कब संभव होगा भारत की नदियों से ट्रांसपोर्ट
२३ अगस्त २०२१नदियों को प्रकृति का हाईवे भी कहा जा सकता है और भारत सौभाग्यशाली है कि उसे ऐसे बहुत से प्राकृतिक हाईवे मिले हुए हैं. यहां गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी दुनिया की बड़ी नदियां बहती हैं. भारतीय नदी मार्गों के जरिए यातायात की जब-जब बात होती है तो कई विशेषज्ञ कहते हैं कि यह रेल और सड़कों के नेटवर्क की तरह ही उपयोगी है. इतना ही नहीं इन दोनों के मुकाबले जलमार्गों के जरिए माल ढुलाई सस्ती भी है. सरकारी आंकड़ों भी यही दिखाते हैं. उनके मुताबिक एक टन माल की रेल से ढुलाई का खर्च 1.36 रुपये और सड़क के रास्ते ढुलाई का खर्च 2.50 रुपये है लेकिन जलमार्गों के रास्ते यह खर्च मात्र 1.06 रुपये होगा.
भारत के पास नदियों के जरिए यातायात का करीब 14,500 किमी लंबा रास्ता है. अगर इन दोनों आंकड़ों को साथ रखें तो न सिर्फ व्यापार बल्कि साधारण यात्रा के लिए भी यह एक बहुत काम का विकल्प बन सकता है. यह सब सुनने में भले ही बहुत अच्छा लगे लेकिन भारत ने इस दिशा में अब तक कुछ खास प्रगति नहीं की है. इस पर पिछले कई सालों से यहां बातें हो रही हैं लेकिन अब भी यह एक दूर का सपना ही लगता है. हालांकि अब भारत सरकार दावा कर रही है कि वह इस सपने को सच्चाई बनाने में लगी है.
पुराना कानून था यातायात में बाधा
हाल ही में भारत सरकार ने इन नदियों के प्रयोग से जुड़े एक सदी से ज्यादा पुराने एक कानून में बदलाव किए हैं. इस कानून का नाम था, 'इनलैंड वेसल्स एक्ट, 1917.' यूं तो लागू होने के बाद से इसमें कई बार बदलाव किया जा चुका था लेकिन यह भारतीय नदियों के जरिए यातायात का रास्ता नहीं खोल पाया था. कई जानकार मानते हैं कि इसकी वजह कानून के पुराने और अपर्याप्त नियम थे. जैसे, इस कानून के तहत नदियों से जुड़े फैसले राज्य या स्थानीय सरकारें लेती थीं और बहुत से जहाजों को सिर्फ राज्य की सीमा के भीतर ही यात्रा की अनुमति थी. इतना ही नहीं परमिट और सर्टिफिकेट जारी करने का अधिकार भी स्थानीय सरकारों को ही था. और हर राज्य के नियम अलग होने के चलते राज्यों के बीच में जहाजों का निर्बाध आवागमन एक असंभव सी बात थी.
इनलैंड वेसल्स बिल, 2021 के पास होने से इस तस्वीर में अंतत: बदलाव की संभावना है. इस कानून से नदियों के जरिए जहाजों के परिवहन की पूरी प्रक्रिया एक केंद्रीय नियामक संस्था के अंतर्गत आ जाएगी. इसमें जहाजों का भी विस्तृत वर्गीकरण किया गया है. लोगों को ले जाने वाली नाव को उस बजड़े से अलग रखा गया है जो इमारती लकड़ी या गेहूं की ढुलाई करेगा. इसमें जहाजों, नावों, नौकाओं, कंटेनर जहाजों और फेरी को अलग-अलग कैटेगरी में रखा गया है. इनका वर्गीकरण किए जाने के बाद इनकी गतिविधि और पहचान को एक केंद्रीय डेटाबेस के जरिए संचालित किया जाना है. इस कानून के तहत दुर्घटना, चोट या मौत और कुछ अन्य मामलों में जहाजों की देनदारी से जुड़े नियम भी बनाए गए हैं. और अलग-अलग सुरक्षा कानून भी बनाए गए हैं.
लाखों नौकरियां पैदा होने की उम्मीद
इन बदलावों से जुड़ी सबसे अच्छी बात यह है कि नदियों से यातायात की सभी गतिविधियों को एक कानून के तहत ले आया गया है. अगर इन गतिविधियों में बढ़ोतरी होती है तो बंदरगाहों, जहाजों के क्रू, शिपयार्ड आदि पर नई नौकरियों का सृजन होगा. देश के भीतर मौजूद छोटी और मध्यम आकार की कंपनियां भी संभवत: अपने माल को बड़े शहरों में भेजने के लिए इसका इस्तेमाल कर सकेंगी और अपना माल ढुलाई का खर्च कम कर सकेंगी.
इसके अलावा यह कानून प्रदूषण को कम करने पर भी जोर देता है. जहाज अब जलमार्गों को और प्रदूषित नहीं कर सकेंगे. केंद्र सरकार ने जहाज मालिकों को सीवेज और कचरे के निस्तारण के लिए उपयुक्त तरीके अपनाने की सलाह दी है. इन जलमार्गों पर चलने वाले जहाजों के ऐसा कुछ भी नदियों में डालने पर रोक लगा दी गई है, जो जलमार्गों को प्रदूषित कर सके. मालिकों को या तो इसके विकल्प खोजने होंगे या फिर ज्यादा ईको-फ्रेंडली उपायों की ओर बढ़ना होगा.
आसान नहीं हैं बदलाव
बिल में घरेलू बंदरगाहों और भारत की 7500 किमी लंबी सागरसीमा को विकसित करने की बात भी कही गई है. इससे सरकार को 1 करोड़ रोजगार पैदा होने की उम्मीद है. जिसमें से अगले 10 सालों में ही सीधे 40 लाख लोगों को रोजगार मिलना है. हालांकि कई जानकार ऐसे दावों से सहमत नहीं हैं. वे यह भी मानते हैं कि दावे से नहीं कहा जा सकता कि ये बदलाव देश के अंदर मौजूद जलमार्गों के जरिए यातायात को बढ़ा पाएंगे.
असम सरकार के इनलैंड वॉटर ट्रांसपोर्ट डिपार्टमेंट में इंजीनियर रहे टीसी महंत के मुताबिक, "भले ही सुनने में यह बहुत अच्छा लगे लेकिन आसान नहीं है. देश की सबसे बड़ी नदियों में से एक ब्रह्मपुत्र में भी पानी की कमी रहती है. अलग-अलग मौसम में इसके जलस्तर में 9 मीटर तक का भारी उतार-चढ़ाव आ जाता है. नदी का बहाव भी तेज है और यह जमीन को काटकर तेजी से अपना रास्ता बदल लेती है. इसलिए नदी का एक रास्ता नहीं बन पाता. ऐसे में नदी पर औद्योगिक इस्तेमाल के लिए निर्माण कार्य करना असंभव जैसा है."
नदियों और स्थानीयों दोनों को नुकसान
भारत में यातायात और यात्रा के लिए नदियों का प्रयोग कई सदियों से होता आ रहा है. मछुआरों, छोटे व्यापारियों और किसानों के लिए यह बहुत लाभदायक भी रहा है. लेकिन भारत सरकार जो करना चाहती है, यह गैर-जरूरी और अदूरदर्शी है. भारत में जल के बारे में काम करने वाले मंथन अध्ययन केंद्र के संस्थापक श्रीपद धर्माधिकारी कहते हैं, "भारत सरकार 2-3 हजार टन के भारी जहाजों को इन नदियों से गुजारना चाह रही है लेकिन एक स्पष्ट बात जो ऐसे किसी कदम से पहले ध्यान रखनी चाहिए, वह यह है कि जलमार्ग के लिए जल और मार्ग दोनों की ही जरूरत होगी. भारत में यह संभव ही नहीं है क्योंकि यहां मानसून के बाद ज्यादातर नदियों में इतना पानी ही नहीं होता कि उनमें से जहाज गुजर सकें."
ऐसी स्थिति में विशेषज्ञ नदियों को 90 मीटर की चौड़ाई में 3-4 मीटर और गहरा खोदने के बारे में कहते हैं लेकिन उसे पानी से भी भरना होगा. और ऐसा करने के लिए पानी कहां से आएगा. इसके अलावा मैदानी इलाकों की नदियों के लिए सिल्ट एक समस्या है, वह फिर से इस गहराई को पाट देगी. यानी करोड़ों खर्च कर कोई फायदा नहीं हो सकेगा लेकिन इससे मछली पालन करने वालों और नदी के पर्यावास को बहुत ज्यादा नुकसान होगा.
छोटे नाविकों और मछुआरों पर ध्यान दे सरकार
कई जानकारों को एक बड़ा डर यह है भी कि जिस स्तर के बड़े जहाज चलाने की सरकार की योजना है, उसका पूरा फायदा कॉरपोरेट उठायेंगे और इससे स्थानीयों को कोई फायदा नहीं होगा. वे कहते हैं, ये जहाज सिर्फ स्थानीय मछुआरों के जाल तोड़ने, मछली पकड़ने में बाधा पहुंचाने का काम करेंगे. वहीं अगर इस योजना को सफल बनाने के लिए नदियों को जोड़ने के बारे में सोचा गया तो नुकसान और बढ़ जाएगा. टीसी महंत कहते हैं, "हमारे पास नदियों के पिछले दशक के पैटर्न का डेटा तक नहीं है, उसके बिना ऐसा कोई कदम असंभव है."
श्रीपद धर्माधिकारी तो नदियों को जोड़ने की योजना को हास्यास्पद बताते हैं. उनके मुताबिक, "ऐसा कोई कदम उन नदियों में भी पानी को खत्म कर देगा, जिनमें फिलहाल जलमार्गों के जरिए यातायात संभव है." वे यह भी कहते हैं, "सरकार के तमाम दावों के बावजूद यह फायदे का सौदा भी नहीं है. सरकार जिस तरह से यातायात का किराया जोड़ रही है, वह गलत है. सड़क मार्ग से सामान ले जाने पर सीधे एक गंतव्य से दूसरे गंतव्य तक पहुंच जाता है. उसे रेलवे तक ले जाने का खर्च भी ज्यादा नहीं होता लेकिन जलमार्ग तक माल ले जाने में ज्यादा खर्च आएगा. जिससे डोर टू डोर सामान ले जाने का खर्च सस्ता नहीं रह जाएगा."
जानकारों का ये डर झूठा भी नहीं लगता. साल 2016 में नेशनल वॉटरवेज एक्ट पास हुआ था और देश में 111 वॉटरवेज होने की बात सरकार की ओर से कही गई थी लेकिन बाद में खुद ही सरकार ने माना कि इनमें से सिर्फ 23 ही इस्तेमाल में लाए जा सकते हैं. बाकी में से कुछ को टूरिज्म आदि के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है लेकिन इनका औद्योगिक माल की ढुलाई में प्रयोग नहीं हो पा रहा है. इसलिए ज्यादातर जानकार चाहते हैं कि भारत सरकार भारी जहाज चलाने की जिद छोड़कर छोटे नाव वालों और मछुआरों को ध्यान में रखकर योजना बनाए.
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