क्या मीट पर टैक्स से जलवायु परिवर्तन रुकेगा
१७ अक्टूबर २०१८वैज्ञानिक लगातार चेतावनी दे रहे हैं कि मीट उद्योग से जलवायु पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है और मीट की खपत को कम करने की जरूरत है. लेकिन बहुत से लोगों का कहना है कि उनके लिए मीट छोड़ना बहुत ही मुश्किल है. सवाल यह है कि क्या उनके अंदर मीट छोड़ने की इच्छा है? कई देशों में मीट बहुत सस्ता होने की वजह से भी लोग शायद इसे छोड़ने के बारे में नहीं सोचते.
सुपरमार्केट में जिस सस्ते दाम पर मीट मिल रहा है, वह उस पर आने वाली असल लागत से बहुत कम है. जानकार कहते हैं कि मीट के उत्पादन के चलते पर्यावरण पर पड़ने वाले उसके असर पर ध्यान दें तो पता चलेगा कि मीट कितना मंहगा पड़ रहा है.
मीट पर अतिरिक्त टैक्स
ऐसे में, अगर सरकारें मीट पर टैक्स लगा दें तो क्या लोग खान पान की अपनी आदतें बदलने को तैयार होंगे? कई देशों में तंबाकू और शराब जैसे उत्पादों पर 'सिन टैक्स' लगाया जाता है. मीट और डेयरी उद्योग से पर्यावरण को जीवाश्म ईंधन उद्योग से भी ज्यादा नुकसान हो रहा है. इंस्टीट्यूट फॉर एग्रीकल्चर एंड ट्रेड पॉलिसी और गैर सरकारी संगठन ग्रेन के विश्लेषण के मुताबिक 2050 तक जितने ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन की अनुमति होगी, उसमें 80 फीसदी के लिए मवेशी ही जिम्मेदार होंगे.
पश्चिमी दुनिया में जिस कदर मीट की खपत है, उसे देखते हुए मीट पर टैक्स लगाना आसान नहीं होगा. मिसाल के तौर पर आठ करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले जर्मनी में एक व्यक्ति साल भर में औसतन 60 किलो मीट खाता है. फ्रेंड्स ऑफ अर्थ जर्मनी नाम की संस्था में कृषि सलाहकार काटरीन वेंस कहती हैं कि सामान्यतः मीट की खपत में कमी आ रही है, लेकिन कुछ लोगों के बीच इसकी खपत बढ़ भी रही है.
सस्ता और ज्यादा उत्पादन
काटरीन वेंस कहती हैं, "आबादी का एक हिस्सा है, जिसमें चंद प्रतिशत लोग हैं जहां पर मीट खाने का बहुत ज्यादा चलन है." इस ग्रुप में ऐसे पुरुष शामिल हैं जो बहुत शारीरिक श्रम करते हैं और उन्हें लगता है कि मीट खाना उनके लिए बहुत जरूरी है. वेंस बताती हैं कि यूरोपीय संघ के देशों में मीट बहुत सस्ता है, जिसकी वजह है दक्षिण अमेरिका से सस्ते दामों में आयात होने वाले पशु. इसके अलावा किसान यूनियनों को लंबे समय से ज्यादा उत्पादन करने को कहा जाता रहा है, खास कर पोर्क का उत्पादन. इसकी वजह से भी मीट के दाम घटे.
फार्म एनिमल इंवेस्टमेंट रिस्क एंड रिटर्न नाम का एक निवेशक नेटवर्क मांस की खपत घटाने के लिए उस पर टैक्स लगाने के हक में है. लेकिन यह काम इतना आसान नहीं है. जर्मनी की आउग्सबुर्ग यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता टोबियास गोगलर कहते हैं कि मीट पर टैक्स लगाना राजनीतिक रूप से मुमकिन नहीं है. उनके मुताबिक इस तरह का टैक्स लगाना उचित है लेकिन इसके लिए जरूरी राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है और समाज भी इसे स्वीकार नहीं करेगा. इसके बजाय गोगलर पूरी उत्पादन श्रृंखला में सुधार पर जोर देते हैं जिसके तहत पशुओं का उत्पादन महंगा हो जाए. वह उम्मीद करते हैं कि इससे मांस के उत्पादन में कमी आएगी.
विचारधारा का मुद्दा
वेंस भी मानती हैं कि मीट पर टैक्स लगाना सबसे अच्छा तरीका नहीं है. जर्मनी में मीट और दुग्ध उत्पादों के दाम बहुत कम हैं और बहुत से वेगन लोग इसे खत्म करने की मांग भी करते हैं. वेंस कहती हैं कि लोगों को खान पान की अपनी आदतों में बदलाव करना चाहिए और मीट की जगह खाने में साग सब्जियों को ज्यादा शामिल करना चाहिए.
जर्मनी की खाद्य और कृषि मंत्री यूलिया क्लॉक्नर कहती हैं कि मीट पर बिक्री कर को मौजूदा 7 प्रतिशत से बढ़ाकर 19 प्रतिशत करने का सरकार का कोई इरादा नहीं है. उन्होंने टात्स नाम के दैनिक अखबार से कहा, "मीट अच्छी कमाई का जरिया नहीं बनना चाहिए." उनके मंत्रालय का कहना है कि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए कई कदम उठाए जा रहे हैं जिनमें खाने की बर्बादी को कम करना भी शामिल है.
विरोध में मीट कंपनियां
जब मीट कंपनियों से पूछा गया, कि क्या उनके उत्पादों पर ज्यादा टैक्स लगाना चाहिए, इस पर उन्होंने या तो जवाब ही नहीं दिया या फिर इसका विरोध किया. जर्मनी की सबसे बड़ी मीट कंपनी वेस्टफ्लाइश ने कहा, "इस तरह कीमतों में कृत्रिम बढ़ोत्तरी ठीक नहीं होगी." कंपनी के प्रवक्ता ने डीडब्ल्यू को बताया, "इससे ना तो ग्राहकों को फायदा होगा, ना पर्यावरण को और ना ही पशुओं को. दूसरे देशों का अनुभव बताता है कि उत्पादों पर टैक्स बढ़ने से कीमतें ज्यादा होने के बावजूद उपभोक्ताओं के खान पान पर उसका खास असर नहीं हुआ."
वेंस कहती हैं कि मीट की खपत घटाने के लिए लोगों को जागरूक करना होगा ताकि वे तय कर सकें कि उन्हें कितना मीट खरीदना है. मीट के उत्पादों पर स्पष्ट लेबलिंग के अलावा कैंटीन में साग सब्जियों से बने व्यंजनों के विकल्प बढा़ए जाने चाहिए.
रिपोर्ट: मेलानी हाल