दुनियाभर में तेजी से बढ़ेगी झुग्गी-बस्तियों की आबादी
९ जून २०२३नैरोबी के किबेरा में रहने वालीं बिएट्रिस ओरियो से जब पूछा गया कि क्या उनके घर के पास बच्चों के खेलने के लिए पार्क है, तो उन्होंने जोर का ठहाका लगाया. किबेरा नैरोबी की सबसे बड़ी झुग्गी-बस्ती है.
34 साल की ओरियो कहती हैं, "ऐसा कुछ भी नहीं हैं.” ओरियो लोहे की चादरों से बने एक कमरे में रहती हैं, जिसका किराया है 6,000 शिलिंग्स यानी करीब साढ़े तीन हजार रुपये.
ओरियो बताती हैं, "हमारे पास तो अपना शौचालय तक नहीं है. सार्वजनिक शौचालय में जाने के लिए हर बार पैसे देने होते हैं. हम जहां नहाते हैं, वही हमारी रसोई भी है, लिविंग रूम भी और बेडरूम भी. पार्क का तो ख्याल भी चुटकुला है.”
दुनिया में एक अरब से ज्यादा लोग हैं जो ओरियो जैसे हालात में रहते हैं. संयुक्त राष्ट्र की शहरी विकास के लिए काम करने वाली एजेंसी यूएन हैबिटैट के मुताबिक ये एक अरब लोग किबेरा जैसी अत्यधिक भीड़भाड़ वाली बस्तियों में रहते हैं, जहां मूलभूत सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं. और जिस तरह से दुनिया की आबादी और शहरीकरण बढ़ रहे हैं, झुग्गी-बस्तियों में रहने वाले लोगों की संख्या 2050 तक बढ़कर तीन अरब हो जाएगी.
यूएन हैबिटैट का अनुमान है कि झुग्गी-बस्तियों की आबादी में वृद्धि का 50 फीसदी तो सिर्फ आठ देशों में होगा. ये आठ देश हैः नाइजीरिया, फिलीपींस, इथियोपियो, तंजानिया, भारत, डीआर कोंगो, मिस्र और पाकिस्तान.
यूएन हैबिटैट के कार्यकारी निदेशक मैमुना मोहम्मद शरीफ कहते हैं, "यही हमारे शहरों का भविष्य है. दुनिया की आधी से ज्यादा आबादी शहरों और कस्बों में रहती है. 2050 तक इस आबादी में 70 फीसदी बढ़ोतरी होगी. इसलिए शहरी गरीबी और असमानता से निपटना पहले से कहीं ज्यादा मुश्किल होने वाला है.”
ना निजता, ना सुरक्षा
वर्ल्ड बैंक के मुताबिक केन्या की आधी से ज्यादा शहरी आबादी किबेरा जैसी बिना किसी योजना के बसी बस्तियों में रहती है. कच्चे रास्तों के किनारे बने छोटे-छोटे कमरे ढाई लाख से ज्यादा लोगों के लिए घर हैं, जहां खिड़कियां तक नहीं हैं. ज्यादातर लोग ऐसे हैं जो गांवों में विस्थापित होकर शहरों को आए हैं और रोजाना 2 डॉलर यानी डेढ़ सौ रुपये से भी कम कमाते हैं.
ज्यादातर लोग मोटरबाइक टैक्सी ड्राइवर, सिक्योरिटी गार्ड, घरेलू नौकर या इमारतों में मजदूरी जैसे काम करते हैं. वे नैरोबी में एक अच्छे घर में रहने का खर्च नहीं उठा सकते. इन बस्तियों में शौचालय सार्वजनिक होते हैं, जो बारिश के मौसम में अक्सर पानी से भरे रहते हैं. पीने के लिए पानी की पाइप जैसी कोई सुविधा नहीं है और लोगों को निजी टैंकरों से पानी खरीदना पड़ता है जिसे वे बाल्टियों में जमा करके रखते हैं.
गंदे पानी की निकासी की व्यवस्था बेहद खराब है और कचरा साफ करने की कोई व्यवस्था नहीं है. बाढ़ अक्सर आती है और घरों व उनके सामान को बर्बाद कर जाती है. साथ ही पीने का पानी दूषित हो जाता है. इस दौरान घर गिर जाते हैं या फिर बिजली के खंभों में करंट आता है, जिससे लोगों की जान चली जाती है.
गरीबी और युवा-बेरोजगारी की दरें ऊंची हैं और ये बस्तियों अपराधियों के लिए नर्सरी की तरह काम करती हैं. चोरी-चकारी, छीना-झपटी, महिलाओं के खिलाफ हिंसा आम बात है. इन बस्तियों में रहने वाले लोगों पर बेघर कर दिये जाने का खतरा हमेशा बना रहता है. बुल्डोजरों का आना और बस्तियों को सपाट कर देना आम घटनाएं हैं. 41 साल की मर्सी एकिंग कहती हैं, "यहां रहना आसान नहीं है.”
एकिंग बिना पति के अपने बच्चों को पाल रही हैं. वह कपड़े धोकर हफ्ते में 500 शिलिंग यानी करीब 300 रुपये कमाती हैं. वह बताती हैं, "समाज अच्छा है और हम सब एक दूसरी की मदद करते हैं. लेकिन ना कोई निजता है, ना कोई सुरक्षा. मकान मालिक कभी भी हमें घर से निकाल सकते हैं या फिर बुल्डोजर आ जाते हैं.”
कैसे बदलेंगे हालात
जहां किबेरा की यह बस्ती है, वहां से करीब आधे घंटे की दूरी पर इसी हफ्ते यूएन हैबिटैट की सालाना बैठक हुई है. एक आलीशान जगह पर हुई इस बैठक में इस बात पर चर्चा की गई कि झुग्गी-बस्तियों के हालात कैसे सुधारे जाएं. विशेषज्ञ कहते हैं कि पहले तो घरों की किल्लत को विकासशील देशों की ही समस्या माना जाता था लेकिन अब यह एक वैश्विक संकट बन चुका है और अमेरिका, ब्रिटेन व जर्मनी जैसे अमीर देश भी इस संकट से जूझ रहे हैं.
बिना पानी वाला टॉयलेट, फिर भी बदबू नहीं
यूएन हैबिटेट में नॉलेज एंड इनोवेशन ब्रांच की प्रमुख इदलाम येमेरू कहती हैं, "घरों की किल्लत अब दुनिया के हर हिस्से का संकट बन चुका है. हालांकि उसके मायने हर जगह अलग-अलग हैं, लेकिन लगभग सभी देश इस समस्या से जूझ रहे हैं कि कैसे अपने नागरिकों को सम्मानजनक घर की व्यवस्था उपलब्ध कराएं.”
विकसित देशों के संगठन ओईसीडी के आंकड़े बताते हैं कि उसके सभी सदस्य देशों में हाल के सालों में घरों की कीमतें मुद्रास्फीति से ज्यादा दर से बढ़ी हैं.
केन्या के राष्ट्रपति विलियम रूटो पिछले साल ही सत्ता में आए थे. उन्होंने सस्ते घरों को अपनी सरकार की मुख्य नीतियों में शामिल किया है और किबेरा जैसी बस्तियों की जगह ढाई लाख घर बनाने की योजना का ऐलान किया है, जो कम आय वाले परिवारों को दिये जाएंगे.
रूटो ने यूएन हैबिटेट के सम्मेलन में कहा, "हम इस बात को समझते हैं कि 2050 तक केन्या की आधी से ज्यादा आबादी शहरों में रह रही होगी. इसलिए हमने देश के आर्थिक पुनरोत्थान के एजेंडा में सबको घर देने की बात शामिल की है.”
स्लम ड्वेलर्स इंटरनेशनल पूरे 18 देशों के शहरी गरीबों का संगठन है. इस संगठन के अध्यक्ष जोसेफ मुटूरी कहते हैं कि सरकारों को नये घर बनाने के बजाय बस्तियों को ही बेहतर बनाने पर ध्यान देना चाहिए. मुटूरी के मुताबिक पहले भी ऐसी योजनाएं देखी गई हैं जबकि परिवारों को बस्तियों से निकालकर कर शहर के बाहर बने छोटे-छोटे घरों में रहने को भेज दिया गया, जहां ना नौकरी थी ना अन्य सुविधाएं. नतीजा यह हुआ कि वे लोग वापस शहर के केंद्र में बनी बस्तियों में आ गये.
वीके/एए (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)