क्या पाकिस्तान की वजह से भारत को एससीओ छोड़ देना चाहिए?
१९ सितम्बर २०२०इसकी वजह थे भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल. वे एससीओ की बैठक के दौरान अचानक बीच में ही उठकर चले गए. आधिकारिक तौर पर इसकी वजह यह बताई जा रही है कि मेजबान रूस के मना करने के बावजूद इस ऑनलाइन बैठक में पाकिस्तानी प्रतिनिधि ने पाकिस्तान का वह नक्शा दिखाया जिसमें पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के अलावा भारत के जम्मू, कश्मीर, और लद्दाख के साथ पाकिस्तान से सटे गुजरात के कुछ क्षेत्रों को भी पाकिस्तान के हिस्से के तौर पर दिखाया गया था. भारत के प्रतिनिधि के तौर पर डोवाल को यह नागवार गुजरा और उन्होंने बैठक से वाक-आउट कर दिया.
इस वर्चुअल बैठक के बाद रणनैतिक विशेषज्ञों में यह बहस छिड़ गयी कि भारत को ना सिर्फ एससीओ की बैठकों में भाग लेना छोड़ देना चाहिए बल्कि उसे संगठन से अपने संबंध भी खत्म कर लेने चाहिए. विश्लेषक मानते हैं कि अमेरिका से बढ़ती नजदीकियों के बीच भारत का रूस, मध्य एशिया के देशों पर अपनी ऊर्जा लगाना बहुत फायदे का सौदा नहीं रहा है. वैसे भी एससीओ पर चीन का दबदबा है और पाकिस्तान के रहते भारत की समस्याएं जस की तस रह जाएंगी क्योंकि यह दोनों देश भारत को एससीओ की सदस्यता से कोई फायदा नहीं होने देंगे. लिहाजा भारत को अपने संसाधन और कूटनीतिक क्षमता का इस्तेमाल कहीं और करना चाहिए. वैसे भी एससीओ की सदस्यता को अमेरिकी सरकार में भी कुछ लोग सशंकित होकर ही देखते हैं.
भारत ने इससे पहले 15 से 26 सितंबर तक चलने वाली कावकाज 2020 (काकेशश-2020) सामरिक कमांड-पोस्ट युद्धाभ्यास में भी भाग लेने से मना कर दिया था. हालांकि आधिकारिक तौर पर इसकी वजह कोविड को बताया गया लेकिन चीन और पाकिस्तान से बढ़ा तनाव इसकी एक अहम वजह थी. यह कहना मुश्किल है कि कूटनीतिक स्तर पर इससे कोई फायदा हुआ या नहीं. शायद सैन्य रणनीति के हिसाब से कोई खास वजह रही हो जिसके बारे में उच्च सैन्य अधिकारियों और भारतीय मंत्रिमंडल को पता हो. अस्त्र्खान क्षेत्र, कैस्पियन और काले सागर में हो रहे थल और नौसेना सैन्य अभ्यासों में रूस और मध्य एशिया के एससीओ सदस्यों के अलावा चीन, बेलारूस, ईरान, पाकिस्तान, म्यांमार, आर्मीनिया और टर्की जैसे देश इसमें शामिल हुए हैं.
वैसे तो कूटनीति और रणनीति के मामलों में छोटे मोटे नफा–नुकसान नहीं देखे जाते और बड़े लक्ष्यों पर नजर रखी जाती है लेकिन इस मुद्दे पर दोस्तों की जरूरतों को भी समझना चाहिए. भारत की एससीओ सदस्यता के पीछे रूस का आग्रह और सहयोग दोनों बड़े कारक रहे हैं. भारत की विदेश नीति को चीन और पाकिस्तान के लेंस से नहीं देखा जाना चाहिए.
जहां तक पाकिस्तान का सवाल है तो बरसों पहले जब भारत और पाकिस्तान की एससीओ सदस्यता को लेकर बहस हो रही थी उस समय इस संगठन के कई सदस्य देशों का मानना था कि अगर भारत और पाकिस्तान को संगठन में जगह दी गयी तो यह दोनों देश अपनी द्विपक्षीय समस्याएं यहां भी लेकर आ जाएंगे. आज ऐसा ही हुआ लगता है. सार्क बैठकों के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ था- भारत और पाकिस्तान की आपसी खींचतान में आज सार्क कहीं का नहीं रहा है.
हालांकि एससीओ की स्थिति सार्क से बिल्कुल अलग है. एक तो वह भारत पर निर्भर नहीं है, दूसरे एससीओ के सदस्य देशों के बीच अलग तरह के समीकरण हैं और भारत और पाकिस्तान की स्थिति भी वहां अलग है. पाकिस्तान की इस बचकाना हरकत और भारत के भावुकता भरे वाकआउट से इन दोनों देशों के दूरगामी कूटनीतिक लक्ष्यों पर सवालिया निशान लगेंगे.
भारत के लिये एससीओ की महत्ता रूस और मध्य एशिया के देशों से निर्बाध संपर्क बने रहने और और इस क्षेत्र से अपनी कनेक्टिविटी बढ़ाने में रही है. भारत ना सिर्फ सदियों पहले के सिल्क रोड का महत्वपूर्ण हिस्सा था बल्कि अभी भी इंटरनेशनल नार्थ साउथ कॉरिडोर मेगा प्रोजेक्ट का भी हिस्सा है. सामरिक रूप से महत्वपूर्ण चाबहार बंदरगाह में भी भारत की उपस्थिति और दिलचस्पी दोनों है. एससीओ के सदस्यों, खास तौर से भारत और रूस के लिए आतंकवाद से हर स्तर पर लड़ना एक महत्वपूर्ण प्राथमिकता रही है. इस लिहाज से एससीओ का साथ भारत के लिए महत्वपूर्ण रहा है. साथ ही साथ मध्य एशिया से ऊर्जा आयात, तापी (तुर्कमेनिस्तान-अफगानिस्तान-पाकिस्तान-भारत) गैस पाइपलाइन, कजाखस्तान से यूरेनियम आयात आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण कारण रहे हैं. इन महत्वपूर्ण लक्ष्यों की वजह से 2012 में भारत ने "कनेक्ट सेंट्रल एशिया” नीति को भी शुरू किया था.
भारत के लिए एससीओ की सदस्यता के मूल में पाकिस्तान तो कभी था ही नहीं. उसके लिए पाकिस्तान और चीन की वजह से मध्य एशिया के देशों से दूर होना समझदारी का निर्णय नहीं होता. एससीओ में शामिल होने के पीछे भारत के रूस के साथ घनिष्ठ संबंधों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. आज जब भारत एससीओ का सक्रिय सदस्य बन गया है तो बजाय पाकिस्तान को तरजीह देने उसे अपने बड़े लक्ष्यों पर ध्यान देना चाहिए.
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)
__________________________
हमसे जुड़ें: Facebook | Twitter | YouTube | GooglePlay | AppStore