अस्पताल से मिली बीमारी
२ फ़रवरी २०११संक्रामक रोगों को आम तौर पर लोग संजीदगी से नहीं लेते. भारत में ज्यादातर लोग मुहांसों के इलाज के लिए या तो दादी मां के नुस्खे अपनाते हैं या उन्हें पूरी तरह से अनदेखा कर देते हैं. बहुत कम लोग होते हैं जो डॉक्टर के पास जा कर इसका इलाज कराते हैं. ज्यादातर लोग इस बात की संजीदगी को नहीं समझते के मुहांसे करने वाला यह बेक्टीरिया जानलेवा भी हो सकता है.
मेथिसिलिन रेसिस्टेंट स्टेफीलोकोकस ऑरेउस या एमआरएसए एक ऐसा बेक्टीरिया है जो आम तौर पर त्वचा पर आक्रमण करता है. अमेरिका में ज्यादातर त्वचा के रोग इसी विषाणु के कारण होते हैं. मुहांसों तक तो इन पर काबू कर लिया जाता है लेकिन अगर यह किसी चोट द्वारा खून के अन्दर पहुंच जाएं, तो यह शरीर को भारी नुकसान पहुंचा सकते हैं. खास तौर से ऑपरेशन के दौरान अगर ध्यान ना दिया जाए तो ये पूरे शरीर में इन्फेक्शन फैला सकते हैं.
यूरोप में लाखों बीमार
यूरोप में हर साल चालीस लाख से अधिक लोग अस्पतालों में इन्ही विषाणुओं का शिकार होते हैं. इनमें से 35,000 जर्मनी में हैं. एक अध्ययन के अनुसार यूरोप में हर साल 37,000 लोग इसलिए अपनी जान गंवा बैठते हैं क्योंकि वे अस्पताल में आकर बीमार पड़ते हैं और समय रहते उनका सही इलाज नहीं हो पाता. यूरोपीय संघ कोशिश कर रहा है कि अस्पतालों में साफ सफाई के मापदंड अब और भी सख्त कर दिए जाएं.
जर्मन सोसाइटी फॉर हॉस्पिटल हाइजीन चाहता है कि जर्मनी के हर अस्पताल में मरीज को भर्ती करने से पहले उसकी पूरी तरह से जांच कर ली जाए कि कहीं वह अपने साथ इस कीटाणु को तो नहीं लाया है. ऐसा करना इसलिए जरूरी है ताकि मरीज की पहचान कर ली जाए और उसे बाकी मरीजों से अलग रखा जाए ताकि अन्य इस से संक्रमित ना हों. जर्मनी, फ्रांस और पोलैंड में 25 प्रतिशत मरीजों में यह कीटाणु पाया गया. स्पेन और तुर्की जैसे अन्य दक्षिण यूरोपीय देशों में हालात और भी खराब हैं. वहां 50 प्रतिशत मरीज इस विषाणु से संक्रमित हैं.
एस्सेन के यूनिवर्सिटी क्लीनिक में ईलाज
जर्मनी के एस्सेन शहर के यूनिवर्सिटी क्लीनिक में मरीजों की पूरी तरह जांच करके ही उन्हें भर्ती किया जाता है. यह देश के उन चुनिन्दा अस्पतालों में से एक है जहां ऐसा किया जा रहा है. 66 वर्षीय हाइंत्स डीटर रीब्लिंग अपनी टांग के ऑपरेशन के लिए अस्पताल में आए थे, लेकिन फिलहाल उनकी जांच चल रही है. वह कहते हैं, "उन्होंने मेरे कुछ सैम्पल लिए, मुझे एक अलग कमरे में ले के आए और मेरे शरीर पर कुछ दवाइयां और मलहम लगाया."
जांच के बाद उनके ऑपरेशन को कुछ दिनों के लिए टाल दिया गया है. उनके टेस्ट के नतीजे बताते हैं कि वे इस बैक्टीरिया से संक्रमित हैं और इसलिए फिलहाल ऑपरेशन करना सही नहीं होगा. एस्सेन के इस अस्पताल में रीब्लिंग जैसे 500 और मरीज मौजूद हैं. इन सभी को अलग अलग कमरों में रखा गया है. जर्मन सोसाइटी फॉर हॉस्पिटल हाइजीन के उपनिदेशक प्रोफेस्सर वाल्टर पॉप कहते हैं कि यह तरीका महंगा जरूर है लेकिन मरीजों की भलाई के लिए है. उनके मुताबिक, "हम नहीं चाहते कि अस्पताल में मौजूद दूसरे मरीज भी इस से संक्रिमित हों. साथ ही हम एमआरएसए संक्रमित मरीज को एक मौका देना चाहते हैं कि वे पूरी तरह स्वस्थ हो सकें. इसके अलावा एक कारण यह भी है कि हम अपने अस्पताल के स्टाफ को बीमार होने से बचाना चाहते हैं. पिछले सालों में एमआरएसए के केस इतनी तेजी से बढे हैं कि अब इसे कामकाज संबंधी बीमारी के रूप में देखा जा रहा है."
एंटी बायोटिक का असर नहीं
एमआरएसए को सबसे पहली बार 1961 में खोजा गया था. इससे छुटकारा पाने के लिए एंटी बायोटिक का इस्तेमाल भी किया गया. लेकिन इतने सालों में इन विषाणुयों ने खुद को इन दवाइयों के हिसाब से ढाल लिया है और मेथिसिलिन, अमोक्सिसिलिन, पेनिसिलिन, ओक्ससिलिन जैसे ज्यादातर एंटी बायोटिक अब इन पर काम करने में विफल रहते हैं. वैज्ञानिक अब नए एंटी बायोटिक बनाने में लगे हैं. एस्सेन यूनिवर्सिटी क्लीनिक इस में ढाई लाख यूरो लगा रहा है.
इन्फेक्शन की वजह से अगर मरीज को निमोनिया हो जाए तो अस्पताल को कम से कम 20,000 यूरो का खर्चा आता है और सेप्टिक हो तो 4,000 का. इसलिए अस्पताल को अगर समय रहते ही इस के बारे में पाता चल जाए तो बहुत पैसा बच सकता है.
पॉप मानते हैं कि जल्द ही जर्मनी के बाकी के अस्पताल भी ऐसा ही करेंगे क्योंकि इस से वे काफी खर्चा बचा सकते हैं. लेकिन बोखुम शहर के सांक्ट योसफ अस्पताल के निदेशल प्रोफेस्सर आन्द्रेआस मुएगे मानते हैं कि इसमें अभी काफी समय लग सकता है. वह कहते हैं, "इसे थोड़ा तार्किक रूप से देखने की जरूरत है. सिर्फ मरीजों की स्क्रीनिंग तो काफी नहीं है. ऐसा तो है नहीं कि हम उनका टेस्ट करें, पता चले उनमें एमआरएसए है तो उन्हें घर वापस भेज दें. उनका ठीक तरह इलाज करना पड़ेगा, जरूरत पड़े तो शायद ऑपरेशन भी करना पड़े. और इसके लिए पहले हमारे पास सारे बंदोबस्त होना जरूरी है."
जर्मन सोसाइटी फॉर हॉस्पिटल हाइजीन के अनुसार जर्मनी में 80 प्रतिशत अस्पतालों में एमआरएसए का खतरा है. इन अस्पतालों से कड़े रूप से यह कहा जा रहा है कि जो लोग साल में एक से ज्यादा बार अस्पताल में भर्ती हो रहे हों, उनकी पूरी तरह से जांच की जाए.
रिपोर्ट: ईशा भाटिया
संपादन: ओंकार सिंह जनोटी