क्या है भारत-नेपाल सीमा-विवाद के पीछे
२८ मई २०२०पिछले कुछ दिनों में भारत और नेपाल के रिश्तों पर काफी चर्चा हुई है. चर्चा का केंद्रीय बिंदु रहा दोनों देशों के बीच का पुराना सीमा विवाद और इस विवाद में नेपाल की स्थिति को लेकर वहां की सरकार का अचानक आक्रामक हो जाना. यहां तक कि नेपाल सरकार ने विवादित इलाकों को अपनी सीमा में दिखाने वाले नए नक्शे आधिकारिक रूप से जारी करने के लिए देश की संसद में एक विधेयक लाने की भी तैयारी कर ली थी. लेकिन आखिरकार संवैधानिक संशोधन वाले इस विधेयक को रोक दिया गया है.
कई समीक्षक इसे इस प्रकरण का अंत मान रहे हैं और कह रहे हैं कि विधेयक को रोक कर नेपाल सरकार ने एक कदम पीछे ले लिया है. उनका कहना है कि सीमा-विवाद तो वहीं है जहां पहले से था, पर पहले से ही चल रहे उसे सुलझाने के प्रयासों को हाल की आक्रामकता से छुटकारा मिल गया है. कई जानकार नेपाल के रवैये में आई इस आक्रामकता को मोदी सरकार की नेपाल नीति की विफलता मान रहे हैं. लेकिन नेपाल की अंदरूनी राजनीति को समझने वाले कुछ समीक्षकों का मानना है कि इस पूरे प्रकरण के पीछे नेपाल की राजनीति के अंदरूनी दाव-पेंच की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता.
क्या है मूल-विवाद
भारत के उत्तराखंड और नेपाल के सुदूरपश्चिम प्रदेश प्रांतों के बीच दोनों देशों की सीमा पर एक विवादित इलाका है, जिसे कालापानी इलाका कहते हैं. ये इलाका कालापानी नदी की घाटी में फैला हुआ है. भारतीय श्रद्धालु इसी घाटी से हो कर कैलाश-मानसरोवर की तीर्थ यात्रा पर जाते हैं. इस इलाके में सबसे ऊंचाई पर एक दर्रा है जिसे लिपुलेख दर्रा कहते हैं. वहां से उत्तर-पश्चिम की तरफ कुछ दूर एक और दर्रा है जिसे लिंपियाधुरा दर्रा कहते हैं.
लिपुलेख और कालापानी घाटी से ले कर लिंपियाधुरा तक पूरा का पूरा विवादित इलाका है. भारत इसे अपने अधीन होने का दावा करता है और नेपाल अपने. 1998 से दोनों देशों के बीच इस विवाद को सुलझाने के लिए बातचीत चल रही है. ऐतिहासिक रूप से दोनों देशों के रिश्ते दोस्ताना हैं इसलिए ये विवाद कभी भड़कता नहीं है और इसके प्रबंधन की प्रक्रिया चलती रहती है.
लेकिन 20 मई को मामला अचानक गंभीर हो गया जब नेपाल ने अपना एक नया नक्शा जारी कर दिया जिसमें पहली बार विवादित इलाके को नेपाल का हिस्सा दिखाया गया. भारत के विरोध के बावजूद नेपाल इस नक्शे पर अड़ा रहा और नेपाल सरकार ने घोषणा कर दी कि वो देश के राज्य-चिन्ह पर नक्शे के चित्र को बदलने के लिए संसद में संवैधानिक संशोधन विधेयक लाएगी.
आखिरकार मंगलवार को हालात ने नया मोड़ लिया और नेपाल सरकार यह विधेयक संसद में नहीं लाई. जानकार मान रहे हैं कि ये दोनों देशों के रिश्तों के लिए एक अच्छा संकेत है और ये भी मान रहे हैं कि सीमा विवाद में जो आक्रामकता आ गई थी वो कुछ समय के लिए टल गई है.
क्या था प्रकरण के पीछे
कुछ लोगों का मानना है कि नेपाल के इस आक्रामक रूख के पीछे चीन का हाथ था और ऐसा करने के लिए बीजिंग ने काठमांडू को उकसाया होगा. यहां तक कि भारत के सेना प्रमुख जनरल एम एम नारवाने ने भी कह दिया था कि लिपुलेख दर्रे के पास भारत द्वारा सड़क बनाने का विरोध नेपाल "किसी और देश के निर्देशों" पर कर रहा है. लेकिन कई जानकारों का मानना है कि ये पूरा प्रकरण नेपाल की अंदरूनी राजनीति का नतीजा था.
नेपाल में इस समय एनसीपी पार्टी की सरकार है, जिसका नेतृत्व प्रधानमंत्री के पी ओली करते हैं, लेकिन ओली और उनकी पार्टी अपने दम पर सत्ता में नहीं हैं. एनसीपी का गठन ओली की पुरानी पार्टी सीपीन (यूएमएल) के एक और पुरानी कम्युनिस्ट पार्टी सीपीएन (एमसी) के विलय से हुआ था. पूर्ववर्ती सीपीएन (एमसी) पार्टी के नेता पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड भी नेपाल के प्रधानमंत्री रह चुके हैं और सत्ता के लिए ओली के साथ उनकी खींच-तान चलती रहती है. दोनों की पार्टियों के विलय के पहले 2015 में और भी पार्टियों के सहयोग से इनकी मिली-जुली सरकार बनी थी, और ओली पहली बार प्रधानमंत्री बने थे.
लेकिन ये सरकार ज्यादा दिन चली नहीं. प्रचंड ने जुलाई 2016 में अपना समर्थन वापस ले लिया और ओली की सरकार गिर गई. 2017 में फिर चुनाव हुए और एक बार फिर सत्ता में आने के लिए इन्हीं दोनों पार्टियों ने ना सिर्फ हाथ मिला लिया बल्कि एक दूसरे में विलय कर दिया. भारत में कई राजनेता, पूर्व राजनयिक, पत्रकार और एक्टिविस्ट नेपाली राजनीति की अच्छी समझ रखते हैं और नेपाल के नेताओं से संपर्क में भी रहते हैं. दिल्ली में रहने वाले ऐसे ही एक जानकार ने उनका नाम ना जाहिर करने की शर्त पर बताया कि प्रधानमंत्री ओली की सरकार अच्छे हाल में नहीं है.
सूत्र ने बताया कि प्रचंड ने कुछ सप्ताह पहले एक बार फिर सरकार गिराने की कोशिश की थी, लेकिन वो सफल नहीं हो पाए. इसके बाद ओली ने अपनी स्थित मजबूत करने के लिए भारत को निशाना बनाने का ये तरीका निकाला जिस से देश में कट्टर राष्ट्रवाद का माहौल बने और उसके नेता के रूप में उनकी स्थिति मजबूत हो जाए. सूत्र का मानना है कि संभव है कि भारत सरकार ने पिछले दो दिनों में एक पूर्व विदेश सचिव को तालाबंदी के बीच विशेष जहाज से काठमांडू दूत के रूप में भेजा हो और उसी का नतीजा है कि नेपाल सरकार ने एक कदम पीछे ले लिया.
__________________________
हमसे जुड़ें: Facebook | Twitter | YouTube | GooglePlay | AppStore