क्यों उठती है पाकिस्तान क्रिकेटरों पर अंगुली
६ सितम्बर २०१०चोर वही होता है, जो पकड़ा जाता है. यासिर हमीद भी कहते हैं. दुनिया भी कहती है. सब सोचते हैं कि जब सट्टेबाजी होती है तो फिक्सिंग भी होती होगी. सटोरिये पैसा पीटने के लिए एक दो खिलाड़ी को पटाने की कोशिश करते ही होंगे. लेकिन खेल भावना और ईमानदारी का जज्बा कब पैसों की गर्मी से पिघल जाए कोई नहीं जानता.
मैच फिक्सिंग जरा मुश्किल हो गया है क्योंकि टीम के बड़े हिस्से को साधना पड़ता है. स्पॉट फिक्सिंग आसान है. बस किसी एक खिलाड़ी को साथ लेकर किसी गेंद या ओवर का फैसला मैच से पहले ही कर लो. इस ओवर की गेंदों पर जो सट्टा लगेगा, उसमें जीत तय होगी.
पर पाकिस्तान ही क्यों. इसके पीछे भी सबसे बड़ी वजह पैसा ही है. पाकिस्तान के खिलाड़ियों में प्रतिभा कूट कूट कर भरी है लेकिन उन्हें वह रुतबा नहीं मिल पाता, जो भारत या ऑस्ट्रेलिया के स्टार खिलाड़ियों को मिलता है. भारतीय कप्तान 200 करोड़ रुपये का विज्ञापन करार करते हैं, तो ऑस्ट्रेलियाई सितारे भारत में इश्तहार करते नजर आते हैं.
पाकिस्तान के क्रिकेटरों को ज्यादा प्रतिभा होने के बाद भी ऐसे मौके कम मिलते हैं. शायद एक आलीशान बंगला, एक चमचमाती फरारी कार या नगीने जड़ी एक खूबसूरत कलाई घड़ी कभी कभी एक गेंद पर भारी पड़ सकती है.
ऊपर से राजनीति. पाकिस्तान से किस खिलाड़ी का पत्ता कब कट जाए कोई नहीं जानता. और एक बार बाहर होने के बाद दोबारा मौका मिलेगा या नहीं, यह कोई नहीं बता सकता. भारत का बीसीसीआई अगर दुनिया का सबसे अमीर बोर्ड है, तो जिम्मेदार भी. उसकी जवाबदेही कई स्तर पर तय होती है.
मीडिया किसी भी मुद्दे पर चमड़ी उतार लेने की हद तक जाने को तैयार रहता है. क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया भी अपनी सख्ती और कड़े कायदे कानूनों के लिए जाना जाता है. ऑस्ट्रेलिया का मीडिया आलोचनात्मक रिपोर्टिंग के लिए खूब जाना जाता है.
पीसीबी के साथ ऐसी बात नहीं. अफसर कमजोर हैं और राजनीति हावी. चुनाव जैसी बात नहीं. पाकिस्तान का राष्ट्रपति तय कर देता है कि बोर्ड की अध्यक्षता किसको करनी है. खुद राष्ट्रपति बोर्ड का प्रमुख संरक्षक पैट्रन इन चीफ होता है. यानी क्रिकेट पर राजनीति का सीधा दखल. जिस ढंग से पाकिस्तान की सियासत चलती है, उससे यह कतई नहीं लगता कि क्रिकेट बोर्ड कभी अपने आप में मजबूत हो सकता है. बोर्ड कमजोर है तो उसके फैसले भी कमजोर होंगे. सिफारिशी मामले भी बढ़ेंगे.
कमजोर बोर्ड के कमजोर फैसले कई बार परेशान करते हैं. ऑस्ट्रेलिया दौरे में पाकिस्तानी खिलाड़ियों ने गड़बड़ की थी. मैच ही नहीं हारे बल्कि अनुशासनहीनता भी सामने आई. पीसीबी ने कदम उठाए. सात खिलाड़ियों पर कार्रवाई की और तीन महीने के अंदर छह वापस आ गए. कोई कप्तान बना दिया गया तो किसी का संन्यास तुड़वा कर उसे टीम में बुला लिया गया.
शायद जिम्मेदारी से भागना भी एक वजह है कि फिक्सिंग का फसाना बार बार पाकिस्तान की तरफ ही अंगुली उठा देता है. भारत में भी फिक्सिंग हो चुकी है. लेकिन आरोपियों के लिए दरवाजे बंद हो चुके हैं. अजहरुद्दीन जैसे खिलाड़ी का करियर खत्म करके मिसाल दी जा चुकी है. दक्षिण अफ्रीकियों ने भी फिक्सिंग की है.
क्रोन्ये जैसा शानदार क्रिकेटर मान चुका है. लेकिन उसे इसकी कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी, सोच कर ही मन सिहर जाता है. पाकिस्तान इनसे अलग है लेकिन यहां साबित न होने तक निर्दोष वाला फॉर्मूला सबसे पहले लगा दिया जाता है.
पंद्रह सोलह साल में न जाने कितने ही पाकिस्तानी क्रिकेटर फिक्सिंग में फंसे हैं. लेकिन क्रिकेट बोर्ड से लेकर नेता तक उन्हें मासूम और निर्दोष बताने लगते हैं. हालांकि उनकी मासूमियत का सबूत उनके पास भी नहीं होता.
वैसे नेताओं के लिए भी मुश्किल है. देश की हालत को देख कर पांच साल तक पाकिस्तान में अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट नहीं खेलने का फैसला किया जा चुका है. ऐसे में मैच फिक्सिंग जैसे मामले में किसी खिलाड़ी का नाम आने से लगता है कि यह सीधे देश की बदनामी है. यानी बचाव ही एकमात्र रास्ता.
वैसे मैच फिक्सिंग किसी एक देश के खिलाड़ी कर सकते हैं, पर इससे असर पूरे क्रिकेट पर पड़ता है. जरा सोचिए भारत और पाकिस्तान के बीच का मैच. अगर किसी क्रिकेट प्रेमी को पता चले कि इसकी एक गेंद भी फिक्स थी, तो क्या होगा. क्या क्रिकेट का वह जुनून बना रह पाएगा.