कोरोना के कारण डब्बावालों के काम पर भी लगा विराम
१६ जून २०२०मुंबई के डब्बावाले आज किसी भी पहचान के मोहताज नहीं है. पिछले 125 सालों से हर रोज दफ्तर-दफ्तर खाने पहुंचाने वाले इन डब्बावालों के लिए कोरोना काल हर दिन मुश्किल बढ़ा रहा है. पिछले तीन महीनों से बंद पड़ी डब्बासेवा कब बहाल होगी किसी को नहीं पता. ऐसे में पांच हजार से भी अधिक डब्बावालों के लिए रोजमर्रा के खर्चे पूरे करना अब एक चुनौती बनता जा रहा है.
समय के पाबंद इन डब्बावालों की जिंदगी में मुंबई की लोकल ट्रेन किसी लाइफलाइन से कम नहीं हैं. इसलिए जब तक लोकल ट्रेनें पूरी तरह बहाल नहीं होती इनकी जिंदगी भी पटरी पर आती नहीं दिखती. हालांकि दो महीने के बाद लोकल ट्रेन सेवा को फिर से चालू किया गया है लेकिन फिलहाल वह सिर्फ राज्य सरकार द्वारा तय आवश्यक कर्मचारियों के लिए होगी.
कोरोना ही नहीं निसर्ग भी
डब्बावालों की संस्था नूतन मुंबई टिफिन बाक्स सप्लाई चैरिटी ट्रस्ट के अध्यक्ष उल्हास हुके बताते हैं कि काम धंधा बंद होने के बाद बड़ी संख्या में डब्बावाले अपने गांव को लौट गए हैं. मुंबई के अधिकतर डब्बावाले पश्चिमी महाराष्ट्र से आते हैं. यह महाराष्ट्र का वही इलाका है जिसने पिछले दिनों निसर्ग तूफान का सामना किया था.
उल्हास हुके ने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा, "कोराना के चलते काम बंद हुआ तो हम गांव आ गए लेकिन यहां आए निसर्ग तूफान ने जीवन बेहाल कर दिया है. हमारे गांव में ना तो बिजली है और ना पीने का पानी. छोटे-छोटे गांवों में सुधार कार्य धीरे-धीरे हो रहा है.” निसर्ग ने पश्चिमी महाराष्ट्र के पठारी मावल क्षेत्र को बहुत अधिक प्रभावित किया है. इसी क्षेत्र में अलीबाग, रायगढ़ जैसे जिले आते हैं.
दोतरफा आर्थिक मार
गैर सरकारी संस्था मुंबई डब्बावाला एसोसिएशन के अध्यक्ष सुभाष तालेकर बिना किसी लाग लपेट के कहते हैं कि मुंबई के डब्बावालों का जीवन राम भरोसे चल रहा है. उन्होंने बताया, "आम दिनों में जहां एक डब्बावाला महीने भर में 15-16 हजार रुपये की कमाई कर लेता था वहीं आज हजार रुपये की भी कमाई नहीं है."
पैसों पर ये मार भी एकतरफा नहीं है. अधिकतर डब्बावालों की पत्नियां घरों में खाना बनाने या साफ-सफाई का काम करती है. ऐसे में जब हाउसिंग सोसाइटियों ने कोरोना की वजह से बाहर वालों की एंट्री बंद की तो औरतों का काम भी उनसे छिन गया.
बना गया इतिहास
डब्बावालों के 125 साल के इतिहास में रुकावट का यह सबसे लंबा दौर है. इस कारोबार में अपने परिवार की तीसरी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व कर रहे तालेकर बताते हैं, "साल 1974 में भारतीय रेल के कर्मचारियों ने हड़ताल की थी. 20 दिन चली उस हड़ताल में डब्बासेवा भी बंद हो गई थी. सवा सौ साल के इतिहास में एक वही वक्त था जब डब्बावालों का काम बंद हुआ था लेकिन महीनों तक काम ठप्प पड़ा रहे ऐसा कभी नहीं हुआ.”
हालांकि डब्बावालों की समस्याएं सिर्फ यही तक सीमित नहीं है. ट्रेन चल भी जाएं तो कोरोना का खतरा तो बना ही रहेगा. वे खाने के डब्बे मुंबई की खचाखच भरी लोकल ट्रेन में ले जाते हैं. और उस भीड़ में वायरस से संक्रमित होने का खतरा और ज्यादा होता है. ट्रेन चलने भी लगे तो उन्हें कोरोना से बचने का कोई रास्ता निकालना होगा.
भविष्य की चुनौतियां
मुंबई में दफ्तर और कार्यालय कम स्टाफ के साथ चरणबद्ध तरीके से खुलने लगे हैं. लेकिन दफ्तरों के खुलने का मतलब ये नहीं है कि डब्बा वालों का काम फिर से पहले की ही तरह शुरू हो जाएगा. दफ्तर परिसरों में बाहरी लोगों की एंट्री हो सकेगी या नहीं इस पर संशय बरकरार है.
दफ्तर में कम स्टाफ का मतलब है डब्बावालों के पास कम काम. ऐसे में अगर "वर्क फ्रॉम होम” कल्चर को बढ़ावा मिलता है तो इन डब्बावालों की कमाई पर संकट के बादल निश्चित रूप से और गहरा जाएंगे. हालांकि इस मुश्किल वक्त में कुछ संस्थाएं डब्बा वालों की मदद के लिए आगे आई हैं और कई परिवारों की राशन वगैरह से मदद भी की जा रही हैं. लेकिन उल्हास हुके जैसे डब्बावालों को मुंबई के अपने घर के भाड़े से लेकर निसर्ग तूफान में बर्बाद हुई गांव की छत और दीवारें दिन-रात परेशान करती हैं.
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