खतरे में जीते सड़क के बच्चे
११ अक्टूबर २०१३संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक दुनिया भर में करीब 15 करोड़ बच्चे सड़कों पर रहते हैं. अकसर यह बच्चे या तो अपने घर से भाग जाते हैं क्योंकि इनके परिवार गरीब होते हैं, घर पर उनके मां बाप अकसर नशा करते हैं और हिंसक हो जाते हैं. कई बार प्राकृतिक आपदाओं की वजह से बच्चे बेघर हो जाते हैं और बड़े शहरों में किसी तरह जिंदगी गुजारने की कोशिश करते हैं. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक सड़क पर रह रहे बच्चे दो तरह के होते हैं. कुछ बच्चे दिन भर सड़कों पर काम करते हैं लेकिन शाम को अपने परिवार लौट जाते हैं. कुछ बच्चे अपना पूरा वक्त सड़क पर ही बिताते हैं और रात को भी सड़कों के किनारे सोते हैं.
एक असुरक्षित जीवन
चेन्नई में करुणालय सोशल सर्विस सोसाइटी में काम कर रहे पॉल सुंदर सिंह इन बच्चों पर मंडराते खतरों के बारे में बताते हैं, "सड़क पर रह रहा कोई भी बच्चा सुरक्षित नहीं है. वह यौन शोषण का शिकार हो सकता है. उनका आर्थिक शोषण होता है. उनकी पिटाई होती है और समाज से वह अलग थलग रहते हैं." सिंह के मुताबिक यह बच्चे यौन शोषण भी सह लेते हैं क्योंकि उनके पास जीने का और कोई रास्ता नहीं बताते. करुणालय के कार्यकर्ताओं को चेन्नई रेलवे स्टेशन पर एक बच्चा मिला जो कागज और अल्युमूनियम फॉइल जमा करता था. लेकिन इस काम में भी बाकी भीखारियों से प्रतिस्पर्धा होने लगी और वह इसके जमा किए गए कचरे को छीनने लगे. इस बच्चे के पास एक यही विकल्प बचा कि वह यौन शोषण के बदले कुछ कागज खुद रखकर बेच ले और अपना गुजारा करे.
सिंह का कहना है कि जब बच्चे लंबे वक्त तक सड़कों में रहते हैं तो वह एक तरह से सड़क के ही हो जाते हैं. उनके दोस्तों का नेटवर्क बन जाता है, वह उम्र से पहले यौन क्रियाओं में दिलचस्पी लेने लगते हैं, वह नशीली दवाओँ के जाल में उलझते हैं. ज्यादा परेशानी लड़कियों को होती है. सड़क में रह रहे बच्चों में से करीब 33 प्रतिशत लड़कियां हैं. यह ज्यादातर किसी के घर नौकरानी बनकर रहती हैं और हिंसा और यौन शोषण का शिकार बनती हैं या फिर इनसे देह व्यापार कराया जाता है. अगर यह सड़क पर आजाद रह भी पाएं तो इनका बलात्कार होता है और यह मर्जी ना होत हुए भी मां बन जाती हैं. इनके बच्चों का भविष्य फिर इन्हीं की तरह होता है.
आम जीवन मुश्किल है
करुणालय सोसाइटी सड़क पर रह रहे बच्चों के साथ काम करता है और उन्हें जीने के विकल्प देता है. संस्था के कार्यकर्ता अकसर रेलवे स्टेशन जैसी जगहों पर जाकर बच्चों को सुरक्षित जगह लाते हैं जहां वे रह सकते हैं. इन बच्चों के परिवारों को ढूंढने की कोशिश की जाती है. पॉल सुंदर सिंह के मुताबिक औसतन दो हफ्तों में ज्यादातर बच्चों के घर का पता चल जाता है और उन्हें वापस भेज दिया जाता है. कई ऐसे मामले होते हैं जिनमें बच्चों के परिवारों का कोई अता पता नहीं होता और संस्था उन्हें पढ़ाने लिखाने और नौकरी दिलाने में मदद करती है.
लेकिन सड़क पर लंबे वक्त से रह रहे बच्चे कई बार मदद के बावजूद वापस जाना पसंद करते हैं. सिंह कहते हैं, "इन बच्चों के पास आजादी है, इन्हें पैसा कमाना आता है और इन्हें सीमाओं में रहना पसंद नहीं. यह शराब और सिगरेट पीते हैं, दिन भर सिनेमाघरों में गुजारते हैं. इन्हें सामान्य जिंदगी में वापस आना पसंद नहीं." लेकिन हालत इतनी भी खराब नहीं. पॉल सुंदर सिंह का कहना है कि अगर इन बच्चों को विकल्प दिए जाएं तो यह सामान्य जिंदगी को पसंद करते हैं. करुणालय ऐसे कई बच्चों की मदद कर चुका है. अब बड़े होकर इनमें से कुछ संस्था में काम करते हैं और बाकी बच्चों की मदद करते हैं. सिंह कहते हैं कि बच्चों को सड़कों से निकालने में उन्हें सबसे ज्यादा मदद सड़क के बच्चे ही करते हैं.
रिपोर्टः मानसी गोपालकृष्णन
संपादनः निखिल रंजन