अरब वसंत के 5 साल
१४ जनवरी २०१६करीब 23 सालों तक ट्यूनीशिया में तानाशाही राज चलाने वाले जिने अल आबेदीन बेन अली को गद्दी से हटाने का संघर्ष छेड़ने वाले नागरिकों ने अनजाने में ही पूरे अरब क्षेत्र को एक नई राह दिखा दी थी. सड़कों पर उतरे लाखों प्रदर्शनकारियों के आंदोलन का असर था कि 14 जनवरी 2011 को बेन अली को सत्ता छोड़नी पड़ी. हालांकि तानाशाह के हट जाने भर से देश की समस्याएं नहीं सुलझ गईं. आज भी आर्थिक परेशानियां और देश में पनपती जिहादी हिंसा बड़ी चिंता का कारण है.
इस क्रांति से पूरा मध्यपूर्व हिल गया था. फिर ट्यूनीशिया से प्रेरणा लेकर दूसरे अरब देशों में जन जागृति और आंदोलनों का जो सिलसिला चला, वो अरब वसंत कहलाया. इसके पांच साल बीतने के बाद स्थिति की समीक्षा करने से साफ पता चलता है कि जिन देशों ने ट्यूनीशिया की मिसाल देख कर क्रांति की राह पकड़ी थी, उनकी हालत बहुत बेहतर नहीं कही जा सकती. यहां कुछ नए निरंकुश शासकों, संघर्षों, गृह युद्धों और आईएस जैसे फैलते जिहादी तंत्र ने जगह बना ली है.
अरब वसंत पर अपनी नई किताब में विश्व बैंक के उपनिदेशक हाफेज गनेम ने लिखा है, "वे रोमांचक दिन थे. लोकतंत्र का बुखार फैला था," आगे सवाल उठाते हैं, "लेकिन क्या कोई ऐसा देश रातोंरात एक सुचारू रूप से चलने वाला लोकतंत्र बन सकता है और अपने सभी नागरिकों का जीवन सुधार सकता है, जहां कोई लोकतांत्रिक परंपरा ना रही हो और जहां की संस्थाएं कमजोर हों? जाहिर है इसका जवाब है ना."
याद करें कैसे जनवरी के इस निर्णायक दिन के लगभग एक महीना पहले एक स्ट्रीट वेंडर मोहम्मद बोआजिजि ने ट्यूनीशिया के एक शहर में सार्वजनिक रूप से खुद को आग लगा ली थी. इस घटना के बाद ही सामूहिक रैलियों का सिलसिला शुरु हुआ जो अंत में बेन अली के सत्ता से हटने पर ही थमा. ट्यूनीशिया की कहानी को मामले के जानकार आंशिक रूप से सफल मानते हैं. यहां नई सरकार चुनी गई और चार प्रमुख नागरिक संगठनों के प्रतिनिधित्व वाला नेशनल डायलॉग क्वॉरटेट बना, जिसे 2015 के नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया.
वहीं मिस्र में होस्नी मुबारक को सत्ता से हटाने के बाद देश में उथल पुथल जारी रही और एक बार फिर होस्नी मुबारक की जगह लेने वाले मुस्लिम ब्रदरहुड के मुहम्मद मुर्सी का सेना ने तख्तापलट किया. मुर्सी देश के पहले लोकतांत्रिक रूप से चुने गए राष्ट्रपति थे. मुर्सी को हटाकर सेना प्रमुख अब्देल फतह अल-सिसी ने सत्ता संभाली और मुस्लिम ब्रदरहुड के समर्थकों को चुन चुन कर प्रताड़ित करना शुरु किया. इस प्रक्रिया में सैकड़ों लोग मारे गए और हजारों जेल में डाल दिए गए.
2011 में ही लीबियाई तानाशाह मोआम्मर गद्दाफी की हत्या के बाद भी वहां राजनीतिक अराजकता और कलह का माहौल बना रहा. वहां एकजुटता से कोई सरकार बनाने की संयुक्त राष्ट्र की भी सभी कोशिशें कोई नतीजा नहीं दिला पाई हैं. इसके अलावा गद्दाफी के गृहनगर सिरते को आईएस जिहादियों ने अपना गढ़ बना लिया और वहां से समय समय पर हिंसक वारदातों को अंजाम देते रहते हैं.
यमन की कहानी भी इससे अलग नहीं रही. अरब वसंत के जिस सपने के साथ पांच साल पहले ये क्रांति शुरु हुई थी उसका सबसे दुखदायी नतीजा जाहिर तौर पर सीरिया में दिखा है. वहां राष्ट्रपति बशर अल असद के विरोध से शुरु हुए आंदोलन ने एक क्रूर गृह युद्ध का रूप ले लिया. इसकी चपेट में आकर अब तक ढाई लाख से भी अधिक लोगों की जान जा चुकी है और लाखों लोग अपना घर छोड़ कर पड़ोसी देशों और यूरोप की ओर भागे हैं.
इंटरनेशनल क्राइसिस ग्रुप के विश्लेषक मिशेल अयारी बताते हैं, "इतिहास में अरब स्प्रिंग की तुलना बर्लिन की दीवार गिरने से की जा सकती है. 1990 के दशक की ही तरह इस बार पूरे भू-राजनीतिक नक्शे में बड़े बदलाव आए थे." अब भी स्थिति के सुधरने की उम्मीद करने वाले विशेषज्ञों को उम्मीद है कि अगर अरब सरकारें आर्थिक विकास और सुशासन को आगे बढ़ाने के लिए और अधिक 'समावेशी' नीतियों पर ध्यान दें तो एक नई राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था की स्थापना की जा सकेगी.
आरआर/एमजे (एएफपी)