आपसी प्रतिद्वंदिता के बावजूद क्या साथ आएंगे अमेरिका और चीन
१५ नवम्बर २०२३एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग (एपीईसी) शिखर सम्मेलन 11 से 17 नवंबर तक अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को में चल रहा है. इस सम्मेलन में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग दोनों मौजूद होंगे. जो व्यक्ति बाइडेन और जिनपिंग की तस्वीर लेगा उस पर काफी जिम्मेदारी होगी. आखिर यह तस्वीर दुनिया के उन दो बड़े देशों के बीच के संबंधों को दिखाएगी जो वैश्विक तौर पर आर्थिक और सुरक्षा नीति के मामले में प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं. अगर ये दोनों देश सहयोग नहीं करते हैं, तो जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक चुनौतियों का सामना नहीं किया जा सकता है.
मीडिया और आम लोग, दोनों देशों के बीच के संबंधों की व्याख्या करने के लिए दोनों राष्ट्र प्रमुखों के चेहरे के भाव, शारीरिक हाव-भाव और पूरी सेटिंग पर ध्यान देंगे. इस मुलाकात के दौरान वे एक-दूसरे से आमने-सामने आंख से आंख मिलाकर मुलाकात करेंगे. बाइडेन 1.83 मीटर (लगभग 6 फीट) लंबे हैं और शी की लंबाई भी करीब 1.80 मीटर है. हालांकि, शी की लंबाई की सटीक जानकारी नहीं है, क्योंकि चीन इस तरह की जानकारी को राजकीय रहस्य की तरह मानता है.
दोनों नेताओं के बीच पिछली मुलाकात नवंबर 2022 में इंडोनेशिया के बाली में जी20 शिखर सम्मेलन में हुई थी. तब से राजनीतिक विमर्श होते रहे हैं, लेकिन शी और बाइडेन ने सीधे तौर पर आमने-सामने बातचीत नहीं की है. मर्केटर इंस्टीट्यूट फॉर चाइना स्टडीज (मेरिक्स) की प्रमुख विश्लेषक हेलेना लेगार्डा का कहना है, "यह बात साफ तौर पर जाहिर है कि शी और बाइडेन मौजूदा मुद्दों पर चर्चा करेंगे. हालांकि, यह स्पष्ट नहीं है कि वे किसी मुद्दे पर आम सहमति बना पाएंगे या नहीं. यह भी हो सकता है कि इस सम्मेलन से कोई ठोस नतीजा न निकले.”
राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी हैं अमेरिका और चीन
चीन और अमेरिका के संबंध दो अलग-अलग राजनीतिक प्रणालियों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करते हैं. चीन एक निरंकुश एकदलीय देश है जो दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है. चीन का कहना है कि वह 2050 तक दुनिया का सबसे मजबूत देश बनना चाहता है. इस कम्युनिस्ट देश ने शीत युद्ध के दौरान दशकों तक पश्चिमी गठबंधन के खिलाफ लड़ाई लड़ी. हालांकि, वह कामयाब नहीं हो सका लेकिन अब उसे उम्मीद है कि वह वैश्विक महाशक्ति के तौर पर अमेरिका को पछाड़ कर खुद को स्थापित कर पाएगा. वहीं, अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और लोकतंत्र है. यह वैश्विक महाशक्ति के तौर पर अपनी जगह बनाए रखना चाहता है.
दोनों देश एक-दूसरे से कई स्तर पर प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं. इनमें से एक है अर्थव्यवस्था. खासकर सेमीकंडक्टर, डिजिटलाइजेशन और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसे उच्च-तकनीकी क्षेत्र में दोनों एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में हैं. हालांकि, भू-राजनीतिक हित भी दोनों देशों की प्रतिस्पर्धा के बीच अहम भूमिका निभाते हैं. चीन गैर-पश्चिमी देशों के साथ गठबंधन बनाकर अमेरिका के प्रभुत्व वाली वैश्विक व्यवस्था को बदलना चाहता है. ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि साम्यवादी निरंकुशता या पूंजीवादी लोकतंत्र में से कौन 21वीं सदी का वैचारिक मॉडल बनेगा?
इतिहास के पन्नों पर नजर डालें, तो 1972 में राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के नेतृत्व में अमेरिका ने पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किए थे. पिछले कुछ दशकों में यह संबंध तेजी से आगे बढ़ा, खासकर 1978 में चीनी राष्ट्रपति डेंग शियाओपिंग के शासन में सुधार और खुलेपन की नीतियों की शुरुआत के बाद से.
एक-दूसरे पर आर्थिक निर्भरता
चीन अपनी आर्थिक ताकत की बदौलत अन्य देशों के साथ घनिष्ठ संबंध बनाने में सक्षम है. इसके विशाल बाजार ने यूरोप और अमेरिका से कई निवेशकों को आकर्षित किया है जो पूंजी और तकनीकी जानकारी लेकर यहां आए. उदाहरण के लिए, 2022 में जर्मन कार निर्माता कंपनी फोक्सवागेन, बीएमडब्ल्यू और मर्सिडीज ने अपने रेवेन्यू का औसतन 35 फीसदी हिस्सा चीन से हासिल किया.
इस दौरान, चीन ने अफ्रीका, मध्य एशिया, लैटिन अमेरिका और हाल ही में अरब दुनिया में निवेश किया है. बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव उसकी एक प्रमुख परियोजना है. इस परियोजना के तहत चीन दुनिया में व्यापार करने के लिए दो प्रमुख मार्ग बना रहा है, जिसमें एक समुद्री मार्ग है और दूसरा सड़क मार्ग. इसे न्यू सिल्क रोड का नाम भी दिया गया है.
चीन प्रमुख उभरती अर्थव्यवस्थाओं के समूह ब्रिक्स+ में भी अग्रणी भूमिका निभाता है. मूल रूप से ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका से बने इस समूह का विस्तार करके, इसमें छह और सदस्यों को शामिल किया जा रहा है. लगभग 40 देशों ने इसमें शामिल होने में दिलचस्पी दिखाई है. डुइसबुर्ग-एसेन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और चीनी मामलों के विशेषज्ञ मार्कुस टाउबे कहते हैं, "चीन ऐसी शासन प्रणाली चला रहा है जिसके तहत अन्य देशों के साथ संबंधों में राजनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए आर्थिक लाभ का इस्तेमाल किया जाता है.”
पिछले सप्ताह डुसेलडॉर्फ में जर्मन-चीन व्यापार सम्मेलन में टाउबे ने कहा, "चीन वैश्विक व्यवस्था पर अपनी पकड़ मजबूत बनाना चाहता है और ऐसा करने की मांग भी कर रहा है. इसका नतीजा यह हुआ है कि पश्चिमी दुनिया के साथ इसकी तकरार बढ़ती जा रही है. हम यह अनुभव कर रहे हैं कि राष्ट्रीय लक्ष्यों को हासिल करने के लिए ‘आर्थिक शासन प्रणाली' का ज्यादा इस्तेमाल किया जा रहा है.” अमेरिकी थिंक टैंक अटलांटिक काउंसिल के मुताबिक, "आर्थिक शासन प्रणाली का मतलब विदेश नीति के उद्देश्यों को हासिल करने के लिए वित्तीय, कानूनी और आर्थिक उपकरणों का इस्तेमाल करना है.”
‘व्यापार के जरिए बदलाव' की उम्मीद नहीं हुई पूरी
विडंबना यह है कि शुरुआत में पश्चिमी देश ही ‘आर्थिक शासन प्रणाली' के जरिए बदलाव लाना चाहते थे, खासकर 1990 के दशक में. जर्मन मुहावरा था ‘व्यापार के जरिए बदलाव'. टाउबे ने कहा, "जर्मन सिद्धांतकारों ने सोचा था कि जटिल अर्थव्यवस्थाएं उदार सामाजिक मॉडल के बिना काम नहीं कर सकती हैं. ‘व्यापार के जरिए बदलाव' संतुलन बनाने का काम करेगा. आज हम देख सकते हैं कि यह सिद्धांत पूरी तरह सही नहीं है.” चीन ने साबित कर दिया है कि पूंजीवाद और निरंकुशता पूरी तरह मेल खाते हैं. मेरिक्स की लेगार्डा कहती हैं, "पश्चिमी देशों के लिए बड़ी चुनौती और चिंता यह होगी कि चीन ने मौजूदा वैश्विक व्यवस्था, नियमों, मूल्यों और सिद्धांतों में सुधार करने की महत्वाकांक्षा जताई है, ताकि वे उसके हिसाब से हों.”
वहीं दूसरी ओर, अमेरिका के नेतृत्व वाले जी7 के सात औद्योगिक देशों के उदार लोकतांत्रिक समूह ने ‘वैश्विक चुनौतियों के साथ-साथ सामान्य हित के मामलों' पर चीन के साथ काम करने की पेशकश की है. जर्मनी भी इस समूह का सदस्य है. 8 नवंबर को जापान में बैठक के बाद जी7 विदेश मंत्रियों के बयान में कहा गया, "हम चीन के साथ रचनात्मक और स्थिर संबंध बनाने के लिए तैयार हैं. हमें पता है कि स्पष्ट तौर पर बातचीत करने और चिंताओं को जाहिर करने का क्या महत्व होता है.”
शी जिनपिंग के अमेरिका दौरे से पहले, राष्ट्रपति बाइडेन से चीन सागर और अन्य जगहों पर चीनी उकसावे का निर्णायक रूप से जवाब देने का आह्वान किया गया है. हालांकि, आपसी प्रतिद्वंद्विता के बावजूद, चीन और अमेरिका के बीच व्यावहारिक गठबंधन होना भी जरूरी है, ताकि सामान्य चुनौतियों और चिंताओं को दूर किया जा सके. पश्चिमी देश भी इस प्रतिद्वंद्विता के बीच समान विचारधारा वाले साथी तलाश रहे हैं. जर्मनी की विदेश मंत्री अनालेना बेयरबॉक का कहना है, "लोकतांत्रिक देश के तौर पर, हम निरंकुश ताकतों का मुकाबला सिर्फ तब कर सकते हैं, जब दुनिया भर में हमारे मित्र महसूस करेंगे कि हम इस मुद्दे पर गंभीर हैं.”