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औरतों के लिए कानून के दरवाजे या तो बंद हैं या बहुत दूर

समीरात्मज मिश्र
७ मई २०२२

उत्तर प्रदेश में हाल ही हुईं दो घटनाओं ने राज्य में ना सिर्फ कानून व्यवस्था को आईना दिखाया बल्कि औरतों के लिए कानून के दरवाजे की दूरी का भी एहसास कराया. यह दूरी तय करने में कभी जान जाती है तो कभी बलात्कार होता है.

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बीते सालों में बलात्कार के कई मामले सामने आये जिनमें पुलिस ने लापरवाही दिखाई
बीते सालों में बलात्कार के कई मामले सामने आये जिनमें पुलिस ने लापरवाही दिखाईतस्वीर: Getty Images

बुंदेलखंड इलाके के ललितपुर जिले के थाने में नाबालिग लड़की से कथित बलात्कार मामले में मुख्य अभियुक्त थानेदार तिलकधारी को गिरफ्तार करके जेल भले ही भेज दिया गया हो लेकिन महिला सुरक्षा की तमाम कोशिशों और दावों पर ऐसी घटनाएं पानी फेर देती हैं.

एफआईआर के लिए संघर्ष

राष्ट्रीय महिला आयोग के मुताबिक साल 2021 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के करीब 31 हजार मामले दर्ज किए गए. साल 2014 के बाद इतने ज्‍यादा मामले कभी देखने को नहीं मिले. इन 31000 मामलों में से करीब 50 फीसदी मामले अकेले उत्‍तर प्रदेश में दर्ज किए गए.

दर्ज मामलों की संख्या तो इतनी है लेकिन महिलाओं के खिलाफ होने वाले ज्यादातर मामले तो दर्ज हुए बिना ही रह जाते हैं. बलात्कार जैसे गंभीर मामलों में पीड़ित महिलाओं को एफआईआर के लिए संघर्ष करना पड़ता है. ये स्थितियां तब हैं जब यूपी में हर थाने में महिला कर्मचारियों की तैनाती अनिवार्य कर दी गई है और महिलाओं के लिए अलग थाने तक बनाए गए हैं.

यह हाल तब है जब, ‘जीरो एफआईआर' के तहत किसी भी पुलिस स्टेशन में जाकर अपनी शिकायत दर्ज कराने की व्यवस्था है. सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार कोई भी शिकायतकर्ता चाहे वह पुरुष हो या महिला, किसी भी पुलिस स्टेशन पर शिकायत दर्ज करा सकते हैं, और पुलिस स्टेशन इसके लिए मना नहीं कर सकता. पुलिस को अपराध की सूचना देने में देरी ना हो इसलिए जरूरी है कि जल्द-से-जल्द शिकायत दर्ज कराई जाए. इन सबके बावजूद महिलाओं को या तो शिकायत के लिए भटकना पड़ता है या फिर कई बार पुलिस थानों में भी उनका शोषण और उत्पीड़न होता है.

पुलिस थाने में शोषण

ललितपुर जिले के पाली थाने में नाबालिग लड़की सामूहिक बलात्कार की शिकायत दर्ज कराने आई थी. उसकी एफआईआर लिखने की बजाय थानेदार ने बयान देने के लिए अगले दिन बुलाया और इस दौरान उन्होंने कथित तौर पर लड़की के साथ रेप किया. थाने में बलात्कार की खबर से हड़कंप मच गया. झांसी परिक्षेत्र के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक यानी एडीजी जोन भानु भास्कर ने पाली थाने के सभी 29 पुलिसकर्मियों को लाइन हाजिर कर दिया जिनमें छह सब इंस्पेक्टर भी शामिल हैं. तिलकधारी सरोज समेत छह लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करके सभी को गिरफ्तार कर लिया गया है. इनमें लड़की की महिला रिश्तेदार भी शामिल है.

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इस घटना के दो दिन बाद ही यानी गुरुवार को ललितपुर जिले के ही महरौनी थाने के पुलिसकर्मियों ने एक महिला पर चोरी का आरोप लगाकर बंधक बनाया और फिर उसे नंगा करके रात भर पीटा. यही नहीं, बाद में पुलिस वालों ने पीड़ित महिला पर एफआईआर दर्ज कर दी. इस काम में थाने के एक कर्मचारी की पत्नी और महिला सब इंस्पेक्टर भी शामिल रहीं.

आपराधिक दंड संहिता में साल 2013 का संशोधन पुलिस द्वारा बलात्कार की शिकायत दर्ज करने में विफलता को अपराध करार देता है, बावजूद इसके बलात्कार का केस दर्ज कराने में महिलाओं को ना सिर्फ नाकों चने चबाने पड़ते हैं बल्कि कई बार पुलिस के शोषण का भी शिकार होना पड़ता है. दूसरी ओर एफआईआर दर्ज करने में विफल रहने पर पुलिस वालों पर शायद ही कार्रवाई होती हो. हां, जब केस बड़ा हो जाता है, राजनीतिक रूप लेने लगता है तो निलंबन की कार्रवाई जरूर होती है.

पुरुषवादी सोच जिम्मेदार

जानकारों का कहना है कि महिला अपराधों को रोकने के लिए कानून की कमी नहीं है लेकिन उनके अनुपालन में लापरवाही से लेकर भेदभाव जैसी स्थितियां भी जिम्मेदार हैं जिसकी वजह से पीड़ित महिलाओं को भटकना पड़ता है.

लखनऊ में महिला अधिकारों और महिला सुरक्षा पर काम करने वाली समाज सेविका वंदना मिश्रा कहती हैं, "इन सबके पीछे खराब सोच है. महिला को आज भी भोग्या ही माना जाता है. खासकर अगर वह दलित और गरीब है. वह शिकायत करने पहुंचती है तो पहले तो अभियुक्तों को लगता है कि उसकी मजाल कैसे हुई शिकायत करने की और फिर थाने पर भी उसके साथ गलत बर्ताव के लिए वही पुरुषवादी सोच जिम्मेदारी रहती है. महिला पर आरोप लगा देना भी बड़ा आसान होता है." उनका कहना है कि जब तक सोच नहीं बदलेगी, तब तक चाहे जितने कानून बन जाएं, महिलाओं का शोषण ऐसे ही होगा.

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"कानून का डर नहीं"

डीडब्ल्यू से बातचीत में वंदना मिश्रा कहती हैं कि सरकार की ओर से भी ऐसे मामलों में जो कड़ाई होनी चाहिए, वह नहीं होती है. वो कहती हैं, "निर्भया कांड में जब कड़ाई की गई तो उसका परिणाम भी आया था. सबसे बड़ी बात है कि लोगों का कानून का डर नहीं होता तभी ऐसी स्थितियां आती हैं. जब सरकारें इस तरह की हैं कि लोगों की पहचान करके सजा दी जा रही है तो ऐसे में न्याय की उम्मीद कितनी की जा सकती है. बलात्कारी को बचाने के लिए लोग थाना घेर रहे हैं, जुलूस निकाले जा रहे हैं. ऐसा पहले भी होता था कि आरोपों को मिथ्या कहकर, फर्जी कहकर खारिज करने की कोशिश होती थी लेकिन ऐसे अभियुक्तों के समर्थन में लोग सड़कों पर कभी उतरे हों, यह तो नहीं देखा गया.”

वंदना मिश्रा इन सबके लिए महिला संगठनों की निष्क्रियता को भी जिम्मेदार बताती हैं. हालांकि वो कहती हैं कि यह निष्क्रियता कोरोना के कारण और बढ़ी है लेकिन पिछले कुछ समय से यही देखने में आया है कि सड़कों पर उतरने से भी कोई बहुत असर नहीं पड़ रहा.

जीरो एफआईआर से भी फर्क नहीं पड़ा

साल 2012 में दिल्ली में एक युवती के साथ हुए सामूहिक बलात्कार जिसे ‘निर्भया कांड' कहा जाता है, के बाद भारतीय पुलिस की एफआईआर करने में देरी को लेकर आलोचना की गई थी. निर्भया कांड के बाद आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार लाने के लिए गठित जस्टिस वर्मा कमेटी ने साल 2013 में दी अपनी रिपोर्ट में ‘जीरो एफआईआर' की अवधारणा का सुझाव दिया था और कहा था कि यह पुलिस का प्रारंभिक कर्तव्य है कि यदि कोई शिकायतकर्ता आए तो एफआईआर तुरंत दर्ज हो.

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इस पर कानून बन जाने के बाद भी स्थिति में बहुत अंतर नहीं आया है. रेप जैसे गंभीर मामलों में भी पीड़ितों को एफआईआर दर्ज कराने के लिए दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती हैं. साल 2019 में हैदराबाद में एक पशु चिकित्सक के परिवार को पुलिस एफआईआर के लिए अधिकार क्षेत्र का हवाला देते हुए इधर-उधर दौड़ाती रही. कुछ ही दिन बाद महिला की जली हुई लाश सड़क के किनारे मिली. पिछले साल यूपी के हाथरस में गैंगरेप पीड़ित लड़की की हत्या के मामले में भी एफआईआर दर्ज करने में पुलिस ने हीला-हवाली की थी.

यूपी में रिटायर्ड डीजीपी और लेखक डॉक्टर वीएन राय कहते हैं, "एफआईआर में किसी भी तरह की देरी पुलिस की लापरवाही और गैरजिम्मेदाराना रवैया तो है ही, विवेचना में देरी की वजह से पीड़त को न्याय दिलाने में भी मुश्किलें आती हैं. सरकार को इस बारे में सख्त होना पड़ेगा कि एफआईआर दर्ज करने में आनाकानी करने वाले पुलिसकर्मियों को कड़ी सजा दी जाए.”