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एशिया और यूरोप की भाषा में समानता की क्या कहानी है?

६ सितम्बर २०१९

कई दशकों से रिसर्चर इस मुद्दे पर बहस कर रहे हैं कि इंडो यूरोपियन भाषाएं दक्षिण एशिया के ब्रिटिश द्वीपों पर कैसे बोली जाती हैं. इंसान के डीएनए पर हुईअब तक की सबसे बड़ी रिसर्च से इस बहस के खत्म होने के आसार बन रहे हैं.

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तस्वीर: Imago/Danita Delimont

रिसर्च के नतीजे में पता चला है कि कांस्य युग में यूरेशियाई घास के मैदानों से चरवाहे बड़ी तादाद में पश्चिमी यूरोप और पूर्वी एशिया की तरफ गए थे. यह काम करीब 5000 साल पहले शुरू हुआ था.

इस रिसर्च के बारे में साइंस जर्नल में रिपोर्ट छपी है. रिपोर्ट के सहलेखक वागीश नरसिम्हन ने समाचार एजेंसी एएफपी को बताया कि बीते 10 हजार सालों में आबादी के एक जगह से दूसरी जगह जाने की भूमिका भाषाई बदलावों को समझने और इंसान के शिकारी से किसान बनने की कहानी को समझने में बेहद अहम है.

हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के फेलो नरसिम्हन का कहना है, "यूरोप में इन दोनों प्रक्रियाओं के बारे में डीएनए और पुरातत्व पर बहुत सारा काम होता रहा है," लेकिन एशिया में इन बदलावों को बहुत कम समझा गया है.

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इंडो यूरोपीयन भाषा में संबंध देखने वाले सर विलियम जोन्स तस्वीर: Getty Images/Hulton Archive

दुनिया भर के आनुवांशिकी विज्ञानी, पुरातत्वविज्ञानी और मानवविज्ञानियों की टीम ने मध्य और दक्षिण एशिया के  524 ऐसे प्राचीन लोगों के जीनोम का विश्लेषण किया है जिन पर पहले कभी रिसर्च नहीं हुआ. इसके साथ ही दुनिया में ऐसे प्राचीन जीनोम जिन्हें प्रकाशित किया जा चुका है उनकी संख्या भी 25 फीसदी बढ़ गयी है.

एक जीनोम की दूसरे से  और पहले खोजे जा चुके अवशेषों के साथ इनकी तुलना की गई. इसके साथ ही सभी सूचनाओं को भाषाई और पुरातात्विक दस्तावेजों के संदर्भ में रखे गए. इन सब कोशिशों के आधार पर टीम अब तक उपलब्ध जानकारी के बीच बीच में जो कमियां थीं उनको पूरा करने में सफल हुई है.

2015 के एक रिसर्च पेपर ने यह संकेत दिए थे कि इंडो यूरोपीयन भाषाएं दुनिया की सबसे बड़ी भाषा समूह हैं. इनमें हिंदी, उर्दू, फारसी, रूसी, अंग्रेजी, फ्रेंच गैलिक समेत चार सो से ज्यादा भाषाएं शामिल हैं. यह भाषाएं यूरोप में घास वाले मैदानी इलाके के जरिए आईं.

बेशुमार संस्कृतियों और एक विशाल भूभाग में फैले होने के बावजूद इन भाषाओं के वाक्य विन्यास, संख्या, मूल विशेषण में रहस्यमय समानता है. यहां तक कि रिश्तेदारों और शरीर के अंगों समेत कई चीजों की संज्ञा में भी यह समानता मौजूद है.

शुरुआती इंडो यूरोपीयन भाषा के एशिया पहुंचने का मार्ग उतना साफ नहीं है. कुछ लोगों का मानना है कि यह अनातोलिया यानी आज के तुर्की के किसानों के जरिए फैला. हालांकि रिसर्चरों ने देखा है कि आज के दक्षिण एशियाई लोगों के  वंश में अगर प्राचीन अनातोलियाई किसानों से समानता ढूंढी जाए तो वह बहुत कम ही नजर आती है.

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सिंधु घाटी सभ्यता का नगर मोहनजोदाड़ोतस्वीर: Getty Images/AFP/A. Hassan

रिपोर्ट के सहलेखक डेविड रीष का कहना है, "हम अनातोलियाई मूल के किसानों की बड़े पैमाने पर दक्षिण एशिया में फैलने के विचार को खारिज कर सकते हैं. अनातोलियाई अवधारणा के केंद्र में यही बात है कि इस तरह से इन किसानों के आने से ही इंडो यूरोपीय भाषाएं इन इलाकों में पहुंची. बड़े पैमाने पर लोग आए ही नहीं तो यह अनातोलियाई अवधारणा यहीं खत्म हो जाती है."

घास के मैदानी इलाकों के पक्ष में दो नई बातें सामने आई हैं. पहली ये कि रिसर्चरों ने इंडो-ईरानी और बाल्टो-स्लाविच बोलने वाले लोगों में जेनेटिक समानता खोज ली है. रिसर्च के दौरान इन्हें पता चला है कि इन दोनों भाषाई समूहों के लोग घास वाले मैदानी इलाकों के चरवाहों के वंशज हैं जो 5000 साल पहले पश्चिम यूरोप की तरफ गए थे, इसके बाद के 1500 सालों में ये मध्य और दक्षिण एसिया के इलाके में फैल गए. 

इस सिद्धांत के पक्ष में एक और बात जो सामने आई है वह यह है कि दक्षिण एशिया के जो लोग आज द्रविड़ भाषा( मुख्य रूप से दक्षिण भारत और दक्षिण पश्चिमी पाकिस्तान में) बोलते हैं उनके डीएनए में घास के मैदानी इलाकों वाला डीएनए नहीं है जबकि जो लोग इंडो यूरोपीय भाषाएं बोलते हैं जैसे कि हिंदी, पंजाबी, बंगाली उनमें यह ज्यादा है.

जहां तक कृषि का संबंध है तो पहले के रिसर्च में यह सामने आ चुका है कि अनातोलियाई वंशजों से यह यूरोप में फैला. दक्षिए एशियाई और अनातोलियाई लोगों में साझी विरासत बहुत कम या ना के बराबर है जो उसे खारिज कर देती है. दूसरी तरफ पुरातात्विक आंकड़े दिखाते हैं कि मैदानी इलाकों के चरवाहों के समय भी कृषि मौजूद थी. यानी कृषि का विकास इन इलाकों में स्वतंत्र रूप से हुआ.

सेल प्रेस जर्नल में छपी इन्हीं लेखकों की एक रिसर्च रिपोर्ट बताती है कि सिंधु घाटी सभ्यता के इंसान का पहला जीनोम दुनिया की दूसरी प्राचीन सभ्यताओं जैसे कि मिस्र और मेसोपोटामिया के समकालीन है.

इस सभ्यता के पहले नगर जो ईसापूर्व 3000 साल पहले मौजूद थे उनमें दसियों हजार लोग रहते थे और जो माप तौल का इस्तेमाल कर रहे थे, मजबूत सड़कें बना रहे ते और सुदूर पूर्वी अफ्रीका के देशों में व्यापार कर रहे थे. दक्षिण एशिया के कांस्य युग के एक इंसान का सिक्वेंस बनाने में जो गर्म, नम और मानसूनी जलवायु की चुनौतियां थीं उसका सामना करने में टीम पहली बार सफल हुई है. 

यह डीएनए एक महिला का था जो सिंधु घाटी सभ्यता के सबसे बड़े शहर राखीगढ़ी (हड़प्पा) में चार से पांच हजार साल पहले रहती थी.

अपनी खोज के आधार पर रिपोर्ट के लेखक मान रहे हैं कि आधुनिक दक्षिण एशियाई इंसान हड़प्पावासियों का वंशज है जो बाद में घास के मैदानी इलाकों के लोगों से मिल गए जो उत्तर की तरफ से आए थे.

अकादमिक महत्व के अलावा प्राचीन डीएनए का सिक्वेंस तैयार करने से आधुनिक जीनोम का अध्ययन बेहतर हो सकेगा जो बीमारियों की जेनेटिक प्रवृत्ति का पता लगाता है.

एनआर/ओएसजे (एएफपी)

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