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समाज

कलात्मक अभिव्यक्ति के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट

मारिया जॉन सांचेज
१७ नवम्बर २०१७

संजय लीला भंसाली की नयी फिल्म पद्मावती का विरोध हो रहा है. ऐसे विरोध दूसरे मामलों में भी होते रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला कलात्मक अभिव्यक्ति की स्वसंत्रता पर हस्तक्षेप की सीमाएं बांधता है.

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Indien Bollywood Film Padmavati
तस्वीर: Reuters/A.N. Chinnappa

यूं तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हर समय खतरा मंडराता रहता है लेकिन पिछले वर्षों में स्थिति कुछ ज्यादा ही गंभीर हो गई है. हर प्रकार के कट्टरपंथी साहित्य, चित्रकला, सिनेमा और वैचारिक विमर्श पर अंकुश लगाना चाहते हैं और इसके लिए वे धमकी, हिंसा और अन्य किसी भी किस्म के गैरकानूनी तरीके अपनाने में भी गुरेज नहीं करते. वे सरकारें भी अक्सर इनके दबाव के आगे झुक जाती हैं जो इनसे सहमत नहीं होतीं. और, जो सहमत होती हैं, वे तो इनकी बात मानती ही हैं.

दो ताजातरीन उदाहरणों से स्थिति की नजाकत समझ में आ सकती है. गोवा में 20 नवंबर से अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव शुरू होने वाला है लेकिन उसके शुरू होने से पहले ही अंतरराष्ट्रीय निर्णायक मंडल के तीन सदस्य इस्तीफा दे चुके हैं क्योंकि निर्णायक मंडल द्वारा चुनी गई तीन फिल्मों के प्रदर्शन पर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने रोक लगा दी है क्योंकि हिंदुत्ववादी तत्व उन्हें अश्लील बता कर उनका विरोध कर रहे थे. उधर जाने-माने फिल्म निदेशक संजय लीला भंसाली की 1 दिसंबर को रिलीज होने जा रही फिल्म ‘पद्मावती' को लेकर देश भर में बवाल मचा हुआ है.

फिल्म की नायिका दीपिका पादुकोण की सुरक्षा बढ़ाई जा रही है क्योंकि उनकी नाक काटने से लेकर उनके खिलाफ अन्य किस्म की हिंसा करने की खुलेआम धमकियां दी जा रही हैं. अनेक राजपूत संगठन और हिन्दू जागरण मंच के साथ-साथ स्वयं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ फिल्म के खिलाफ प्रचार में लगे हैं क्योंकि उनका आरोप है कि सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के स्वप्न में उसके और पद्मावती के बीच प्रेमदृश्य दिखा कर भंसाली ने राजपूती आन-बान का अपमान किया है. यह बात दीगर है कि फिल्म सेंसर बोर्ड के सदस्यों के अलावा अभी तक यह फिल्म किसी ने भी नहीं देखी है और बोर्ड ने इसे प्रदर्शन के लिए प्रमाणपत्र दे दिया है.

ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का एक दूसरे मामले की सुनवाई के दौरान यह फैसला आना कि कलात्मक अभिव्यक्ति को संरक्षण देना उसका कर्तव्य है और इस क्षेत्र में साधारणतः अदालतों को दखल नहीं देना चाहिए, बेहद राहत देने वाला है. सुप्रीम कोर्ट का काम संविधान का संरक्षण और उसकी व्याख्या है और आम नागरिक अपने अधिकारों की हिफाजत के लिए उसी की ओर उम्मीद भरी नजरों से देखता है. सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि यदि किसी फिल्म को सेंसर बोर्ड ने प्रदर्शन के लिए प्रमाणपत्र दे दिया है तो फिर अदालतों को उसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए. संस्थाओं की स्वायत्तता और उनकी गरिमा की रक्षा करने की दिशा में यह टिप्पणी अत्यंत महत्वपूर्ण है.

Deepika Padukone
तस्वीर: Getty Images/AFP

पिछले कई दशकों के दौरान इतिहास, साहित्य और कलाओं पर लगातार इस आधार पर हमले होते रहे हैं कि उनसे इस या उस जाति अथवा धार्मिक समुदाय की भावनाएं आहत होती हैं. जिस तरह आज राजपूत संगठन संजय लीला भंसाली की फिल्म के खिलाफ उठ खड़े हुए हैं, जबकि यह सिद्ध हो चुका है कि पद्मिनी/पद्मावती सोलहवीं सदी के सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित पूर्णतः काल्पनिक पात्र है. उसी तरह कुछ वर्ष पहले प्रसिद्ध इतिहासकार सतीश चन्द्र की मध्यकालीन इतिहास पर पुस्तक के खिलाफ जाट समुदाय के लोग आंदोलन करने लगे थे. पिछले दिनों राजस्थान की सरकार ने पाठ्यपुस्तकों में बदलाव करके हल्दीघाटी की लड़ाई में अकबर के बजाय राणा प्रताप को विजयी दिखाये जाने का आदेश जारी किया. कुछ वर्षों पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी के पाठ्यक्रम से एके रामानुजन का रामायण की विविधतापूर्ण परंपरा पर लिखा प्रसिद्ध निबंध निकाल दिया गया था क्योंकि हिंदुत्ववादी तत्व उसे हिन्दू भावनाओं को आहत करने वाला बता रहे थे.

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद यह रुझान समाप्त हो जाएगा, ऐसी आशा किसी को भी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय और शक्तिशाली तत्व एकाएक निष्क्रिय नहीं हो सकते. लेकिन इस आदेश से उनके उत्साह और उन्माद पर कुछ अंकुश अवश्य लगेगा और वे जरा-जरा सी बात पर अदालत का दरवाजा खटखटाने और अपने विरोधियों को परेशान करने से पहले कुछ क्षण रुक कर जरूर सोचेंगे.