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कांग्रेस के युवराज ने स्वीकारा नतीजा

६ मार्च २०१२

झोपड़ियों में सोना काम न आया, गरीबों के घर की रोटी काम न आई. भट्टा परसौल से लेकर रायबरेली तक की धूल फांकना काम न आया. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस हार गई. और राहुल गांधी ने हार की जिम्मेदारी लेकर सबकी बोलती बंद कर दी.

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तस्वीर: Reuters

नतीजे आने भी न दिए थे कि कांग्रेस के कुछ नेताओं ने चमचागिरी करते हुए राहुल गांधी का बचाव शुरू कर दिया था. दो दिन पहले ही कांग्रेस नेता कहने लगे कि अगर पार्टी उत्तर प्रदेश में अच्छा नहीं करती, तो इसकी जिम्मेदारी राहुल की नहीं होगी. मंगलवार को नतीजे आने लगे तो कांग्रेस की नैया डूबने लगी. पर नेता कूद कूद कर राहुल की सफाई देने लगे. यूपी कांग्रेस की अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी ने कह दिया कि सिर्फ चुनाव प्रचार से क्या होता है, अगर उसे वोटों में नहीं बदला जा सका, तो इसके जिम्मेदार राहुल गांधी थोड़े ही होते हैं.

कांग्रेस को यूपी में नई दिशा देने के लिए राहुल गांधी ने इतनी मेहनत की कि दाढ़ी बनाने की भी फुर्सत नहीं मिल रही थी. गरीबों के घर जाना, उनकी बात सुनना, उनके साथ खाना खाना. भले ही विपक्षी पार्टियों को यह सब दिखावा लगता हो लेकिन गांधी नेहरू परिवार के किसी शख्स के लिए ऐसा दिखावा करना भी आसान नहीं. इसमें भी बड़ी मेहनत लगती है. लेकिन हार के बाद भी राहुल ने बहादुरी दिखाई और सामने आकर हार की जिम्मेदारी ली, "उत्तर प्रदेश में अच्छे नतीजे नहीं आए और मैं हार की जिम्मेदारी लेता हूं."

Indien Kongresspartei Rahul Gandhi und Sonia Gandhi
तस्वीर: picture-alliance/dpa

लिटमस टेस्ट में फेल

राहुल गांधी को भारत का अगला प्रधानमंत्री और मनमोहन सिंह का वारिस समझा जा रहा था. पार्टी के अंदर तो इस बात का कोई विरोध था ही नहीं, बाहर की जनता भी धीरे धीरे इस बात को स्वीकार करने लगी थी. लेकिन यूपी का लिटमस टेस्ट राहुल फेल कर गए. राजनीतिक समीक्षक अमूल्य गांधी का कहना है, "यह कांग्रेस के लिए महासंकट है, राहुल गांधी के लिए और बड़ा संकट है और गांधी परिवार के लिए भी संकट है."

राहुल गांधी उस परिवार से आते हैं, जिसने आजादी के बाद से भारत को तीन प्रधानमंत्री दिए हैं और उन्हें चौथे के रूप में देखा जा रहा है. लिहाजा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सबकी नजरें राहुल पर लगी थीं. आम तौर पर दिल्ली के एयर कंडीशन कमरों से राजनीति करने वाले नेता को इस बार सड़कों पर आम लोगों के साथ देखा जा रहा था. दुनिया को भी जरा बदलाव नजर आ रहा था. जाहिर है कि अपना नंबर बढ़ाने के लिए दूसरे दर्जे के नेता नेहरू गांधी परिवार वालों की बड़ाई करते फिरते हैं. लेकिन हार के बाद राहुल ने कम से कम दिलेरी दिखाई और माना कि कांग्रेस को बहुत मेहनत की जरूरत है, "दरअसल उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की बुनियाद बहुत कमजोर है. हालांकि हमने 2007 से तो बेहतर प्रदर्शन किया है. अब उसे आगे बढ़ाना होगा."

स्टाइल नहीं बदलेगा

राहुल ने यह भी साफ कर दिया है कि उनका स्टाइल नहीं बदलेगा, "मैंने वादा किया था कि मैं गरीबों के साथ दिखूंगा. मेरा यह काम चलता रहेगा. मैं कोशिश करूंगा कि कांग्रेस को फिर से खड़ा कर सकूं. मैं इस राह में जीत और हार दोनों स्वीकार करने को तैयार हूं."

Indien Wahlkampf mit Rahul Gandhi in Uttar Pradesh
तस्वीर: dapd

मजेदार बात यह है कि कांग्रेस की अगली पीढ़ी के राहुल गांधी जिस राज्य में फेल हो गए हैं, उसी राज्य में समाजवादी पार्टी की अगली पीढ़ी ने अखिलेश यादव के तौर पर उभरता हुआ नेता देखा है. ओक्जस हेज फंड के सुरजीत भल्ला का कहना है, "दो युवा नेता, दोनों राजनीतिक परिवार के और दोनों अपने भविष्य के लिए दांव लड़ा रहे हैं. अखिलेश ने एक तरफ खुद को मॉर्डन नेता के रूप में पेश किया है, जो युवाओं के साथ कंप्यूटर और टेक्नोलॉजी की बात कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ 127 साल की विरासत ढो रहे राहुल यूपी के वोटरों को गरीब, फटेहाल और अशिक्षित बता रहे हैं. वोटरों के लिए इन दोनों के बीच चुनना बहुत मुश्किल काम नहीं रहा होगा."

हार की मार

41 साल के राहुल गांधी पर जिम्मेदारी तो उत्तर प्रदेश की ज्यादा थी लेकिन कांग्रेस के महासचिव होने के नाते दूसरे राज्यों के चुनाव नतीजों का भी उन पर फर्क पड़ना चाहिए. पंजाब और गोवा जैसे राज्यों में कांग्रेस की नाकामी भी उन्हें किनारे खड़ा करेंगी. हालांकि बीजेपी मानती है कि राहुल ने मेहनत तो की है. बीजेपी प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद का कहना है, "राहुल गांधी ने अच्छा काम किया लेकिन उन्हें इसका फायदा नहीं मिला. उन्हें भारतीय लोकतंत्र को और समझना होगा."

भ्रष्टाचार और महंगाई के बीच कांग्रेस की अगली लड़ाई 2014 के चुनाव हैं. पार्टी निश्चित तौर पर राहुल को तब तक प्रधानमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट कर देती लेकिन यूपी के झटके से उबरने में अभी थोड़ा वक्त लगेगा. फिलहाल राहुल प्रतीक्षा सूची में ही रहेंगे.

रिपोर्टः एजेंसियां/अनवर जे अशरफ

संपादनः महेश झा

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