जंगल कटाई पर रोक, कॉप26 में वादे हैं वादों का क्या
५ नवम्बर २०२१100 से ज्यादा देशों ने स्कॉटलैंड के ग्लासगो में हुए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी से निपटने के लिए 2030 तक जंगलों की अंधाधुंध कटाई को रोकने का संकल्प किया है. लेकिन पर्यावरणवादियों को इस संकल्प पर संदेह है. वो कहते हैं दुनिया के जंगलों पर फिरती आरियों को रोकने के लिए और भी अधिक कुछ करने की जरूरत है. इस समझौते के तहत हस्ताक्षर करने वाले 105 देशों ने वनों की हानि को रोकने और इस स्थिति को बदलने के लिए एक साथ काम करने का निश्चय किया है. इसके साथ ही "टिकाऊ विकास और समावेशी ग्रामीण बदलाव को भी प्रोत्साहन देने" की बात कही गई है.
सुधरे हुए वन प्रबंधन की वकालत करने वाले द फॉरेस्ट स्टीवर्डशिप काउंसिल (एफएससी) ने डीडब्ल्यू को बताया कि वो भागीदार देशों की संख्या से खुश था, और इस भागीदारी में धरती के 85 फीसदी जंगल कवर होते हैं. महत्त्वपूर्ण बात ये भी है कि इस समझौते में ब्राजील, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कॉन्गो और इंडोनेशिया भी शामिल हैं जो दुनिया के वन्यजीव-संपन्न उष्णकंटिबंधीय वनों के घर हैं और उनके अधिकतर कटान के भी जिम्मेदार हैं. हालांकि कुछ दिन बाद, इंडोनेशिया अपनी प्रतिबद्धता में कमजोर पड़ता नजर आया.
समझौता इसलिए अहम है क्योंकि जंगलों की कटाई फॉसिल ईंधन के बाद, जलवायु परिवर्तन के सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण उत्प्रेरकों में से एक है. लेकिन पूर्व के अंतरराष्ट्रीय वन सुरक्षा समझौतों की नाकामी पुख्ता तौर पर उनके दिमाम में कायम है, इसलिए पर्यावरण संगठन कहते हैं कि समझौते में सुनिश्चितता का अभाव है. एफएससी के मुताबिक, "बुनियादी रूप से दुनिया के जंगल किसी राजनीतिक घोषणापत्र से नहीं बचाए जा सकते हैं. अपनी आय और जीविका के लिए जंगलों पर निर्भर लोगों के समक्ष वन सुरक्षा और टिकाऊ वन प्रबंधन को आर्थिक रूप से आकर्षक समाधान के रूप में प्रस्तुत करना होगा."
लेकिन इसके लिए पैसा चाहिए
समझौते की कामयाबी में फंडिंग की मुख्य भूमिका है. अभी ये 19 अरब डॉलर की है. एक तिहाई हिस्सा निजी सेक्टर के निवेशकों और एसेट प्रबंधकों से आएगा जिसमें अवीवा, श्रोडर्स और आक्सा शामिल हैं. जलवायु वार्ताओं में 50 वनाच्छादित उष्णकटिबंधीय देशों का प्रतिनिधित्व करने वाले द कोलिशन ऑफ रेनफॉरेस्ट नेशंस (वर्षावन वाले देशों का गठबंधन) जैसे संगठनों और समूहों का कहना है कि इस समझौते को बनाए रखने के लिए अगले एक दशक में अतिरिक्त 100 अरब डॉलर हर साल लगेंगे.
इस गठबंधन में मीडिया और संचार के प्रबंध निदेशक मार्क ग्रुंडी ने ग्लासगो में डीडब्ल्यू को बताया, "विकासशील देशों के लिए जंगल एक संसाधन है. और दुर्भाग्यवश, अभी भी पेड़ जिंदा रहते उतने उपयोगी नहीं जितना कि मरने के बाद. सरकारें पश्चिम को बेचने के लिए या वाणिज्यिक कृषि के विकास में खपने वाली लकड़ी के लिए पेड़ काटने में रियायत देने में सक्षम हैं."
ये धरती के अहम कार्बन सिंक को लूटने जैसा है और इससे ऐसे भू-उपयोग के तरीके सामने आते हैं जो और ज्यादा उत्सर्जन करते हैं लेकिन ग्रुंडी के मुताबिक सरकारों के खजाने भरने के काम आते हैं. "अगर हम ये रोकना चाहते हैं, तो उन जंगलों के कार्बन के लिए मुहैया कराए जाने वाली वित्तीय मदद इतनी अधिक होनी चाहिए कि उस रियायत की भरपाई कर सके."
आदिवासी समुदायों पर ध्यान क्यों?
प्राथमिक वनों की अधिक क्षति वाले देशों में ब्राजील, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कॉन्गो, इंडोनेशिया और पेरू शामिल हैं. वैश्विक रिसर्च एनजीओ, वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीच्यूट के डाटा के मुताबिक अकेले 2020 में ट्रॉपिक देशों में करीब एक करोड़ 20 लाख हेक्टेयर पेड़ों वाला इलाका गंवा दिया गया था. और उसका एक तिहाई पेड़ उमस भरे उष्णकटिबंधीय प्राथमिक वनों में गायब हुए. जिसकी वजह से सालाना 57 करोड़ कारों के जितना कार्बन उत्सर्जन हुआ था.
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ये जंगल, मूल निवासी समुदायों के घर भी हैं और समझौते में इस बात पर खास जोर दिया गया है कि ऐसे समुदाय वनों के संरक्षक होते हैं. संयुक्त राष्ट्र की हाल की रिपोर्ट के मुताबिक निर्वनीकरण की दर, मूलनिवासी समूहों की बसाहट वाले इलाके में 50 प्रतिशत कम है. इस रिपोर्ट में ये भी कहा गया कि समस्या से निपटने के सबसे अच्छे तरीकों में ये भी शामिल है कि उनके अधिकारों का ध्यान रखा जाए. स्थानीय और मूलनिवासी समुदायों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले एक्टिवस्टों ने इस कदम का स्वागत किया है.
मूलनिवास मामलों के लिए अंतरराष्ट्रीय कार्यदल (आईडब्लूजीआईए) ने डीडब्ल्यू को बताया कि दुनिया की आबादी का छह फीसदी होने के बावजूद, मूलनिवासी समुदाय दुनिया की एक चौथाई भूमि की सुरक्षा करते हैं. और इसमें महत्त्वपूर्ण जैव विविधता वाले इलाके भी शामिल हैं. आईडब्लूजीआईए के जलवायु सलाहकार स्टीफन थोरसेल कहते हैं कि "ये समझौता स्थानीय और मूल निवासी समुदायों के अधिकारों को स्पष्ट रूप से मानता है. ये बात महत्त्वपूर्ण है, खासकर जब आप हस्ताक्षर करने वाले देशों की सूची पर नजर दौड़ाएं."
स्वामित्व अधिकारों का जिक्र नहीं
लेकिन थोरसेल ये भी जोड़ते हैं कि इस घोषणापत्र में स्थानीय या मूलनिवासी समुदायों के क्षेत्रीय या स्वामित्व अधिकारों के बारे में विशेष रूप से कोई संदर्भ नहीं दर्ज है. वे वनों की कटाई या अन्य गतिविधियों के लिए अपनी जमीनों से बेदखल किए जाते रहे हैं. थोरसेल कहते हैं, "इन इलाकों की कानूनी मान्यता के बिना, मूलनिवासी समुदायों को अपने जंगलों और दूसरे जीवंत ईको सिस्टमों के बचाव के लिए और जूझना पड़ता है."
आदिवासी लोगों के अस्तित्व और अधिकारों की रक्षा के लिए लड़ने वाली संस्था, सरवाइवल इंटरनेशनल ने इस चिंता पर जोर दिया था कि संरक्षण की कोशिशों से मूलनिवासी समूहों के साथ ज्यादती हो सकती है. सरवाइवल इंटरनेशनल के डिकोलोनाइज कंजर्वेशन कैम्पेन के प्रमुख फिओरे लोंगो कहते हैं कि जंगलों को बचाने वाले अभियान अमीर देशों के लोगों को प्रदूषण करते रहने में समर्थ बनाते हैं जबकि मूलनिवासी समुदायों की जमीनें नुकसान की भरपाई के बतौर चलाए जाने वाले ऑफसेट प्रोजेक्टों के लिए ले ली जाती हैं.
ऐसी योजनाएं व्यक्तियों या कंपनियों को अपने उत्सर्जनों को न्यूट्रलाइज करने के लिए पर्यावरण प्रोजेक्टों में निवेश की इजाजत देती हैं. फियोरे लोंगो कहते हैं, "निजी सेक्टर के निवेश में भी यही बात लागू होती है जो हमें लगता है कार्बन ऑफसेटों की खरीद के लिए होते होंगे, और जलवायु परिवर्तन को रोकने में मदद के लिए उत्सर्जन में कटौती के लिए कुछ नहीं कर रहे होंगे."
2014 में हम इसी पर तो राजी हो गए थे, नहीं?
बहुत सारी बातें जानी पहचानी लगेंगी क्योंकि कमोबेश यही समझौता 2014 में भी हुआ था. उस समय 40 देशों ने वनों के न्यू यार्क घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए थे. जिसके मुताबिक 2020 तक निर्वनीकरण को आधा करना था और 2030 तक खत्म. ये मोटे तौर पर नाकाम ही रहा, लेकिन प्रस्तावक उम्मीद जताते हैं कि इस बार बात अलग होगी. वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड, डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के मुताबिक 2021 में निजी सेक्टर को आर्थिक मदद देने पर ज्यादा ध्यान देने से क्रियान्वयन में मदद मिलेगी.
डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के उपाध्यक्ष और वन मामलों के उप-प्रमुख जोसेफिना ब्राना वारेला ने ग्लासगो में डीडब्ल्यू को बताया कि "कई निगम विकासशील देशों से ज्यादा ताकतवर हैं. इसलिए हमें सबका साथ चाहिए. हमें सहायता और सौहार्द चाहिए. हमें निजी पूंजी चाहिए. हम चाहते हैं कि वित्तीय संस्थान आगे आएं." दूसरा मुख्य अंतर समझौते को लेकर ज्यादा विस्तृत प्रतिबद्धता से जुड़ा है. ब्राजील जैसे वर्षावन वाले राष्ट्र इस बार हस्ताक्षर कर रहे हैं. एफएससी का कहना है कि समझौते का पक्ष लेने वाले देशों की संख्या संभवतः इसका सबसे मजबूत बिंदु है. क्योंकि इसमें सबसे अहम वन राष्ट्रों के अलावा वित्तीय मदद देने वाले विकसित देश भी शामिल हैं.
अपनी प्रतिबद्धता से डगमगाता इंडोनेशिया
समझौते पर हस्ताक्षर के कुछ ही दिनों बाद इंडोनेशिया अपने संकल्प से पीछे हटता दिखा. जलवायु सम्मेलन में भाग लेने वाली पर्यावरण मंत्री सिटि नुरबाया बाकर ने ट्वीट कर कहा कि "इंडोनेशिया को 2030 तक शून्य निर्वनीकरण तक पहुंचने के लिए विवश करना, स्पष्ट रूप से अनुचित और गलत है." उन्होंने कहा, "राष्ट्रपति जोको विडोडो के दौर में बड़े पैमाने पर जारी विकास, कार्बन उत्सर्जन के नाम पर या निर्वनीकरण के नाम पर रुकना नहीं चाहिए." उनके इस बयान का समर्थन करते हुए उप विदेश मंत्री महेंद्र सिरेगार ने एक बयान में कहा, "जारी किया गया घोषणापत्र, 2030 तक निर्वनीकरण का कतई उल्लेख नहीं करता है."
ग्रीनपीस इंडोनेशिया का कहना है कि सरकार की ये पलटी निराशाजनक थी. और इससे सरकार के असली इरादे जाहिर हो गए. इंडोनेशियाई वन अभियान के प्रमुख किकी ताउफिक्म ने ट्विटर पर दी एक प्रतिक्रिया में कहा, "ग्लासगो में वन और भू-उपयोग के बारे में ग्लासगो नेताओं के घोषणापत्र पर राष्ट्रपति के दस्तखत के एक दिन बाद ही उनके मंत्री का ये बयान घोषणापत्र की मूल भावना के पूरी तरह खिलाफ है." वो कहते हैं, "पूरी तरह साफ है कि पर्यावरण और वन मंत्री की निष्ठाएं कहां निहित हैं. उन्हें तमाम इंडोनेशियाई नागरिकों को ये विश्वास दिलाने में आगे रहना चाहिए कि इंडोनेशियाई संविधान में उल्लिखित व्यवस्था के तहत सुगठित, अभिन्न और स्वस्थ पर्यावरण के अपने अधिकार के इस्तेमाल के लिए वे स्वतंत्र हैं."
रिपोर्ट: एलिस्टर वॉल्श, इरीने बानोस रुइस