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चेहरों की जुबानी अफगान जंग की कहानी

७ अक्टूबर २०११

जीतने वाला हो या हारने वाला, सबके चेहरे कुरेदने पर अंदर से दर्द निकलता है. ये दर्दमंद चेहरे, किसी खास धर्म, रंग, देश या नस्ल के नहीं. लेकिन इनमें एक बात साझी है. ये सब अफगानिस्तान की जंग के चेहरे हैं.

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तस्वीर: dapd

जंग में जिंदगी सिर्फ हारती है. अफगनिस्तान में भी हारी. अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन, अफगानिस्तान, भारत और तालिबान जो भी इस जंग से जुड़ा, उसने जानें गंवाईं. पिछले एक दशक में इस युद्ध में 1700 अमेरिकी सैनिक मारे जा चुके हैं. नाटो के 954 सैनिक मारे गए. अफगान नेशनल आर्मी ने 1500 जानें खोई हैं. और कोई आधिकारिक आंकड़ा तो उपलब्ध नहीं है लेकिन एक अंदाजा है कि दस हजार से ज्यादा तालिबानी मारे गए.

इसी दौरान दस हजार से ज्यादा अफगान नागरिकों की भी जान गई. संयुक्त राष्ट्र और ह्यूमन राइट्स वॉच के अनुमान के मुताबिक इनमें 2,930 लोग तो विदेशी फौजियों के हमलों में मरे जबकि 7,686 को तालिबान ने मार डाला.

जीतने वाला हो या हारने वाला, सबके चेहरे कुरेदने पर अंदर से दर्द निकलता है. ये दर्दमंद चेहरे, किसी खास धर्म, रंग, देश या नस्ल के नहीं. लेकिन इनमें एक बात साझी है. ये सब अफगानिस्तान की जंग के चेहरे हैं. और इन चेहरों पर लिखी है इस जंग की 10 साल लंबी दास्तान.

(FILE) A file picture dated 18 November 2001 shows Northern Alliance soldiers watching the explosion after a US bomber dropped bombs on Taliban positions near the village of Khanabad, in Kunduz province, northern Afghanistan. The tenth anniversary of the invasion of Afghanistan is marked on 07 October 2011. On 07 October 2001 the United States of America launched Operation Enduring Freedom in Afghanistan in response to the terrorist attacks on the United States of 09 September 2001. The stated goal was to dismantle the Al Qaeda terrorist organization and end its use of Afghanistan as a base. The military campaign also aimed to remove the ruling Taliban regime from power and create a viable democratic state. EPA/SERGEI CHIRIKOV (zu dpa-Themenpaket vom 29.09: Zehnter Jahrestag des Beginns des Afghanistan-Kriegs am 7.10.) +++(c) dpa - Bildfunk+++
तस्वीर: picture-alliance/dpa

काईल मैकलिंटोक (23) अमेरिकी फौजी

मैकलिंटोक अमेरिकी सेना में अपने परिवार की दूसरी पीढ़ी हैं. उनके पिता और मां दोनों सैनिक रहे. उनके पिता ने सऊदी अरब में ऑपरेशन डेजर्ट स्टॉर्म में हिस्सा लिया. उनकी मां तो अफगानिस्तान में ही तैनात रहीं. और आज मैकलिंटोक अफगान-पाकिस्तान सीमा पर पहरा दे रहे हैं. जब अमेरिका पर 2001 में आतंकवादी हमला हुआ, तब वह सिर्फ 13 साल के थे. उनके चचेरे और ममेरे भाइयों ने तभी फौजी वर्दी पहन ली. उन्हें 10 साल इंतजार करना पड़ा. अब वह अफगानिस्तान में तैनात विदेशी सैनिकों के सबसे बड़े जत्थे यानी अमेरिकी फौज का हिस्सा है. एक लाख 20 हजार सैनिकों के इस जत्थे ने सबसे बड़ा नुकसान उठाया है. एक दशक में उसके 1,782 सैनिक मारे जा चुके हैं. मैकलिंटोक ने अभी तक किसी को खोया नहीं है. अभी उनकी तैनाती को तीन महीने ही हुए हैं, लेकिन एक बात वह तय कर चुके हैं कि अपने बेटे को सेना में भर्ती नहीं होने देंगे.

टिम रुपेल्ट (30) जर्मन सैनिक

अमेरिका और ब्रिटेन के बाद अफगानिस्तान में तैनात सैनिकों में सबसे ज्यादा सैनिक जर्मनी के हैं. उन्हीं में से हैं टिम रुपेल्ट. कुछ समय पहले तक भी जर्मनी में सैन्य सेवा जरूरी थी लेकिन रुपेल्ट ने इसे करियर बनाने की सोच ली है. कम से कम अगले 12 साल तक वह सेना में रहेंगे. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उन्हें ट्रेनिंग के दौरान इस काम में मजा आया. लेकिन उनका परिवार इस बात से खुश नहीं है. उनकी मां टीवी पर अफगानिस्तान की कोई खबर नहीं देख पातीं. दूसरे विश्व युद्ध के जख्मों पर जीने वाले जर्मनी में लड़ाई का नाम भी सिहरन पैदा कर देता है. अफगानिस्तान में जर्मनी 53 सैनिक खो चुका है.

रुपेल्ट इस बात को अच्छी तरह समझते हैं. उन्हें एक बार अफगानिस्तान में सैर करतीं दो जर्मन लड़कियां मिलीं. उन्होंने अल कायदा और ओसामा बिन लादेन का नाम तक नहीं सुना था. उन्होंने रुपेल्ट से पूछा था कि जर्मन सैनिक अफगानिस्तान में क्या कर रहा है. रुपेल्ट बताते हैं, "मुझे लगता है कि जर्मन लोग अफगानिस्तान में उनकी सेना के लड़ने पर गौरवान्वित महसूस नहीं करते. कई बार तो मुझे लगता है कि वे भूल चुके हैं हम यहां हैं."

2009 में रुपेल्ट पहली बार फैजाबाद में तैनात हुए थे. अपनी पहली पोस्टिंग के बाद जब वह वापस जर्मनी लौटे तो उन्हें हैरत हुई कि फैजाबाद की जिंदगी के उनके किस्सों में किसी की दिलचस्पी नहीं थी. अपनों का पूछा एक सवाल बहुत परेशान करता है, "हमारे सैनिक किस लिए मर रहे हैं, यह सवाल मुझे सबसे मुश्किल लगता है. मेरे पास इसका जवाब नहीं है. शायद कुछ साल बाद जब अफगानिस्तान एक सुरक्षित और शांत जगह होगी, अल कायदा का नाम भुलाया जा चुका होगा और आतंकवाद खत्म हो चुका होगा, तब हम पीछे मुड़कर देखेंगे और सोचेंगे कि क्या हमारा मिशन सफल हुआ."

Bundeswehr in Afghanistan Flash-Galerie
तस्वीर: picture-alliance/dpa

मोहम्मद अली (21), अफगान सैनिक

मोहम्मद अली अपने गांव में तैनात फौजियों को देखते तो उनका मन हरी वर्दी पहनने को मचल उठता. अली कहते हैं, "मैं सोचा करता था कि एक दिन मैं भी इन जैसा बन जाऊंगा." अली ने अपना यह ख्वाब किसी और के साथ नहीं बांटा क्योंकि 1990 के दशक में गृह युद्ध झेल चुका उनका परिवार ऐसा सुनने को भी तैयार नहीं होता. और वैसा ही हुआ. जब मां को अली की इस इच्छा का पता चला तो उसने सख्त विरोध किया. फिर भी 10 महीने पहले अली अफगानिस्तान की सेना में भर्ती हो गए.

इस सेना को 2014 से देश की रक्षा और सुरक्षा की जिम्मेदारी संभालनी है. पूरे मुल्क में एक लाख 75 हजार सैनिक तैनात है. इस साल के आखिर तक इनकी तादाद एक लाख 95 हजार तक पहुंच जाएगी. तालिबान के हाथों 1500 सैनिक मारे जा चुके हैं.

जब कभी किसी अफगान जवान के मरने की खबर आती है, मां फोन करके अली से उनका हाल चाल पूछती है. अली का पूरा ध्यान 2014 पर लगा है. वह कहते हैं, "मुझे यकीन है कि हम अपने देश की रक्षा कर पाएंगे. बस हमें अच्छे हथियार चाहिए. मेरी एम-16 राइफल जब तब अटक जाती है. कई बार तो चार गोली दागने के बाद यह अटक जाती है." अब अली समझ समझ चुके हैं कि सेना का मतलब सिर्फ सजीली हरी वर्दी नहीं होती.

मोआबुल्लाह (40), तालिबानी विद्रोही

1979 में जब रूसी सेना ने अफगानिस्तान में कदम रखे तब मोआबुल्लाह स्कूल में पढ़ता था. अपने देश से विदेशियों को भगाने के लिए वह लड़ाका बन गया. रूसी चला गया. उसका मिशन पूरा हो गया. आज मोआबुल्लाह अपनी जिंदगी के चौथे दशक में है. और लड़ रहा है.

जब तालिबान ने अफगानिस्तान में शासन शुरू किया तब मोआबुल्लाह को लगा था कि शांति आ जाएगी. वह खुद धार्मिक रूप से ज्यादा कट्टर नहीं है. लेकिन उत्तरी गठबंधन ने तालिबान के खिलाफ जंग छेड़ दी और उसे फिर हथियार उठाने पड़े. फिर अमेरिका और नाटो आ गए और तालिबान हार कर काबुल से भाग गए. इसके साथ ही मोआबुल्लाह ने हथियार छोड़ दिए. लेकिन उत्तरी गठबंधन के लोगों ने उसके घर को लूटा और उसे धमकी दी कि उसे अमेरिकियों के हाथों सौंप दिया जाएगा.

मोआबुल्लाह लड़ना नहीं चाहता था. वह ईरान भाग गया. लेकिन दो साल बाद लौटा तो कुछ नहीं बदला था. उसके पास तालिबान के साथ जाने के अलावा कोई चारा नहीं था. अब उसका काम गोली चलाना नहीं है. वह तो बस सामान और रहने की जगह उपलब्ध कराने जैसे काम देखता है. शुरुआत में उसकी पत्नी और बच्चों ने कहा, "बहुत हो गया. अब लड़ाई छोड़ो." लेकिन मोआबुल्लाह कहते हैं, "विदेशी सैनिकों के दसियों हमले झेल चुके और कई अपनों को खो चुके मेरे परिवार वाले अब कहते हैं, तुम्हें लड़ना ही पड़ेगा."

Flash-Galerie Afghanistan 10 Jahre Intervention Festung
तस्वीर: AP

शाहिरा सैदी (20), टीचर

बुर्के में लिपटी सैदी रोज अपने घर से अफगान कैनेडियन कम्यूनिटी सेंटर में अंग्रेजी पढ़ाने जाती हैं. वह बिजनस मैनेजमेंट की क्लास भी लेती हैं. कंधार में 20 साल की लड़की के लिए रोज का यह काम जानलेवा हद तक खतरनाक है. वह बताती हैं, "हर रोज मेरी अम्मी मुझसे कहती हैं कि जब तक तुम घर से बाहर रहती हो, दिल में डर बैठा रहता है." सैदी की अम्मी को याद है कि दो लड़कियों को स्कूल जाते वक्त कत्ल किया जा चुका है. सैदी को भी डर लगता है.

सैदी के पिता उन्हें घर से बाहर निकलते वक्त बुर्का पहनने को कहते हैं, धर्म की वजह से नहीं, डर की वजह से. कंधार की सड़कों पर बिना बुर्के के लड़कियों का निकलना हैरतअंगेज वाकया होता है. सैदी कहती हैं, "हमें कोई नहीं देख सकता. पर हम सबको देख सकते हैं." उनका ख्वाब है अफगानिस्तान के बाहर की दुनिया को देखना. लेकिन वह अपनी सरजमीं के भविष्य को ही नहीं जानतीं. वह कहती हैं कि जब तालिबान गए तब बड़ी उम्मीदें जगी थीं. लेकिन अब फिर सब कुछ वैसा ही हो गया है. लेकिन उन्होंने उम्मीद नहीं छोड़ी है. उन्हें उम्मीद है कि मर्दों के कब्जे वाले इस समाज में से ही एक दिन कोई लड़की अफगानिस्तान की राष्ट्रपति बनेगी. वह कहती हैं, "सब ठीक हो जाएगा."

रिपोर्टः एपी/वी कुमार

संपादनः ए कुमार

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