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ईरान: क्रांति जो एक बुरा सपना बन कर रह गई

११ फ़रवरी २०१९

इस्लामी क्रांति के चालीस साल बाद आज ईरान की सरकार मजबूत तो लगती है लेकिन जमशेद बार्जेगर का कहना है कि जितनी हिंसा और सेंसरशिप का इस्तेमाल वह कर चुकी है, अब उसके लिए अपने दिन गिनने का वक्त आ गया है.

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Iran 37. Jahrestag Islamische Revolution
तस्वीर: Reuters/Tima/R. Homavandi

चालीस साल पहले जब इस्लामी क्रांति हुई और ईरान के आखिरी शाह मोहम्मद रेजा शाह पहलवी से उनकी गद्दी छिनी, तब मैं केवल सात साल का था. लेकिन मेरी छोटी उम्र मुझे प्रदर्शनों का हिस्सा बनने से नहीं रोक पाई थी. मेरे परिवार के वो सदस्य, जो इस्लामी क्रांति का समर्थन कर रहे थे, मुझे प्रदर्शनों में साथ ले जाया करते थे. ईरान के अन्य कई परिवारों की तरह, मेरा परिवार भी दो धड़ों में बंटा था, एक बड़ा हिस्सा शाह के खिलाफ था और एक छोटा हिस्सा क्रांति के खिलाफ.

शुरुआती महीनों में राजनीतिक चर्चा लोगों की दिनचर्या का हिस्सा बन गई थी, फिर चाहे वो घर पर हो या सड़क पर. स्कूल में हमें लाइन लगा कर अयातोल्लाह खोमैनी और उनके सहयोगियों की तारीफ में गीत गाने होते थे. लेकिन कई बार ऐसा भी होता था कि क्रांति के विरोधी हमें सड़क पर घेर लेते थे और हाल ही में सत्ता हाथ में लेने वाले इमाम के खिलाफ नारेबाजी कराते थे. घर में हम बच्चों को अकसर सिखाया जाता था कि खुद को इस मुसीबत से दूर रखना है.

और फिर एक दिन ये सवाल ही खत्म हो गया कि हमें किसके समर्थन में खड़ा होना है. हमें स्कूल से निकाल कर ले जाया जाता था ताकि "क्रांति के विरोधियों" को फांसी पर लटकते हुए देख सकें. आज भी इस्लामी क्रांति का विरोध करने वालों को अपराधियों के रूप में देखा जाता है और उन्हें कड़ी सजा देने के लिए यही वजह काफी होती है.

Jamshid Barzegar -  neuer Leiter der DW Farsi-Redaktion.
जमशेद बार्जेगरतस्वीर: DW/B. Scheid

फांसी, जेल और देशनिकाला - किसी भी तरह के विरोध को दबाने के लिए इस्लामी नेता इन्हीं हथकंडों का सहारा लेते थे. शुरुआत हुई तख्तापलट के बाद शाह के अधिकारियों और कुछ सेनाध्यक्षों की फांसी से. फिर इसके कुछ ही समय बाद अस्सी के दशक में कई "पूर्व क्रांतिकारियों" को भी मार डाला गया. अधिकतर मामलों में इनकी कोई सुनवाई नहीं हुई थी.

इस्लामी प्रशासन कभी भी प्रदर्शनकारियों पर गोलियां बरसाने से नहीं कतराया. पहले 2009 में ऐसा हुआ, फिर 2018 में. इसी तरह "सीरियल किलिंग" करवा कर प्रशासन ने साबित कर दिया था कि वह सत्ता में बने रहने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है. देश में कई लेखकों की हत्या कराई गई थी. जिस दौरान यह हुआ, मैं पत्रकार बन चुका था और ईरान के लेखक संघ का सदस्य भी था.

ये 1998 की बात है. देश के दो राजनीतिक आलोचकों की उनके घर में ही हत्या कर दी गई. दारियुश और परवानेह फरूहर के शव विकृत अवस्था में मिले. इसके दो दिन बाद तेहरान के बाहर रेगिस्तान में दो लेखकों, मोहम्मद मोख्तारी और मोहम्मद जाफर पुयानदेह के शव मिले. ये दोनों भी लेखक संघ के सदस्य थे.

इससे कुछ वक्त पहले ही 20 लेखकों से भरी एक बस को ढलाई पर गिराने की कोशिश की गई थी. उस दौरान हमारे संघ की बैठकें डर से भरी होती थीं. मुझ जैसे युवाओं के लिए ये एक नया तजुर्बा था लेकिन पुराने सदस्य क्रांति के शुरुआती सालों को याद करते थे, जब एक वामपंथी कवि को उसी के शादी में गिरफ्तार कर लिया गया था और बाद में फायरिंग स्क्वॉड ने उसकी जान ले ली थी.

हमें बाद में पता चला कि देश को बदलने का सपना रखने वाले राष्ट्रपति मोहम्मद खतामी के कहने पर देश की खुफिया एजेंसी एमओआईएस को हत्याओं के काम पर लगाया गया था. ऐसे में प्रशासन पर तो कोई असर नहीं पड़ा, उल्टे प्रेस की स्वतंत्रता पर भारी अंकुश लग गया और लेखकों के साथ साथ पत्रकार भी गिरफ्तार किए जाने लगे.

लगातार हो रहे इस दमन के चलते विरोधियों को आयोजित तरीके से एकजुट होने का मौका ही नहीं मिल सका है. लेकिन अब जब ईरान इस्लामी क्रांति के चालीस साल मना रहा है, कुछ ऐसे बदलाव देखने को मिल रहे हैं जो भविष्य में ईरान की राजनीति को बदल सकते हैं. तेहरान की सियासत जिन धड़ों में बंट रही है, वह इतना अस्पष्ट तो कभी भी नहीं था.

अर्थव्यवस्था के सुधरने की उम्मीद अब कम ही दिखती है. ऐसे में बदलाव की पैरवी करने वाले अब खुद को "हार्ड लाइनर्स" और "रिफॉर्मर्स" दोनों ही धड़ों से दूर रख रहे हैं. दूसरे शब्दों में कहें तो अब दो कैंप बन गए हैं, जो पहली बार 2017-18 में हुए प्रदर्शनों में आमने सामने थे. एक तरफ हैं वो जो मौजूदा इस्लामी गणतंत्र का बचाव करना चाहते हैं और दूसरी ओर वो जो देश में बड़े बदलाव देखना चाहते हैं यानि एक बार फिर तख्तापलट. 

पिछले बीस सालों में, जबसे मैंने ईरान छोड़ा है, मुझसे कई बार यह सवाल किया गया है कि ईरान का भविष्य कैसा होगा. आज भी मैं यही कहता हूं: मेरे पास इस सवाल का जवाब नहीं है. लेकिन एक बात है कि आज की स्थिति चालीस साल पहले वाली स्थिति जैसी ही है. और उस वक्त जो हुआ था वो भी किसी की भी कल्पना के परे था.