जर्मनी में विदेशियों के प्रति बढ़ रही है असहिष्णुता
८ नवम्बर २०१८एक तिहाई जर्मन लोगों का मानना है कि विदेशी जर्मनी में सिर्फ यहां की लोक कल्याण नीतियों का फायदा उठाने आते हैं. जर्मनी के पूर्वी हिस्से में तो ऐसा मानने वालों की संख्या और भी ज्यादा है. सर्वे में हिस्सा लेने वाले 44.6 फीसदी लोगों ने कहा कि देश खतरनाक रूप से विदेशियों से भर चुका है.
लाइपजिग स्थित कॉम्पिटेंस सेंटर फॉर राइट विंग एक्सट्रीमिज्म एंड डेमोक्रेसी रिसर्च के आंकड़े दिखाते हैं कि जर्मनी में विदेशियों के प्रति पूर्वाग्रह बढ़ रहे हैं. यह संस्था हर दो साल में एक बार सर्वे के नतीजे प्रकाशित करती है और देश में उग्र दक्षिणपंथ के प्रति नागरिकों की सोच को उजागर करती है. संस्था के अध्यक्ष ऑलिवर डेकर ने डॉयचे वेले से बातचीत में कहा, "पूर्वी जर्मनी में पूर्वाग्रह से जुड़े आंकड़े हमेशा से ही ज्यादा रहे हैं."
शोध के अनुसार आप्रवासियों के खिलाफ नफरत बढ़ी है, खास कर मुसलामानों, सिंती और रोमा समुदाय के खिलाफ. रिसर्च में हिस्सा लेने वाले 60 फीसदी लोगों का मानना था कि सिंती और रोमा लोग अपराधी होते हैं. 2014 की तुलना में यह पांच फीसदी का इजाफा है. ऐसा ही मुसलामानों के मामले में भी देखा गया है. 44 फीसदी लोगों का कहना था कि मुसलामानों को जर्मनी में शरण देना बंद कर देना चाहिए. चार साल पहले 36.5 प्रतिशत लोगों का ऐसा कहना था. 55.8 फीसदी लोगों ने कहा कि जर्मनी में मुसलामानों की बढ़ती संख्या को देख कर उन्हें अपने ही देश में अजनबियों जैसा महसूस होता है. 2014 में यह संख्या 43 फीसदी थी.
जानिए भारत से आई बंजारा जातियां सिंती और रोमा के बारे में
सर्वे में लोगों से यहूदियों के बारे में भी सवाल किए गए. हर दस में से एक व्यक्ति ने कहा कि यहूदियों का आज भी समाज पर बड़ा प्रभाव है और उन्हें यहूदियों में कुछ "अजीब" लगता है जिसके कारण उनका मानना है कि वे जर्मन समाज में ठीक से फिट नहीं बैठते. रिपोर्ट लिखने वालों का मानना है कि इस तरह के विचार रखने वालों की असल संख्या इससे ज्यादा हो सकती है लेकिन अधिकतर लोग खुल कर यहूदियों के खिलाफ बोल नहीं पाते हैं क्योंकि जर्मनी के इतिहास के मद्देनजर इसी स्वीकारा नहीं जाता है.
ऑलिवर डेकर का कहना है कि पिछले कुछ दशकों में देश में हुए आर्थिक सुधारों का असर सभी लोगों तक बराबरी से नहीं पहुंचा है, ऐसे में वे अकसर अपना गुस्सा विदेशियों पर निकाल देते हैं. डेकर कहते हैं कि लोगों के बीच इस तरह की भावनाओं का होना लोकतंत्र के लिए खतरनाक साबित हो सकता है. हालांकि सर्वे में 90 फीसदी लोगों ने लोकतंत्र में विश्वास दिखाया लेकिन डेकर के अनुसार सभी के लिए लोकतंत्र की परिभाषा अलग है, "बहुत से लोगों को लगता है कि लोकतंत्र कोई ऐसी चीज है जो तानाशाही के साथ भी चल सकती है. उन्हें लगता है कि लोकतंत्र में कुछ लोगों या समूहों के हकों को इसलिए छीना जा सकता है ताकि अधिकांश लोगों के हितों को सुरक्षित रखा जा सके."
डेकर का कहना है कि अगर इस तरह की सोच सरकार तक भी पहुंच जाती है, तो लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए नेता ही लोकतंत्र के लिए खतरा बन जाएंगे. करीब आठ फीसदी लोगों का कहना था कि कुछ परिस्थितियों में तानाशाही बेहतर होगी और 11 फीसदी ने कहा कि उन्हें एक ऐसा नेता चाहिए जो "सख्ती से शासन चलाए".
शोध ने पाया कि उग्र दक्षिणपंथ को बढ़ावा देने वाली पार्टी एएफडी को वोट देने वालों में आधे से ज्यादा विदेशी विरोधी और 13 फीसदी लोकतंत्र विरोधी हैं. डेकर कहते हैं, "दुर्भाग्यवश 40 फीसदी लोग निरंकुश सामाजिक ढांचे की पैरवी कर रहे हैं. और यही वजह है कि हम समाज का साफ तौर पर ध्रुवीकरण होते हुए देख रहे हैं."
रिपोर्ट: हेलेना बेयर्स/आईबी
भारत के 55 फीसदी लोगों को पसंद है तानाशाही