जर्मनी का महंगा चुनाव प्रचार
५ सितम्बर २०१३जर्मनी में चुनाव प्रचार शुरू होते ही सोशल डेमोक्रैट्स की परेशानी भी शुरू हो गई. उनके चुनाव उम्मीदवारों के पोस्टर वाटरप्रूफ नहीं थे. बारिश में वे नहीं टिक पाए. पार्टी को दोबारा पोस्टर बनवाने पड़े.
मतदान के करीब छह हफ्ते पहले मामला गंभीर होने लगता है. लगभग सारी पार्टियां अपने उम्मीदवारों के पोस्टर लगा चुकी होती हैं. चुनाव के दो महीने पहले से पार्टियां इन्हें लगाना शुरू कर सकती हैं. अब जर्मनी में कोई भी दीवार या खाली जगह इन पोस्टरों से नहीं बच पाया है. कई शहरों में तो ऐसा लगता है जैसे कि शहर की दीवारें इन पोस्टरों से ही बनी हों.
क्या पुराने स्टाइल वाले पोस्टरों की वाकई जरूरत है, इस बहस में बाल की खाल निकालने की कोशिश हो रही है लेकिन विशेषज्ञों की साफ राय है, "जर्मनी के चुनाव में पोस्टर की अहम भूमिका है," कहते हैं कोर्ट फॉन मानश्टाइन, जो विजुअल कम्युनिकेशन के प्रोफेसर हैं और एक विज्ञापन एजेंसी चलाते हे. इनकी कंपनी लिबरल पार्टी एफडीपी के पोस्टर बनाती है.
बड़ी पहुंच
फॉन मानश्टाइन कहते हैं, "पोस्टर प्रचार का ऐसा माध्यम है जो बड़ी जनसंख्या वाली जगहों में कम से कम वक्त में ज्यादा से ज्यादा मतदाताओं तक पहुंच सकता है."
जर्मनी में पोस्टर लगाने के लिए पार्टियों को शहर या स्थानीय प्रशासन को पैसे नहीं देने पड़ते. आम इश्तिहार से अलग उनके पास खास चुनाव प्रचार के लिए जगहें बनाई गई हैं. लेकिन उन जगहों पर पोस्टर नहीं लगाए सकते जहां यातायात को परेशानी हो. पेड़ों पर पोस्टर लगाना भी अच्छा नहीं माना जाता. बॉन शहर प्रशासन के मुताबिक यह भी तय नहीं है कि कौन सी पार्टी को पोस्टर के लिए कितनी जगह मिलेगी.
सबसे अच्छी जगह किसको मिलेगी, यह इस बात से भी तय होता है कि किसके पास सबसे ज्यादा चुनाव सहयोगी हैं जो पोस्टर लगाने के लिए तैयार हैं और जो सबसे पहले सबसे अच्छी जगह पर पहुंच सकते हैं.
चुनाव प्रचार पर काम कर रहे प्रोफेसर अलेक्जांडर शिमांस्की का कहना है कि पोस्टर सबसे सस्ता माध्यम है, इसे प्रिंट कराना आसान है और पार्टियां आजकल खुद इसे कर सकती हैं.
प्रचार के ढेरों तरीके
आजकल चुनाव प्रचार का मतलब है कि पार्टियां इंटरनेट से लेकर मुहल्ले के पोस्टर तक, प्रचार के हर माध्यम का इस्तेमाल करें. हैम्बर्ग में पीआर एजेंसी आईएसएम के वोल्फगांग राइके कहते हैं कि इंटरनेट के जरिए उम्रदराज मतदाताओं तक नहीं पहुंचा जा सकता और केवल प्रिंट करें तो युवा मतदाता नजरंदाज हो जाते हैं. "पाइरेट पार्टी इंटरनेट का खूब इस्तेमाल करती है और यह भी अपने बजट का एक तिहाई हिस्सा प्रचार में खर्चते हैं," यह कहना है कोर्ट फॉन मानश्टाइन का. जहां तक साधारण पोस्टर का सवाल है, यह प्रचार का सबसे अच्छा जरिया रहेगा क्योंकि यह सस्ता है और इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता.
एक अच्छा पोस्टर कैसे बनाया जाए. विशेषज्ञ कहते हैं कि पोस्टर में फोटो होना जरूरी है. फॉन मानश्टाइन का मानना है कि आजकल तस्वीरों से आप हर बात कह सकते हैं. एक तस्वीर से मतदाता पार्टी या उम्मीदवार के बारे में अपनी एक राय बनाता है. फोटो अच्छी होनी चाहिए जिसे देखकर प्रतिक्रिया सकारात्मक हो, जो वोटरों को भरोसा दिलाए. इसके साथ कुछ ऐसा लिखा होना चाहिए जिसका संदेश बिलकुल साफ हो. शिमांस्की के पास कुछ सुझाव हैं, जैसे, "न्याय के लिए" या "सबसे अच्छा है परिवार".
पार्टियों को अपने पोस्टरों पर विपक्ष के नेताओं की तस्वीरें लगाने में थोड़ा सतर्क रहना चाहिए. इस वक्त एसपीडी अपने पोस्टरों पर चांसलर मैर्कल की अजीब सी तस्वीरें छाप रहा है. प्रचार विशेषज्ञ क्रिस्टोफ मॉस का कहना है कि यह बहुत अकलमंदी का काम नहीं, क्योंकि लोगों के दिमाग में तो चांसलर अंगेला मैर्केल की तस्वीरें रहेंगी, जो सत्ताधारी पार्टी सीडीयू की हैं. अगर एसपीडी सत्ता में आना चाहती है तो उसे मैर्केल की तस्वीरों के जरिए प्रचार नहीं करना चाहिए.
फॉन मानश्टाइन का कहना है कि तस्वीरें अच्छी तो होनी चाहिए लेकिन ऐसी होनी चाहिए जिससे मतदाता उससे जुड़ सकें. अगर नेताओं की झुर्रियां इन तस्वीरों में दिखें, तो इसमें कोई बुरी बात नहीं. लोग नेता को उसकी उम्र देखकर नहीं चुनते.
इस साल का खास ट्रेंड है कि पार्टियां ऐतिहासिक नेताओं के फोटो का इस्तेमाल नहीं कर रही हैं. सत्ताधारी सीडीयू पार्टी इस साल एक खुशहाल परिवार की तस्वीर का उपयोग कर रही है. चांसलर मैर्केल की तस्वीरें बाद में आएंगी. एसपीडी भी अपने नेता पेयर श्टाइनब्रुक का नहीं बल्कि अकेली मांओं और परिवारों की तस्वीरें दिखा रही हैं जो मंदी और महंगाई से परेशान हैं.
ग्रीन पार्टी एक तस्वीर के साथ कुछ कहने की कोशिश करती है और पूछती है, "और आप?". यह विज्ञापन काफी सफल हुआ है. लोग इसे देखकर इंटरनेट पर भी जा रहे हैं. 22 सितंबर को चुनाव के दिन शहरों से सारे विज्ञापन हट जाएंगे. ऐसा नहीं हुआ, तो राजनीतिक पार्टियों को जुर्माना भरना पड़ सकता है.
रिपोर्टः आर्ने लिष्टेनबर्ग/एमजी
संपादनः ए जमाल