क्या है बिहार की पूर्ण शराबबंदी का सच
१ जनवरी २०२१शराब अरबी भाषा का शब्द है जो शर अर्थात बुरा और आब मतलब पानी के मिलने से बना है, जिसका अर्थ होता है बुरा पानी. नाम के अनुरुप इसके असर से बिहार भी अछूता नहीं रहा. 2015 में नीतीश कुमार भारतीय जनता पार्टी से अलग होकर राष्ट्रीय जनता दल के साथ महागठबंधन की छतरी के तले बिहार विधानसभा का चुनाव लड़े. उस वक्त पुरुषों की शराब की लत से परेशान महिलाओं ने पारिवारिक कलह, घरेलू हिंसा, शोषण व गरीबी का हवाला देते हुए राज्य में शराबबंदी की मांग की थी.
नीतीश कुमार ने वादा किया कि अगर वे फिर सत्ता में आए तो शराबबंदी लागू कर देंगे. आधी आबादी ने उन पर भरोसा किया और महिलाओं का मतदान प्रतिशत 59.92 से ज्यादा हो गया. कई क्षेत्रों में 70 फीसदी से अधिक महिलाओं ने मतदान किया. नीतीश विजयी हुए और सत्ता में लौटते ही राज्य में शराबबंदी की घोषणा कर दी.
वैसे नीतीश कुमार के निर्णय के कारण ही राज्य में पंचायत स्तर तक शराब की दुकानें खुल गई थी. यही वजह रही कि 2005 से 2015 के बीच बिहार में शराब दुकानों की संख्या दोगुनी हो गर्इं. शराबबंदी से पहले बिहार में शराब की करीब छह हजार दुकानें थीं और सरकार को इससे करीब डेढ़ हजार करोड़ रुपये का राजस्व आता था. 1 अप्रैल, 2016 को बिहार देश का ऐसा पांचवां राज्य बन गया जहां शराब के सेवन और जमा करने पर प्रतिबंध लग गई.
प्रतिबंध की अवज्ञा पर सख्त सजा के प्रावधान किए गए. यही वजह रही कि बीते चार साल में करीब दो लाख लोगों को शराबबंदी के उल्लंघन पर जेल हुई जिनमें करीब चार सौ से अधिक लोगों को सजा मिली. स्थिति अब ऐसी हो गई है कोई भी दिन ऐसा नहीं बीतता जब राज्य के किसी ना किसी कोने से शराब की बरामदगी और शराबबंदी कानून तोड़ने की खबरें सुर्खियां ना बनती हों.
बिहार के शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में शराब की खपत महाराष्ट्र से अधिक
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस), 2020 की रिपोर्ट के अनुसार ड्राई स्टेट होने के बावजूद बिहार में महाराष्ट्र से ज्यादा लोग शराब पी रहे हैं. आंकड़े बताते हैं कि बिहार में 15.5 प्रतिशत पुरुष शराब का सेवन करते है. महाराष्ट्र में शराब प्रतिबंधित नहीं है लेकिन शराब पीने वाले पुरुषों की तादाद 13.9 फीसदी ही है. अगर शहर और गांव के परिप्रेक्ष्य में देखें तो बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में 15.8 प्रतिशत और शहरी इलाकों में 14 फीसदी लोग शराब पीते हैं.
इसी तरह महाराष्ट्र के शहरी क्षेत्र में 13 प्रतिशत और ग्रामीण इलाकों में 14.7 फीसदी आबादी शराब का सेवन करती है. महिलाओं के मामले में बिहार के शहरी इलाके की 0.5 प्रतिशत व ग्रामीण क्षेत्रों की 0.4 फीसदी महिलाएं शराब पीती हैं. महाराष्ट्र के लिए यह आंकड़ा शहरी इलाके में 0.3 प्रतिशत और ग्रामीणों में 0.5 फीसदी है. शराबबंदी के बावजूद बिहार में शराब उपलब्ध है. यह बात दीगर है कि लोगों को दो या तीन गुनी कीमत चुकानी पड़ती है चाहे शराब देशी हो या विदेशी.
शराब के सिंडीकेट को तोड़ने में सरकार असफल
कानून लागू होने के बाद कुछ दिनों बाद तक तो सब ठीक रहा. सख्त सजा के प्रावधान के कारण ऐसा लगा कि वाकई लोगों ने शराब से तौबा कर ली. इसका सबसे ज्यादा फायदा निचले तबके के लोगों को मिला. परिवारों में खुशियां लौटीं. हालांकि समय के साथ धीरे-धीरे शराब शहर क्या, दूरदराज के इलाकों तक पहुंचने लगी. आज आम धारणा यह है कि यह हर जगह सुलभ है. हां, इतना जरूर है कि कीमत दो या तीन गुनी हो गई है.
बिहार में झारखंड, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश एवं नेपाल से शराब की बड़ी खेप तस्करी कर लाई जाती है. हालात यह है कि पुलिस और मद्य निषेध विभाग की टीम यहां हर घंटे औसतन 1341 लीटर शराब जब्त कर रही है, मिनट के हिसाब से आंकड़ा 22 लीटर प्रति मिनट आता है.
आंकड़े बताते हैं कि राज्य में इस साल करीब एक करोड़ लीटर से अधिक अवैध देशी और विदेशी शराब पकड़ी जा चुकी है. मुजफ्फरपुर, वैशाली, गोपालगंज, पटना, पूर्वी चपारण, रोहतास और सारण वाले इलाकों में शराब की अधिकतम बरामदगी हुई है. जाहिर है, इतना बड़ा खेल संगठित होकर ही किया जा रहा है. हालांकि ऐसा नहीं है कि बिहार सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है. चेकपोस्ट की संख्या दोगुनी की जा रही है तथा धंधेबाजों को पकडऩे के लिए शराब के पुराने और बड़े 87 डीलरों को रडार पर रखा गया है.
शराब की आवक पर नजर रखने के लिए चेकपोस्ट की लाइव स्ट्रीमिंग की जा रही है. विभागीय अधिकारी मुख्यालय स्थित कंट्रोल रूम से ही 24 घंटे निगरानी को अंजाम दे रहे हैं. देखा जा रहा है कि चेकपोस्ट से होकर गुजरने वाले वाहनों की यथोचित जांच की जा रही है या नहीं.
पत्रकार अमित रंजन कहते हैं, भारी मात्रा में शराब की बरामदगी से साबित होता है कि ‘‘शराब व्यापारियों के सिंडिकेट को सरकार नहीं तोड़ पा रही है. आज तक किसी बड़ी मछली को नहीं पकड़ा जा सका है. पकड़े गए अधिकतर लोग या तो शराब पीने वाले हैं फिर इसे लाने के लिए कैरियर का काम करने वाले हैं.''
चूहे पी गए शराब
इस अवैध कारोबार के फलने फूलने में पुलिस भी पीछे नहीं है. इसका पता तब चला जब साल 2018 में कैमूर में जब्त कर रखे गए 11 हजार बोतल शराब के बारे में पुलिस ने अदालत को बताया कि चूहों ने शराब की बोतलें खराब कर दीं. एक अन्य घटना में पुलिस ने नौ हजार लीटर शराब खत्म होने का दोष चूहों के मत्थे मढ़ दिया.
उस समय विपक्षी दलों ने यह कहकर खूब हंगामा किया कि अब तो चूहे भी शराब पीने लगे हैं. मुजफ्फरपुर का तो एक पूरा थाना ही शराब की बिक्री के आरोप में निलंबित कर दिया गया. पुलिसकर्मियों द्वारा शराब की बिक्री करने से संबंधित वीडियो भी आए दिन खूब वायरल हुए. शराबबंदी कानून की आड़ में पुलिस पर लोगों को उत्पीडि़त करने के आरोप भी खूब लगे. यह बात दीगर है कि आला अधिकारी समेत पूरा महकमा इस बात की शपथ लेता है कि शराब के सेवन या उससे संबंधित किसी भी तरह की गतिविधि में शामिल नहीं होगा और कानून को लागू करने के लिए विधि सम्मत कार्रवाई करेगा.
एएन सिन्हा इंस्टीच्यूट ऑफ सोशल साइंस के प्रोफेसर डी.एन.दिवाकर कहते हैं, ‘‘इस कानून को गलत तरीके से लागू किया गया. अब तक शराब के कैरियर्स ही पकड़े गए, सप्लायर्स पुलिस की पकड़ से बाहर हैं. जिस तरह से शराब की बरामदगी हो रही है उससे तो यही लगता है कि शराबबंदी असफल रही है.'' वहीं अधिवक्ता एम एन तिवारी का कहना है, ‘‘इसे लागू करने का असली मकसद तो समाज सुधार का था. इस कानून के लागू होने के बाद से घरेलू हिंसा कम हुई है, दुर्घटनाओं में भी कमी आई है. निचले तबके के परिवार का जीवन सुखमय हुआ है. पैसा घरों में जाने लगा है. सरकार को इसे और सख्ती से लागू करना चाहिए, ताकि जो लोग इसके अवैध कारोबार में संलिप्त हैं उन्हे कड़ी से कड़ी सजा मिल सके.''
शराब का अवैध कारोबार करने वालों ने समानांतर अर्थव्यवस्था कायम कर ली है. बेगूसराय की एक शराब दुकान में काम करने वाले संजय की बात से इसे समझा जा सकता है. वह कहते हैं, ‘‘अब मेरी आर्थिक स्थिति ठीक हो गई है. मैं एक हफ्ते में किसी भी ब्रांड की 50 बोतलें बेचता हूं और एक बोतल पर 300 रुपये की कमाई करता हूं. इस तरह महीने में 60000 रुपये की आमदनी हो जाती है. दुकान पर मिलने वाले वेतन से यह काफी ज्यादा है. सरकार ने शराबबंदी कर दी लेकिन यह नहीं सोचा कि बेरोजगार होने वाले लोग क्या कमाएंगे-खाएंगे. इसलिए रिस्क लेना पड़ता है.''
शराबबंदी खत्म करने की मांग
पिछले चुनाव में शराबबंदी खत्म करने की मांग तो नहीं उठी. हां, इस कानून की समीक्षा करने की बात महागठबंधन में शामिल कांग्रेस ने जरूर कही. पार्टी का कहना था कि महागठबंधन की सरकार बनी तो इस कानून की समीक्षा की जाएगी. जानकार बताते हैं कि नीतीश कुमार को कांग्रेस के इस स्टैंड का फायदा ही मिला. महिलाओं को लगा कि शराबबंदी कहीं खत्म ना हो जाए. इसलिए अपने पारिवारिक अमन-चैन की खातिर उन्होंने एकबार नीतीश कुमार के पक्ष में जमकर मतदान किया. वैसे तेजस्वी यादव भी बराबर कहते रहे हैं कि बिहार में शराब की होम डिलीवरी हो रही है. इस धंधे में ना केवल माफिया बल्कि पुलिस-प्रशासन तथा कुछ राजनेता भी शामिल हैं. पैसे के लोभ में नए उम्र के लडक़े-लड़कियां पढ़ाई-लिखाई छोडक़र शराब की होम डिलीवरी में लग गए हैं.
राज्य में नई सरकार बनने के बाद कांग्रेस ने एक बार फिर इस मामले को उठाया है. भागलपुर के विधायक व कांग्रेस विधायक दल के नेता अजीत शर्मा ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को पत्र लिखकर इस कानून को खत्म करने की मांग की है. अपने पत्र में उन्होंने कहा है कि आज दो-तीन गुना कीमत पर लोग शराब खरीद कर पी रहे हैं. महंगी देशी-विदेशी शराब खरीदने के कारण गरीब परिवार भी आर्थिक बोझ से दब गया है. सरकार को चार से पांच हजार करोड़ के राजस्व का नुकसान हो रहा है, वहीं इससे दोगुनी राशि शराब माफिया और उससे जुड़े लोगों की जेब में जा रही है. इस कानून की हकीकत अब कुछ और ही है इसलिए इसकी समीक्षा कर शराब की कीमत दो-तीन गुना बढ़ा कर शराबबंदी खत्म की जाए. अजीत शर्मा ने इससे हासिल होने वाले राजस्व से कल-कारखाने खोलने की बात कही है ताकि प्रदेश में रोजगार के मौके बनाए जासकें.
शराब बनाने वाली कंपनियों के संगठन कंफेडरेशन ऑफ इंडियन अल्कोहलिक बेवरेजेज कंपनीज (सीआइएबीसी) ने भी सरकार को पत्र लिखकर राज्य में नियंत्रित तरीके से शराब की बिक्री की व्यवस्था करने की मांग की है. उधर राजद नेता शक्ति यादव कहते हैं, ‘‘बिहार में शराबबंदी कानून बिल्कुल फेल है. भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने जो रिपोर्ट जारी की है उसके अनुसार बिहार में महाराष्ट्र से ज्यादा शराब पी जाती है. इसका मतलब है कि यह कानून ढोंग है. इसके जरिए सत्ता संरक्षित भ्रष्टाचारियों ने सामानांतर अर्थव्यवस्था खड़ी की है.बिहार में आ रही शराब की बड़ी खेप पकड़े जाने पर कितने एसपी-डीएसपी पर कार्रवाई की गई.''
इसके जवाब में जदयू के प्रवक्ता राजीव रंजन की कहना हैं, ‘‘शराब के तथाकथित आंकड़ों को लेकर जो लोग शराबबंदी पर सवाल उठा रहे उन्हें दूसरे पहलू को भी देखना चाहिए. आज महिलाओं के चेहरे पर मुस्कान है, सड़क दुर्घटनाओं में कमी आई है, शराब से होने वाली बीमारियों में भी गिरावट आई है. क्या कानून को कुछ खामियों के चलते ही बदल दिया जाए. जहां कमियां हैं, उन्हें दुरुस्त करेंगे. शराबबंदी बिहार की सच्चाई है.''
यह तो सच है कि किसी कानून को चंद खामियों के चलते बदला नहीं जा सकता. तात्कालिक परिणामों के बदले उसके दूरगामी प्रभावों को देखना ज्यादा हितकारी होता है. हां, यह अवश्य ही देखा जाना चाहिए कि वे कौन हैं जो कानून को ठेंगा दिखा रहे हैं. शायद इसलिए बिहार के पूर्व पुलिस महानिदेशक अभयानंद कहते हैं, ‘‘शराबबंदी की नाकामी में पैसे की बड़ी भूमिका है. चंद लोग बहुत अमीर बन गए हैं. जो लोग पकड़े जा रहे, वे बहुत छोटे लोग हैं. असली धंधेबाज या फिर उन्हें मदद करने वाले ना तो पकड़ में आ रहे और ना ही उन पर किसी की नजर है.'' जाहिर है, जब तक असली गुनाहगार पकड़े नहीं जाएंगे तबतक राज्य में शराबबंदी कानून की धज्जियां उड़ती ही रहेंगीं.
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