चीन को लेकर बढ़ रही हैं म्यांमार की चिताएं
१२ जुलाई २०२०म्यांमार की सेना- तात्मदाव के कमांडर-इन-चीफ सीनियर जनरल मिन आंग लाइ ने हाल ही में कहा कि म्यांमार के आतंकवादी गुटों को कुछ बाहरी ताकतें सहयोग और समर्थन दे रही हैं और इसी वजह से उनका सफाया नहीं हो पा रहा है. उन्होंने रूसी टेलिविजन चैनल को दिए गए इंटरव्यू में म्यांमार में आतंकवाद से लड़ने के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग की अपील की. हालांकि साफ तौर पर जनरल मिन आंग लाइ ने किसी आतंकवादी गुट या देश का नाम नहीं लिया लेकिन उनका इशारा साफ तौर पर चीन की ओर था. माना जाता है कि म्यांमार के उत्तरी रखाइन प्रांत में अराकान आर्मी और अराकान रोहिंग्या सालवेशन आर्मी को चीन का समर्थन और सहयोग प्राप्त है.
वैसे तो म्यांमार की सेना पिछले कई वर्षों से यदा-कदा ऐसे संकेत देती रही है लेकिन सेना प्रमुख की तरफ से आए इस बयान को कम करके नहीं आंका जा सकता. कहीं न कहीं यह तात्मदाव और चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी के बीच बढ़ती दूरियों की ओर संकेत करता है लेकिन फिलहाल बात उतनी भी बिगड़ी नहीं लगती जितनी तमाम पश्चिमी टिप्पणीकारों ने इस घटना के बाद कर डाली है. म्यांमार उन 53 देशों में शुमार है जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ के जेनेवा स्थित मानवाधिकार काउंसिल में चीन की हांगकांग में चल रही गतिविधियों पर उसका साथ दिया है.
म्यांमार की विदेश नीति और अंदरूनी मामलों में दिलचस्पी रखने वालों के लिए यह एक मानी हुई बात है कि म्यांमार की सेना तात्मदाव और चीन (खास तौर पर पीपल्स लिबरेशन आर्मी) के घनिष्ठ संबंध रहे हैं. 1962 में एक सैन्य तख्तापलट के बाद ने-विन के सत्ता में आने के बाद से 2015 तक सैन्य तानाशाही में रहे म्यांमार के लिए चीन अक्सर एक सहयोगी के रूप में दिखा है – खास तौर पर 90 के दशक में जब आंग सान सू ची के लोकतांत्रिक चुनाव जीतने के बावजूद उन्हें सत्ता से बेदखल कर सेना ने सत्ता पर अपना कब्जा बनाए रखा. आज भी म्यांमार में विदेशी निवेश की दृष्टि से चीन सिंगापुर के बाद दूसरा सबसे बड़ा देश है.
चीन से आ रहे हैं हथियार
म्यांमार के सैन्य अधिकारी मानते हैं कि चीन उत्तरी रखाइन प्रांत में सक्रिय अराकान आर्मी और अराकान रोहिंग्या सालवेशन आर्मी समेत कई गुटों को हथियार मुहैय्या कराता रहा है. इसमें आश्चर्य नहीं क्योंकि छोटे-बड़े हथियारों की अवैध खरीद-फरोख्त एक बड़ा अंतरराष्ट्रीय बाजार है जिसमें फायदा कईयों को होता है- शायद चीन को भी. म्यांमार की चिंता की एक बड़ी वजह यह है कि इन अलगाववादी गुटों से हिंसक झड़पों में मिले हथियार चीन में बने हुए हैं. उत्तरी शान प्रांत में हाल में जब्त किए गए हथियारों से इसकी पुष्टि भी होती है.
जहां तक चीन समर्थित अलगाववादी सैन्य गुटों का सवाल है तो इसमें म्यांमार डेमोक्रेटिक अलायंस आर्मी, नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस-ईस्टर्न शान स्टेट, पलांग टांग नेशनल लिबरेशन आर्मी और यूनाइटेड वॉ स्टेट आर्मी जैसे कई गुटों का नाम भी उभर कर सामने आता है. गैरसरकारी और अपुष्ट रिपोर्टों के अनुसार अराकान आर्मी समेत इन तमाम गुटों के नेता चीन, खास तौर पर उसके यूनान प्रांत आते जाते रहे है और संभवतः चीन-म्यांमार सीमा से लगे क्षेत्रों में इनके बेस भी हैं. यही नहीं म्यांमार के सबसे ताकतवर अलगाववादी गुटों में से एक माने जाने वाली कचिन इंडिपेंडेंस आर्मी (केआइए) और म्यांमार की केंद्र सरकार के बीच में चीन ने पहले मध्यस्थता भी की है.
मध्यस्थता के चीन के तमाम दावों के बावजूद अभी तक केआइए और म्यांमार की सरकार में सुलह नहीं हो पायी है. गौरतलब बात यह है कि केआइए अपनी गुरिल्ला सरकार चलाने के लिए जंगल की लकड़ी, जानवरों तथा मादक पदार्थों जैसे गैरकानूनी धंधों और तस्करियों पर निर्भर है. इस लैंड-लॉक्ड क्षेत्र की सीमाएं भारत और चीन से लगी हैं. सवाल यह है कि यदि भारत आतंकवाद और अलगाववाद पर वर्षों से कड़ा रुख अपनाए बैठा है तो कौन सा देश है जो केआइए और म्यांमार के अन्य अलगाववादी गुटों के साथ व्यापार में लिप्त है और उन्हें समर्थन दे रहा है?
म्यांमार में चीन के इरादे
2017 में चीन के राष्ट्रपति शी जीनपिंग ने स्टेट काउंसलर आंग सान सू ची को खुद भरोसा दिलाया था कि चीन म्यांमार के देशव्यापी शांति समझौते में सहयोग करेगा. लेकिन सू ची की अगुवाई में हुए दो पेंगलांग सम्मेलनों में ऐसा कोई देशव्यापी समझौता नहीं हो पाया. आलोचकों का मानना है कि चीन के परोक्ष रूप से हस्तक्षेप के बाद से हालात बदतर ही हुए हैं. ऐसा समझा जाता है कि चीन के बेल्ट एंड रोड परियोजना के लिए केंद्र प्रशासित शांत और स्थिर म्यांमार से अच्छा है एक अस्थिर देश जहां सरकार, तात्मदाव, और अलगाववादी सभी उस पर शांति और स्थिरता के लिए निर्भर रहें.
म्यांमार के नीतिनिर्धारक इस बात को अच्छी तरह से जानते और समझते हैं. विदेशी निवेश के लिए अर्थव्यवस्था को मुक्त बनाने से लेकर कई देशों के साथ सैन्य सहयोग बढ़ाने का निर्णय इसी का हिस्सा है. हालांकि भारत के साथ म्यांमार का सहयोग दशकों से चला आ रहा है लेकिन रूस यात्रा के दौरान जनरल मिन आंग लाइ और भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के बीच की मुलाकात से सुरक्षा, निवेश, व्यापार और इंफ्रास्ट्रक्चर क्षेत्रों में और गति आने की संभावना है.
म्यांमार और भारत की सुरक्षा
भारत के लिए म्यांमार के महत्व के बारे में प्रसिद्ध राजनयिक केएम पणिक्कर ने 1940 के दशक में कहा था कि बर्मा (म्यांमार का पुराना नाम) की रक्षा भारत की अपनी रक्षा है. बर्मा का पराधीन होना भारत की सुरक्षा के लिए सीधा खतरा होगा. पणिक्कर की वह बात आज भी उतनी ही सच है जितनी 40 के दशक में थी हालांकि खतरे का नाम अब बदल चुका है. भारत को म्यांमार की अंदरूनी गतिविधियों पर पैनी नजर रखनी होगी और साथ ही यह भी देखना होगा कि उसके अपने हितों के साथ-साथ म्यांमार के हितों को नुकसान न पहुंचे.
भारत और म्यांमार के बीच कलादान मल्टी-मॉडल परियोजना और भारत-म्यांमार-थाईलैंड हाईवे जैसे प्रोजेक्ट वर्षों से चल रही हैं और आज तक पूरी नहीं हुई हैं. म्यांमार भारत की ऐक्ट ईस्ट नीति का हिस्सा है और भारत के लिए दक्षिण-पूर्व एशिया का गेट-वे भी. कलादान जैसे प्रोजेक्टों का जल्दी पूरा होना न सिर्फ भारत को म्यांमार के अराकान प्रांत से जोड़ेगा बल्कि शायद इससे वहां की अलगाववाद की समस्या को भी सुलझाने में मदद मिले. जनरल लाइ और राजनाथ सिंह के बीच वार्ता में यह मुद्दे भी आए लेकिन जब तक यह प्रोजेक्ट पूरे नहीं होते तब तक भारत और म्यांमार के बीच बड़े परिवर्तन की उम्मीद नहीं की जा सकती. जब तक भारत म्यांमार पर अपने दूसरे पड़ोसियों, नेपाल, बांग्लादेश और श्री लंका जैसा ध्यान नहीं देता तब तक म्यांमार सिर्फ संभावनाओं का सुदूर स्रोत ही रहेगा और दोनों देशों के बीच खास नजदीकियां खुशनुमा सपनों जैसी रहेंगी.
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)
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