चीन में गूगल मामला- अभिव्यक्ति की आज़ादी पर बहस
१४ जनवरी २०१०गूगल के एक ब्लॉग में उद्यम के लीगल अफ़सर के बयान को युद्ध की घोषणा कहा जा सकता है. चीन सरकार के ख़िलाफ़, सेंसरशिप के ख़िलाफ़, अलग विचार रखने वालों के दमन के ख़िलाफ़. और इसके साथ सारी दुनिया में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर एक बहस छिड़ गई है. गूगल का कहना है कि उसके लिए यह अधिकार और इंटरनेट की सुरक्षा पर यूज़र का विश्वास एक सैद्धांतिक मसला है.
माना जा सकता है कि गूगल चीन से हटने का फ़ैसला कर चुका है. इस तरह से ढोल पीटकर बातचीत का दरवाज़ा नहीं खोला जाता है. साथ ही ह्वाइट हाउस के साथ भी बात कर ली गई थी, और विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने तुरंत कड़े शब्दों में मांग की कि चीन हैकरों के हमलों की जांच में मदद करे. सारी दुनिया में चर्चा होने लगी, लेकिन सेंसरशिप की कृपा से चीन में ख़ामोशी छाई रही.
गूगल भले ही चीन से वापस आ जाए, सर्फ़ करने वालों के लिए कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ेगा. चीन में गूगल बाज़ार में अगुआ नहीं है, अपने चीनी प्रतिद्वंद्वी बाइदू से वह काफ़ी पीछे है.
चार साल तक चीन की हां में हां मिलाने के बाद गूगल अचानक मानव अधिकारों का मामला क्यों उठा रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि घाटे का बिज़नेस बंद करने के साथ-साथ पब्लिक रिलेशंस के लिए फ़ायदा उठाने की कोशिश की जा रही है?
लेकिन चीन सरकार को उसने परेशानी में डाल दिया है. चीनी इंटरनेट सेंसरशिप फिर से चर्चा में आ गई है. साथ ही सरकार की शह पर साइबर हमले का मामला है. हाल के महीनों में विदेशी पत्रकारों के कर्मियों पर हैकर्स के हमले हो रहे थे. फिर घोस्टनेट के ज़रिये दूतावासों, विदेश मंत्रालयों और दलाई लामा के दफ़्तरों के 1200 कंप्यूटरों पर हमले किए गए.
साथ ही चीनी सकसेस मॉडल पर सवालिया निशान लग गया है. अरबों के बाज़ार की लालच दिखाकर कंपनियों को देश में लाओ, और फिर उन्हें अपने नियम मानने के लिए मजबूर करो. कई साल तक इस रास्ते पर चलने के बाद गूगल अब इसके लिए तैयार नहीं है. उसे अपनी कंपनी का नारा फिर से याद आ गया है - दुष्ट मत बनो, Don't be Evil!
रिपोर्टः माथियास फ़ॉन हाइन/राम यादव
संपादनः उज्ज्वल भट्टाचार्य