अभिव्यक्ति की आजादी का समर्थन
२४ मार्च २०१५सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले ने इस चुनौती को और ज्यादा बढ़ा दिया है. इसमें कोई दो मत नहीं हैं कि अदालत का फैसला अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकारों की दलीलों के लिहाज से मील का पत्थर साबित होगा लेकिन सरहद और समाज की सुरक्षा एवं सामाजिक सरोकारों की रक्षा करने की जिम्मेदारी सरकार की है और इसके बोझ तले दबी सरकारों के लिए यह फैसला बेशक चुनौती को बढ़ाने वाला साबित होगा.
आजादी का दायित्व
इस ऐतिहासिक फैसले के नकारात्मक और सकारात्मक पहलुओं की हकीकत से इंकार नहीं किया जा सकता है. इस फैसले के परिप्रेक्ष्य में साइबर स्पेस की स्वच्छंदता को काबू में करने की चुनौती सरकार के लिए एक तरफ परेशानी का सबब बन सकती है वहीं सोशल मीडिया पर सक्रिय तबके लिए खुद को काबू में करने की चुनौती होगी. असली दुनिया की ही तरह वर्चुअल दुनिया भी कानून से वंचित दुनिया नहीं है.
इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि साइबर स्पेस में अधिकतर युवा वर्ग सक्रिय है. यह वर्ग अपनी भावनाओं के ज्वार में बहकर मर्यादा की हदों को लांघने के नैसर्गिक खतरे से जूझता रहा है. ऐसे में आईटी एक्ट की धारा 66ए को असंवैधानिक घोषित करने से सोशल मीडिया पर अतिसक्रिय युवा वर्ग स्वच्छंदता की जद में जाने को प्रेरित हो सकता है. लेकिन उसे कानून और मर्यादा की हदें पहचाननी होगी क्योंकि असली दुनिया में छुपना ज्यादा आसान है.
इस आशंका के अलावा फैसले का सकारात्मक पहलू यह है कि सूचना क्रांति के दौर में जानने, समझने और अपने विचारों को व्यापकतम आयाम देने की आजादी मिलेगी. आजादी का यह स्वाद तभी सार्थक कहा जा सकता है जबकि सोशल मीडिया या साइबर जगत में अपनी मौजूदगी दर्ज करा चुके लोग इस माध्यम की संवेदनशीलता को समझें. साइबर एक्सपर्ट पवन दुग्गल का कहना है कि अदालत का यह फैसला बेहद संतुलित है लेकिन सरकारों के प्रति सजगता और दायित्वबोध की सीमा को बढ़ा देगा.
कानून की तलवार
खासकर भारत की विशेष परिस्थितियों में जहां शिक्षा के पर्याप्त प्रसार की कमी के बावजूद समाज के सभी तबकों में साइबर जगत की पहुंच अब आसान हो गई है. शिक्षा, रोजगार, आर्थिक हालात जैसे सामाजिक सरोकारों से इतर हर वर्ग के लोग किसी न किसी रुप में इंटरनेट की पहुंच में हैं. इस फैसले के माध्यम से अदालत का संदेश साफ है कि सरकारें कानून की तलवार से सोशल मीडिया पर नियंत्रण का चाबुक नहीं चला सकती हैं.
यह सर्वमान्य सत्य है कि देश में हर फैसला राजनीति से प्रेरित होता है. धारा 66ए का अब तक का इस्तेमाल यह बताता है कि पुलिस प्रशासन ने सोशल मीडिया पर सक्रिय युवाओं की सियासी जमात के खिलाफ उभरती आवाज को दबाने के लिए ही किया है. मुंबई में बाल ठाकरे से लेकर उत्तर प्रदेश में आजम खान तक के खिलाफ उठी आवाज को कानून के बल पर दबा दिया गया.
अदालत की दलील है कि स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के बीच संतुलन कायम करना सरकार की जिम्मेदारी है. सरकारें खुद तय करें कि यह काम कैसे किया जाए. लेकिन कानून का भय दिखाकर बोलने की आजादी पर प्रतिबंध लगाना संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत प्रदत्त वैचारिक अभिव्यक्ति की आजादी का हनन है.