ओलंपिक में जीन डोपिंग का सिरदर्द
१५ जुलाई २०१२जानकारों का कहना है कि 27 जुलाई को ओलंपिक शुरू होने तक यह टेस्ट का तरीका तैयार नहीं हो सकेगा. हालांकि पक्के तौर पर कोई नहीं जानता कि सचमुच में जीन डोपिंग हो रही है या नहीं लेकिन सैद्धांतिक रूप से इसकी पुष्टि होने के बाद कि लोग अपने डीएनए में हेराफेरी कर ताकत और धैर्य बढ़ा सकते हैं, खेल अधिकारियों की नींद उड़ गई है.
विज्ञानी एंडी मिया ने समाचार एजेंसी एएफपी को बताया, "आज इसकी जांच नहीं हो सकती. अगर जीन में हेरफेर कर कोई एथलीट लंदन ओलंपिक में 100 मीटर की फर्राटा रेस जीत लेता है तो हम तुरंत इसका पता नहीं लगा सकेंगे. कुछ सालों में शायद कोई टेस्ट यह बताने में कामयाब हो जाए कि जीन डोपिंग हुई है और तब हमें मेडल वापस लेने की आशंका के लिए तैयार रहना होगा."
जीन डोपिंग का सिद्धांत यह है कि एथलीट लैब में तैयार खास डीएनए को किसी वायरस की मदद से शरीर में डाल लेते हैं. इससे मांसपेशियों को तैयार करने वाले हारमोन उत्तेजित हो जाते हैं या फिर लाल रक्त कणों का बनना बढ़ जाता है. यही कण मांसपेशियों तक ऑक्सीजन पहुंचाते हैं. वायरस इस तरह काम करता है कि वह अपना डीएनए मानव कोशिका में डाल देता है, इससे डीएनए दोहरा हो जाता है.
अमेरिका में नशीली दवाओं की जांच के लिए पहला लैब बनाने में मदद करने वाल डॉक्टर डॉन कातलिन कहते हैं, "आप एक अच्छे एथलीट को लेकर उसके जीन में हेरफेर कर उसे मजबूत और बेहतर बना सकते हैं."
क्या सचमुच हो रही है जीन डोपिंग
इस सवाल के जवाब में कातलिन ने कहा, "मुझे यह नहीं पता लेकिन फिर भी कोई मुझे फोन करके यह नहीं बताएगा. हम चिंतित हैं क्योंकि यह सैद्धांतिक रुप से मुमकिन है. हम जानते हैं कि लोग इसके लिए कोशिश करेंगे और शायद कर रहे हैं."
2006 में जब जर्मन एथलेटिक्स कोच पर विंटर ओलंपिक से पहले प्रायोगिक रूप से जीन थेरेपी हासिल करने के आरोप लगे तो खेल जगत के माथे पर चिंता की लकीरें खिंच गईं. इसे एनीमिया का उपचार समझा गया जिसमें कृत्रिम वायरस एरिथ्रोपोइटिन (ईपीओ) के लिए जीन लेकर जाता. यह हारमोन शरीर को ज्यादा लाल रक्त कण बनाने के लिए कहता है. ईपीओ साइकिल चालकों और धावकों की पसंदीदा ड्रग है. वर्ल्ड एंटी डोपिंग एजेंसी (वाडा) ने कहा है कि जीन डोपिंग 2003 में उसके तैयार किए प्रतिबंधित दवाओं और तरीकों में शामिल है और उसने इसकी जांच के लिए लाखों डॉलर खर्च किए हैं. वाडा के निदेशक डेविड हॉमैन ने कहा, "हमने जीन थेरेपी के विशेषज्ञों को इसमें शामिल किया है और हम इस पर 2002 से ही काम कर रहे हैं."
उनका यह भी कहना है कि अब तक किसी भी एथलीट के इस तरीके का इस्तेमाल करने की पुष्टि नहीं हुई है. उन्होंने यह भी कहा कि पुष्टि नहीं होने का मतलब यह नहीं कि ऐसा हो भी नहीं रहा है.
मिया, कातलिन, और स्पोर्ट जिनोमिक्स के जानकार एलन विलयम्स का कहना है कि ओलंपिक के लिए उपयुक्त जीन डोपिंग टेस्ट मौजूद नहीं है. मांसपेशियों में सीधे डाले गए जीन को खून या पेशाब में तलाश कर पाना करीब करीब नामुमकिन है. विलियम्स ने बताया, "अगर आप किसी खिलाड़ी के मांसपेशियों की बायोप्सी कराएं तो आप इसका पता लगा सकते हैं लेकिन इसकी प्रक्रिया बहुत लंबी है साथ ही हर मांसपेशी की अलग से बायोप्सी करनी पड़ेगी." जाहिर है कि इस तकनीक को मंजूरी नहीं मिलेगी. मौजूदा तकनीक से इसका पता लगाना भूसे के ढेर से सूई खोजने जैसा है. हां वैज्ञानिक यह जरूर मान रहे हैं कि आने वाले कुछ सालो में इसके लिए जांच तैयार की जा सकेगी.
नए नियमों के मुताबिक खिलाड़ियों के खून और पेशाब के नमूने आठ सालों तक रखे जा सकेंगे इसका मतलब है कि आने वाले कुछ सालों में अगर टेस्ट तैयार हो गया तो उनकी जांच की जा सकेगी. लंदन ओलंपिक के दौरान खून और पेशाब के 6000 से ज्यादा नमूने लेकर रखे जाएंगे.
जानकारों ने यह चेतावनी भी दी है कि भले ही जीन थेरेपी कैंसर, अल्जाइमर और डायबिटिज जैसी बीमारियों के इलाज की जांच में उपयोग की जा रही है लेकिन यह जोखिम भरी है और अभी बिलकुल शुरुआती दौर में है. यह चेतावनी शातिर खिलाड़ियों पर क्या असर कर रही है, यह पता लगने में भी कई साल लगेंगे.
एनआर/एजेए (एएफपी)