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आखिर अपनी मंजिल पाई हिमंत बिस्वा सरमा ने

प्रभाकर मणि तिवारी
१० मई २०२१

बीजेपी ने पांच साल की सत्ता और विधानसभा में फिर से जीत के बाद मुख्यमंत्री बदलने का फैसला किया है. अब सर्बानंद सोनोवाल की जगह पूर्वोत्तर का चाणक्य और बीजेपी का संकटमोचक कहे जाने वाले हिमंत बिस्वा सरमा नए मुख्यमंत्री हैं.

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Indien | Wahlen 2021
तस्वीर: Anuwar Hazarika/NurPhoto/picture alliance

मुख्यमंत्री की कुर्सी पर निगाह रखने वाले हिमंत बिस्वा सरमा ने छह साल पहले इसी वजह से कांग्रेस से नाता तोड़ कर बीजेपी का दामन थामा था. उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा अब जरूर पूरी हो गई है, लेकिन उनकी आगे की राह आसान नहीं है. फिलहाल मुख्यमंत्री के तौर पर उनकी सबसे बड़ी चुनौती वही है जो सोनोवाल सरकार में स्वास्थ्य मंत्री रहते हुए थे, यानि कोरोना के बढ़ते संक्रमण पर काबू पाना. प्रदेश में कोरोना संक्रमण के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं. नए मुख्यमंत्री ने शपथ ग्रहण के बाद कहा कि असम में कोरोना की स्थिति बेहद खराब है. यहां रोजाना पांच हजार से ज्यादा मामले सामने आ रहे हैं और कल कैबिनेट की पहली बैठक में कोरोना को लेकर चर्चा होगी. सरमा ने कहा कि कोरोना को रोकने के लिए हर संभव कदम उठाया जाएगा.

हिमंत बिस्वा सरमा ने सत्ता संभालते ही उग्रवादी संगठन यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) के स्वाधीन गुट से हिंसा छोड़ कर शांति प्रक्रिया में शामिल होने की अपील की है. इसके अलावा राज्य में सामाजिक औऱ राजनीतिक संतुलन साधना भी हिमंत के लिए चुनौती होगी. लंबे अरसे बाद निचले असम का कोई नेता मुख्यमंत्री बना है. बीते करीब चार दशकों से ऊपरी असम ही असम का नेतृत्व करता रहा है. अब उसके हाथ से कमान छिनने की तीखी प्रतिक्रिया हो सकती है. सर्बानंद सोनोवाल भी ऊपरी असम के थे और बीजेपी ने अधिकांश सीटें ऊपरी असम से ही जीती हैं. लेकिन हिमंत निचले असम के हैं.

महात्वाकांक्षी नेता

सरमा ने 1980 के दशक के शुरुआत में राजनीति में उस समय कदम रखा जब असम में विदेशी विरोधी आंदोलन चल रहा था. उस समय उन्होंने आसू नेताओं प्रफुल्ल कुमार महंता और भृगु कुमार फूकन के सहयोगी के तौर पर काम किया. लेकिन वर्ष 2001 में उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा और पहली जीत हासिल की. सरमा को करीब से जानने वालों की मानें तो उनकी निगाह शुरू से ही मुख्यमंत्री की कुर्सी पर थी. कांग्रेस के दो मुख्यमंत्रियों के साथ वर्षों तक काम करने के दौरान भी वह अपने लक्ष्य पर अड़े रहे. कई लोग उन्हें पूर्वोत्तर का सबसे ताकतवर नेता मानते हैं. 52 वर्षीय सरमा के समर्थक उनकी राजनीतिक क्षमता के कायल हैं तो विरोधी उनकी अति महत्वाकांक्षा की आलोचना करते हैं.

Indien Dibrugarh | Wahlkampagne
चुनाव प्रचार करते हिमंत बिस्वा सरमातस्वीर: Prabhakarmani Tewari /DW

सरमा वर्ष 2001 से ही असम सरकार के मंत्री हैं. उनको ऐसा नेता माना जाता है जो तमाम प्रतिकूल हालात में भी काम कर सकता है. उनकी इस खासियत की वजह से ही कांग्रेस के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों--हितेश्वर सैकिया और तरुण गोगोई ने उनको राजनीति में बढ़ावा दिया था. आसू में अपनी राजनीतिक सूझबूझ का परिचय दे चुके सरमा पर कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री हितेश्वर सैकिया की नजर पड़ी और वह उनको अपने साथ ले आए. उस समय सरमा गुवाहाटी विश्वविद्यालय में कानून की पढ़ाई कर रहे थे.

पूर्वोत्तर में बीजेपी को बढ़ाया

मुख्यमंत्री तरुण गोगोई भी सरमा की राजनीतिक कुशलता से प्रभावित होकर युवा होने के बावजूद उनको कृषि, योजना व विकास राज्य मंत्री बना दिया. बाद में उन्हें अतिरिक्त जिम्मेदारी भी दी गई. सरमा ने इसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा और बहुत जल्दी गोगोई की आंखों का तारा बन गए. गोगोई जब दूसरी बार मुख्यमंत्री बने तब सरमा को उन्होंने कैबिनेट मंत्री बनाया. वर्ष 2011 के चुनाव में कांग्रेस सत्ता विरोधी लहर का सामना कर रही थी लेकिन सरमा की रणनीति और प्रबंधन से पार्टी लगातार तीसरी बार सत्ता में आई और गोगोई ने इसका इनाम उन्हें कई विभाग देकर दिया. लेकिन सरमा की बढ़ती महत्वाकांक्षा की वजह से गोगोई के साथ उनकी दूरियां बढ़ने लगीं. इसके बाद वर्ष 2015 में उन्होंने कांग्रेस, मंत्रिमंडल और बाद में विधानसभा से भी इस्तीफा दे दिया. उससे पहले उन्होंने बदरुद्दीन अजमल के साथ मिल कर तरुण गोगोई के खिलाफ अभियान चलाया था. लेकिन अपनी इस मुहिम में उनको कामयाबी नहीं मिली.

Indien National Register of Citizens | Assam, Einsicht in Entwurf
असम में नागरिकता रजिस्टर पर विवाद रहा हैतस्वीर: Reuters

उसके बाद उन्होंने बीजेपी का दामन थाम लिया. अगस्त 2015 में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के आवास पर हुई बैठक के बाद सरमा भाजपा में शामिल हुए. वर्ष 2016 में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद हालांकि वह सरकार में वित्त और स्वास्थ्य मंत्री बने. लेकिन उनको अघोषित मुख्यमंत्री माना जाने लगा. सरकार के तमाम फैसलों पर उनकी छाप साफ नजर आती थी. सरमा को पूर्वोत्तर लोकतांत्रिक गठजोड़ यानी नेडा का संयोजक भी बना दिया गया. बीते पांच वर्षो के दौरान उन्होंने इलाके के तमाम राज्यों में बीजेपी की पकड़ मजबूत करने और उसे सत्ता दिलाने में अहम भूमिका निभाई है. इस मामले में त्रिपुरा और मणिपुर की की मिसाल दी जा सकती है.

बीजेपी की मजबूरी

हिमंत बिस्वा सरमा को मुख्यमंत्री बनाना बीजेपी की मजबूरी भी थी. बीजेपी का नेतृत्व यह अच्छी तरह जानता था कि वर्ष 2016 और 2021 में हिमंत की वजह से ही असम में पार्टी सत्ता में आई है. अगर हिमंत बिस्व सरमा ने कांग्रेस को छोड़ा और तोड़ा न होता तो वर्ष 2016 में सत्ता विरोधी लहर होने के बावजूद बीजेपी का जीतना मुश्किल था. वर्ष 2014 से अब तक हिमंत में लंबी दूरी तय की है और आखिर अपनी मंजिल तक पहुंचने में कामयाब हो गए हैं. 2014 में जब मोदी ने असम को गुजरात बनाने का वादा किया था तो हिमंत ने उसके जवाब में बहुत ही तीखी टिप्पणी की थी. उन्होंने कहा था कि हमें गुजरात की हकीकत मालूम है. वहां पाइपों में मुसलमानों का खून बहता है. मोदी के खिलाफ ऐसी टिप्पणी करने वाले का बीजेपी सरकार के मुखिया के पद तक पहुंचना हैरत की ही बात है. लेकिन सत्ता के लिए पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने इस कड़वे घूंट को पीते हुए सरमा को ही सरकार की कमान सौंपी है. दरअसल उसके सामने कोई और विकल्प भी नहीं है.

इस बार चुनाव अभियान के दौरान हिमंत ने अपनी टिप्पणियों के जरिए बड़े पैमाने पर धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण का अभियान चलाया था. मुस्लिम आबादी पर निशाना साधते हुए वे असम में मुगल राज और औरंगजेब के शासन की बातें करके हौआ खड़ा करने लगे. हिंदुओं के ध्रुवीकरण की कोशिश में उन्होंने यह तक कह दिया कि पार्टी को मियाओं के वोट नहीं चाहिए. राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि हिमंत ने साबित कर दिया है कि इलाके पर उनकी पकड़ बेहद मजबूत है. ऐसे में बीजेपी नेतृत्व अब ज्यादा समय तक उनकी उपेक्षा नहीं कर सकता था. लेकिन हिमंत की असली परीक्षा अब मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने के बाद शुरू होगी. यह देखना दिलचस्प होगा कि वे इसमें कितना कामयाब रहते हैं.

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