीसी उपनिवेश, सैन्य बगावतों के लिए तेजी से कुख्यात होते जा रहे हैं. गरीबी, बेअसर नागरिक बिरादरी और मीडिया के चिंताजनक रुझानों के अलावा अत्यधिक फ्रांसीसी प्रभाव को इसके लिए जिम्मेदार मानते हैं. पश्चिम अफ्रीका के फ्रांसीसी उपनिवेशो में राजनीतिक अस्थिरता की बदौलत सैन्य तख्तापलट होते रहे हैं. 2020 से फ्रांस विरोधी भावनाओं के उभार ने बुरकिना फासो, गिनी, माली और हाल में नाइजर जैसे देशों में सैन्य बगावतों को भड़काया है, या कुछ हद तक योगदान दिया है. सेनेगल के मानवाधिकार अधिवक्ता और ओपन सोसायटी फाउंडेशन से जुड़े इब्राहीम काने ने डीडब्लू को बताया कि कथित फ्रांसीसी प्रभाव से छुटकारा पाने की भावनाएं वास्तविक हैं.
उन्होंने कहा, "हमारे नागरिकों के बारे में फ्रांसीसियों का नजरिया कभी नहीं बदला. वे हमेशा हमें दोयम दर्जे का नागरिक मानते आए हैं. वे हमेशा अफ्रीकियों के साथ, खासकर फ्रांसीसी-भाषी अफ्रीकियों के साथ, एक खास ढंग से सुलूक करते हैं. पश्चिम अफ्रीका इस स्थिति को बदलने को तत्पर है." लेकिन अफ्रीकी मामलों के विश्लेषक, और क्षेत्रीय संगठन इकोवास के जानकार एमानुएल बेनसाह ने डीडब्लू को बताया कि उपनिवेश विरोधी भावनाएं हालिया क्षेत्रीय बगावतों के बारे में पूरी तरह से नहीं बताती हैं. वह कहते हैं, "पश्चिम अफ्रीका में फ्रांसीसियों और ब्रिटिशों के साथ एक कलोनियल मुद्दा जुड़ा रहा है. लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि प्रत्येक सदस्य देश सैनिकों के साथ हथियार उठा रहा है. आप देखेंगे कि अंग्रेजीभाषी देशों ने हथियार नहीं उठआए हैं जबकि रहते हम एक ही उप-क्षेत्र में हैं."
लोकतंत्र में कम होती उम्मीद
अपेक्षाकृत स्थायी राजनीतिक माहौल वाले अंग्रेजीभाषी अफ्रीका से विपरीत, फ्रांसीसीभाषी पश्चिम अफ्रीका में पश्चिमी शैली वाले लोकतंत्र मजबूत पकड़ नहीं बना पाया है. इब्राहीम काने कहते हैं, "वहां ये भावना है कि फ्रांसीसी हमेशा सत्ताधारी लोगों के पक्ष में रहते आए हैं चाहे वे सत्ताधारी लोकप्रिय हों या ना हों. फ्रांस और सरकार के बीच हमेशा से एक बड़ा ही मजबूत जुड़ाव रहा है. जबकि वो सरकार कई स्थितियों में अपने ही नागरिकों के प्रति बहुत ज्यादा दोस्ताना नहीं रही है." उनके मुताबिक वही गुस्सा फ्रांस समर्थित लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकारों के खिलाफ फूटता है जिसकी परिणति सैन्य हस्तक्षेपों के रूप में होती है. नाइजर में, राष्ट्रपति मोहम्मद बाजोम की सरकार को अपदस्थ करने वाली सेना के समर्थन में हजारों लोगों ने रैली निकालकर लोकतांत्रिक ढंग से चुनी सरकारों के प्रति असंतोष को ही आवाज दी.
नाइजीरिया के प्रशासन विश्लेषक ओविगवे इग्युगु कहते हैं कि पूर्व फ्रांसीसी उपनिवेशों में चुने हुए नेताओ ने नागरिकों की ज़िंदगियो में सुधार के लिए जरूरी कदम नहीं उठाए. "इसीलिए इन लोकप्रिय हो रहे बगावतों की नौबत आ रही है. ये सब लोकप्रियतावादी बगावते हैं, हमें खुलकर कहना होगा." ओविगवे इग्युगु के मुताबिक अगर लोग लोकतांत्रिक रूप से चुनी सरकारों के फायदे नहीं देखते हैं तो संकट के मौको पर उनके लिए बहुत ही कम समर्थन होगा. "लोग सिर्फ वोट देने भला क्यों जाएं जब कुछ बदलना ही नहीं? उनके लिए ये बगावतें सिस्टम को हिलाने का एक तरीका हैं ये देखने के लिए क्या उसके कुछ बेहतर नतीजे निकल पाते हैं या नहीं." हालांकि इग्युगु ने माना कि सैन्य नेतृत्व के आने से भी हालात नहीं बदल पाए हैं.
पश्चिम अफ्रीकी मामलों की रिपोर्टिंग करने वाले स्वतंत्र पत्रकार ब्राम पोस्थुमस मामले को ज्यादा प्रत्यक्ष ढंग से रखते हैं."एक के बाद एक हो रही ये बगावतें, एक धारणा तो स्पष्ट तौर पर दिखाती हैं कि कम से कम साहेल क्षेत्र में पश्चिमी शैली वाला लोकतंत्र, पूरी तरह विफल रहा है.”लेकिन कुछ उदाहरण ऐसे हैं जहां सत्ताधारी राजनीतिक वर्ग के बीच अंदरूनी संघर्षों से बगावतों की नौबत आई है. नाइजर में अपनी सरकार के तख्ता पलट से कुछ ही दिन पहले अपदस्थ राष्ट्रपति बाजोम मौजूदा बगावत के अगुआ को बर्खास्त करने की कथित रूप से योजना बना रहे थे. बुरकिना फासो में सैनिकों के बीच असहमितयों की वजह से भी दूसरी बगावत भड़की थी. इससे पहले सेना ने 2022 की बगावत में राष्ट्रपति रोश काबोर का तख्ता पलट कर दिया था.
गरीबी का अंतहीन सिलसिला
कुछ जानकारों ने बहुत से पूर्व फ्रांसीसी उपनिवेशों में हालिया बगावतों के लिए अंतहीन गरीबी को भी जिम्मेदार ठहराया है. 2020 में लंबे समय से पास होने का इंतजार कर रहे सीएफए फ्रांक मुद्रा को खत्म करने वाला बिल मंजूर हो पाया था. इस पश्चिम अफ्रीकी मुद्रा पर फ्रांसीसी ट्रेजरी का नियंत्रण था. ये बदलाव आने में 75 साल लग गए. फ्रांस पर इन देशों के कुदरती संसाधनों के दोहन का आरोप लगता रहा है. जबकि स्थानीय नागरिकों की रोजमर्रा की आर्थिक मुश्किलों से निपटने में सरकार जूझती रही. पोस्थमस कहते हैं कि अपने तीव्र होते आक्रोशों के बीच नागरिक अक्सर लोकतांत्रिक प्रक्रियाओ में भरोसा और सब्र खो बैठते हैं.
वह कहते हैं, "लोकतंत्र ने लोगों की किसी भी बुनियादी समस्या का समाधान नहीं निकाला, चाहे वो हिंसा हो या गरीबी हो या आर्थिक अवसर की कमी हो. और ये सैन्य सरकारें लोगों को ये समझाने में सफल रहती हैं कि वे इन समस्याओं को सुलझा लेंगी. वे नहीं सुलझाएंगी."
बेअसर नागरिक बिरादरी और मीडिया
लेकिन एमानुएल बेनसाह की चिंता ये है कि विकास से जुड़ी चुनौतियों से निपटने के लिए, लचीली और ठोस प्रशासनिक व्यवस्थाओं और संस्थानों को पूरी तरह से अभी विकसित नहीं कर पाया है. "अगर आप घाना, नाईजीरियाक, गाम्बिया, लाइबेरिया, सियरा लियोन जैसे देशों को देखें, चाहे वे कितने ही गरीब क्यों न हों, वहां जमीन पर नागरिक बिरादरी सक्रियता से काम कर रही है, और एक जीवंत मीडिया है जो अधिकारियों को जवाबदेह बनाने के लिए मुस्तैद है."
बेनसाह कहते हैं कि अंग्रेजी भाषी अफ्रीका अलग अलग आवाजों को उभारने के लिए बड़े पैमाने पर काम करता रहा, और फ्रांसीसी भाषी अफ्रीका में ऐसा नहीं हो पाया. "चुनौतियां हमेशा ही बनी रहीं क्योंकि सबसे ज्यादा लंबे समय तक, बहुत सारी चीजें फ्रांस तय करता आ रहा था, जिसकी वजह से स्थानीय नागरिक बिरादरी को पनपने और उभरने का मौका ही नहीं मिल पाया."
साहेल क्षेत्र में असुरक्षा
अफ्रीका के अधिकांश पूर्व फ्रांसीसी उपनिवेशों में सुरक्षा के बदतर होते हालात ने बुरकिना फासो, गिनी, नाइजर और माली में हालिया बगावतों को भी हवा दी है. साहेल क्षेत्र 2012 से घुसपैठों का शिकार रहा है, जिसकी शुरुआत माली से हुई थी. 2015 में ये बुरकिना फासो और नाइजर तक फैल गई और आज गिनी की खाड़ी के राज्य छिटपुट हमलों से जूझ रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक साहेल में बढ़ती असुरक्षा ने वैश्विक खतरा पैदा कर दिया है क्योंकि वहां मानवाधिकार स्थितियां बिगड़ रही हैं, हजारों की संख्या में लोग अपने घरों को छोड़कर भाग रहे हैं. फ्रांस समेत पश्चिमी देशों ने इलाके में असुरक्षा से निपटने की नाकाम कोशिश की. माली और बुर्कीना फासो में उनके सैन्य अभियानों को देश छोड़ने को कहा जा रहा है. पश्चिमी अफ्रीकी राज्यों का आर्थिक समुदाय, इकोवास (इकोनोमिक कम्युनिटी ऑफ वेस्ट अफ्रीकन स्टेट्स) पर बगावतों के इस ज्वार भाटे को थामने का दबाव है. लेकिन उसकी प्रतिक्रिया प्रतिबंध लगाने तक सीमित रही है.
नाइजर में संभावित सैन्य हस्तक्षेप के लिए एक स्टैंडबाई फोर्स को मुस्तैद करने के, संगठन के हाल के निर्णय पर भी क्षेत्रीय सराकरें विभाजित हैं, और इग्युगु जैसे विश्लेषक इसमें समस्याएं देखते हैं. "सरकार में अंसवैधानिक बदलाव के मामलों से निपटने के लिए इकोवास को असल में अपने काम करने के तरीके में सुधार करने होंगे." बेनसाह कहते है कि दरअसल इकोवास को पूर्व फ्रांसीसी उपनिवेशों को अपने लोकतांत्रिक संस्थानों को मजबूत करने में मदद करनी चाहिए. "फ्रांसीसी भाषी पश्चिम अफ्रीका को ये शिनाख्त करने की जरूरत है उन्हें किन नागरिक बिरादरी संगठनों से बात शुरू करनी चाहिए और फिर उन्हें क्षमता निर्माण के लिए आमंत्रित करना चाहिए."