क्या लाए अरब वसंत के पांच साल
१४ जनवरी २०१६डॉयचे वेले: 2011 की शुरुआत में विरोध की आंधी ने अरब दुनिया की कई सरकारों को उड़ा दिया. क्रांति की लहर ट्यूनीशिया, मिस्र, बहरीन, लीबिया, यमन और सीरिया में प्रदर्शनों में बदली. इस बीच सड़कों और गलियों के अलावा दिमागों में भी लोकतंत्र का उत्साह खत्म हो चुका है. क्या कोई एक देश है जहां क्रांति कामयाब रही है और लोगों की हालत पांच साल पहले से बेहतर है?
म्यूरियल आसेबुर्ग: ट्यूनीशिया एक देश है जहां सबसे ज्यादा प्रगति हुई है. लेकिन मैं नहीं समझता कि कहा जा सकता है कि क्रांति कामयाब रही है. क्रांतिकारियों की मांगें ट्यूनीशिया में भी पूरी नहीं हुई हैं, खासकर सामाजिक और आर्थिक बेहतरी की मांगें. समृद्धि के समान बंटवारे का मुद्दा, केंद्र और बाहरी इलाकों के संबंध, भ्रष्टाचार और भाई -भतीजावाद, इन मुद्दों पर कोई अहम प्रगति नहीं हुई है.
इसके बावजूद ट्यूनीशिया वह देश है, जहां क्रांति और उसके बाद शुरू की गई बदलाव की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप कम से कम कागज पर ऐसी राजनीतिक व्यवस्था है जो पहले से ज्यादा सहभागी, समावेशी और लोकतांत्रिक है.
दूसरे देशों में नतीजे निराशाजनक रहे हैं. लीबिया में विस्फोटक हालात हैं, यमन और सीरिया गृहयुद्ध में फंसा है, मिस्र में सैनिक तानाशाही है, क्या पश्चिमी देशों ने क्रांति का समर्थन कर भोलेपन का परिचय दिया?
विरोध आंदोलन या बदलाव की प्रक्रिया का समर्थन भोलापन नहीं था. भोलापन यह उम्मीद करना था कि यह प्रक्रिया जल्द ही लोकतंत्र, कानून सम्मत राज्य और स्थिरता की ओर ले जाएगा.प्रदर्शनकारियों की मांगों का समर्थन करना सही था जो निरंकुश शासन और जातीयता, धार्मिक भेदभाव के खिलाफ संघर्ष कर रहे थे. सवाल यह है कि क्या यह समर्थन पर्याप्त था?
समस्या कहां थी?
यूरोपीय देशों ने इलाके में जो संकेत दिए वे बहुत साफ नहीं थे. यूरोपीय संघ और सदस्य देशों ने ये कहा कि हम लोकतंत्रीकरण और कानूनी राज्य का समर्थन करते हैं, लेकिन साथ ही वे पुरानी ताकतों और सुरक्षा ढांचे के साथ सहयोग करने के लिए तैयार थे ताकि अनियमित आप्रवासन को रोका जा सके, आतंकवाद से लड़ा जा सके और विदेश व्यापार को बढ़ावा दिया जा सके.
लोकतांत्रिक आंदोलन आराबेलियन का सामना कर रहे देश अलग अलग तरह के हैं, लेकिन क्या कोई साझा तत्व था जो क्रांति की विफलता का कारण बना?
सारे अंतर के बावजूद एक समानता है. एक क्षेत्रीय माहौल है जिसकी जिसकी नागरिकों की राजनीतिक सहभागिता में कोई दिलचस्पी नहीं है. हर देश में इस तरह के तत्व उन लोगों के साथ हो लिए जो लोकतांत्रिक बदलाव के बदले या तो सत्ता बनाए रखना चाहते थे, या फिर से हासिल करना चाहते थे. खाड़ी के अनुदारवादी देशों ने, जिनमें सऊदी अरब प्रमुख था, इनमें से कुछ देशों में ऐसी ताकतों का समर्थन किया जो प्रतिक्रांति को बढ़ावा दे रहे थे और उनकी लोकतांत्रिक परिवर्तन में कोई दिलचस्पी नहीं थी. सीरिया में उन्होंने मौजूदा शासन के खिलाफ विद्रोह का समर्थन किया.
उसमें भू-राजनीतिक रणनीति का सवाल था. ईरान के साथ जुड़े समझे जाने वाले असद को सत्ता से हटाने का मकसद था.
हां, लेकिन सिर्फ यही नहीं. ईरान को कमजोर करना सऊदी अरब के लिए उतना ही महत्वपूर्ण था जितना बहरीन जैसे साथी देशों में सत्ता के विघटन को रोकना या मिस्र में लोकतांत्रिक सरकार के आने को रोकना, क्योंकि वहां एक मुख्य प्रतिद्वंद्वी मुस्लिम ब्रदरहुड के आगे बढ़ने का खतरा था.
मैं मिस्र पर खास निगाह डालना चाहूंगा क्योंकि वह इलाके का सबसे ज्य़ादा आबादी वाला देश है और तहरीर स्क्वायर पर हुए प्रदर्शनों को पश्चिम में सहानुभूति के साथ देखा जा रहा था. वहां क्या गड़बड़ी हुई? वहां किसने क्रांति को बंधक बना लिया?
हमारे यहां लंबे समय तक मीडिया और राजनीतिक बहस में कहा जा रहा था कि इस्लामी कट्टरपंथियों ने क्रांति को बंधक बना लिया. मैं इसे गलत मूल्यांकन मानता हूं. क्योंकि मिस्र में शासन का विघटन कभी नहीं हुआ था. सिर्फ मुबारक और उनके साथियों और पार्टी का शासक वर्ग हट गया था. सत्ता का सबसे महत्वपूर्ण पाया सेना पूरी तरह से कायम था. सैनिक नेतृत्व ने पहले मुबारक से छुटकारा पाया और सोचा कि वह दूसरे चेहरे के साथ भी शासन कर सकता है. जब उन्होंने देखा कि मुस्लिम ब्रदरहुड के साथ यह नहीं हो पा रहा है तो उन्होंने उसे भी हटा दिया.
बहुत से लोगों के लिए हालात खराब हुए हैं. इसके अलावा वे कारण भी बने हुए जिनकी वजह से लोग पांच साल पहले सड़कों पर उतरे थे. यह असंतोष अब कौन से रास्ते ढूंढ रहा है?
इस समय हम तीन बातें देख रहे हैं. पहला यह कि विरोध राजनीति के बदले हिंसा के माध्यम से किया जा रहा है. इसकी वजह से इलाके के देश बड़े पैमाने पर अस्थिर हो गए हैं. और यह बात सिर्फ उन देशों पर लागू नहीं होती जहां गृहयुद्ध चल रहा है. यह बात मिस्र पर भी लागू होती है जहां हिंसा सिर्फ सिनाई तक सीमित नहीं है. कुछ दूसरे देश हैं जहां हिंसा और अस्थिरता का बड़ा खतरा है. मैं सऊदी अरब का नाम लूंगा. दूसरी बात है कि लगातार ज्यादा युवा लोग जिहाद की ओर आकर्षित हो रहे हैं. और तीसरा रुझान है कि बहुत से युवा लोग अपना देश छोड़ रहे हैं और अपना भविष्य यूरोप या कहीं और तलाश रहे हैं.
डॉ. म्यूरियल आसेबुर्ग बर्लिन के अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा संस्थान एसडब्ल्यूपी में मध्यपूर्व विशेषज्ञ हैं. हाल में उनकी किताब "अरब वसंत का तीखा फल" बाजार में आई है.
इंटरव्यू: मथियास फॉन हाइन/एमजे
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