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चिकित्सा में पिछड़ा भारत

१ अगस्त २०१३

पिछले सालों के तेज आर्थिक विकास के बावजूद स्वास्थ्य सेवा पर भारत का निवेश काफी कम है. आधुनिक चिकित्सा के अभाव में बहुत से लोग इलाज के लिए नीक हकीमों पर निर्भर हैं. लेकिन बहुत से लोगों को उनकी सफलता का भरोसा भी होता है.

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तस्वीर: Fotolia/jacek_kadaj

तीन बच्चों की मां लीलावती पुरानी दिल्ली की तपती धूप में चुपचाप खड़ी है और एक हकीम और उसका एसिस्टेंट उनके हाथों की नसों की पड़ताल कर रहा है. उसके बाद ब्लेड की मदद से वह उनकी चमड़ी को छीलता है और गंदे खून को बाहर निकलने देता है. लीलावती को काफी समय से गठिये की बीमारी है और उनका मानना है कि वृद्ध हकीम मोहम्मद गयास उसे खून निकालने की पुरानी तकनीक से चंगा कर सकता है. उन्होंने समाचार एजेंसी एएफपी को बताया, "साइंस और आधुनिक चिकित्सा नाकामयाब हो गए हैं." इस बीच हकीम का असिस्टेंट उनके खून बहते हाथों पर पानी डालता जा रहा है और उस पर भूरे रंग का हर्बल पावडर छिड़का जा रहा है.

लीलावती बताती हैं कि 82 वर्षीय हकीम का इलाज जोड़ों के दर्द को कम करने का उनके लिए एकमात्र उपाय रहा है. इस हजारों साल पुरानी प्रथा का इस्तेमाल 19वीं सदी तक डॉक्टर गठिये के इलाज के लिए करते रहे हैं. उसके बाद इसे आम तौर पर रोक दिया गया और उसकी जगह आधुनिक दवाओं ने ली. लेकिन कुछ गरीब लोगों और भारत के दूरदराज के समुदायों में जहां डॉक्टरों का अभाव है और इलाज बहुत महंगे हैं, खून बहाने की पुरानी प्रथा पर ही भरोसा किया जाता है.

भारत की राजधानी में स्थित देश के सबसे बड़े मस्जिद के साये में मोहम्मद गयास से इलाज कराने के लिए हर दिन 50 से ज्यादा मरीजों की लाइन लग जाती है, जिनका कहना है कि इससे लकवे से लेकर डाइबिटिज और सर्विकल कैंसर तक हर बीमारी का इलाज किया जा सकता है. गयास कहते हैं, "इस इलाज के केंद्र में मुख्य विश्वास यह है कि अशुद्ध खून हर बीमारी की जड़ है. अशुद्ध खून से मुक्ति पाइए और आपकी बीमारियों का अंत हो जाएगा." उन्होंने यह हुनर अपने पिता से सीखा और पिछले 40 साल से जामा मस्जिद के निकट लोगों का इलाज कर रहे हैं.

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तस्वीर: DW

इलाज से पहले मोहम्मद गयास मरीजों को करीब पौने घंटे धूप में खड़े रहने को कहते हैं. वे बताते हैं, "अशुद्ध खून के बहाव का पता करना सबसे बड़ा हुनर है. चीरा यूं ही नहीं लगाया जाता, उससे पहले हर नस की जांच की जाती है." हकीम गयास नस में बाधा, गांठ और थक्के की खोज करते हैं और उन्हें खत्म करने के लिए चीरा लगाते हैं ताकि खून का बहाव बेहतर हो सके. इस बीच उनका एसिस्टेंट खून के प्रवाह को सीमित करने के लिए पांव को कपड़े से बांध देता है. ऐसा करने से नसें उभर जाती हैं और चीरा लगाना आसान हो जाता है.

गयास कहते हैं कि वे मरीजों से पैसा नहीं लेते. उनमें से ज्यादातर अत्यंत गरीब हैं. लेकिन वे उस्ताद के एसिस्टेंट को उसकी मदद के लिए 40 रुपये देते हैं. यह रकम होम्योपैथी के डॉक्टरों द्वारा ली जाने वाली फीस का दसवां हिस्सा है. वे कहते हैं, "जो लोग मेरे पास आते हैं, उनके पास बहुत कम पैसा है, मैं उनसे क्या लूं." अपनी रोजी रोटी के लिए वे अपने बेटे पर निर्भर हैं, जो वहां दुकान चलाता है. जबकि उनका एक और बेटा उनसे इलाज का हुनर सीख रहा है. इकबाल कहता है, "हमारा इलाज दूसरी परंपरागत चिकित्सा जैसा है. हम व्यावसायिक डॉक्टर नहीं हैं, क्योंकि लोगों की भलाई हमारे लिए अहम है."

भारत के कुछ हिस्सों में अभी भी खूना बहाकर इलाज किया जा रहा है, लेकिन पेशेवर डॉक्टर इसे नीमहकीमी बताते हैं. डाइबिटिज विशेषज्ञ राजेश केसवारी कहते हैं कि उनके पास अक्सर ऐसे लोग आते हैं जिन्होंने खून बहाने या जड़ी बूटी खाने जैसा इलाज करवा कर अपने शरीर को जोखिम में डाल लिया हो. वे कहते हैं, "डाइबिटिज का इलाज पहले ही दिन से करना होता है, लेकिन खासकर गरीब लोग पहले ऐसा इलाज करवाते हैं, जिससे कोई फायदा नहीं होता." उनका कहना है कि इस तरह के इलाज से जटिलताएं भी पैदा हो जाती हैं.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

हालांकि भारत में विश्वस्तरीय अस्पताल हैं, लेकिन वह ज्यादातर लोगों की पहुंच से बाहर है. एक दशक के तेज आर्थिक विकास की वजह से सरकार गरीबों और देहाती इलाकों पर ज्यादा खर्च करने की हालत में है, लेकिन ऑक्सफैम की एक रिपोर्ट के अनुसार सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा अभी भी 1.2 अरब लोगों की जरूरतों को पूरा करने की हालत में नहीं है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार इस क्षेत्र को मजबूत बनाने के प्रयासों के बावजूद भारत चिकित्सा सेवा में सबसे कम सरकारी निवेश करने वाले देशों में से एक है.

लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो खून बहाने वाला इलाज पैसा बचाने के लिए नहीं करते, बल्कि इलाज के सफल नतीजों के लिए करते हैं. चार साल पहले एक सड़क दुर्घटना में अपाहिज हो गए 42 वर्षीय जयंत कुमार कहते हैं, "पहले मैं न तो बैठ पाता था और न ही खड़ा हो पाता था. अब मैं बिना किसी सहारे के चल भी सकता हूं."

एमजे/एमजी (एएफपी)

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