जलते टायरों के साथ भारत में जल रहा है बहुत कुछ
१८ अक्टूबर २०१९ज्यादा वक्त नहीं बीता जब दिल्ली से करीब 70 किलोमीटर दूर नबीपुर उत्तर भारत का एक सामान्य सा गांव था जहां बस खेतीबाड़ी ही होती थी. अब यहां कम से कम दर्जन भर भट्टियां लग गई हैं जिनमें टायरों को जला कर ताप अपघटन (पाइरोलिसिस) के जरिए एक निचले दर्जे का तेल बनाया जाता है. ज्यादातर भट्टियां रात को जलाई जाती हैं ताकि कोई टोकाटाकी ना कर सके. यहां ना तो मजदूरों के लिए सुरक्षा के साधन हैं ना ही आसपास के इलाकों में रहने वालों की. स्थानीय लोगों का कहना है कि भट्टियों के शुरू होने के बाद से सांस की दिक्कतें बढ़ गई हैं और हर जगह मिट्टी में काले काले कण नजर आते हैं.
बीते पांच सालों में खराब टायरों का वैश्विक कारोबार करीब दोगुना हो गया है. संयुक्त राष्ट्र से मिले आंकड़ों के मुताबिक ये टायर मुख्य रूप से भारत और मलेशिया जैसे विकासशील देशों को बेचे जाते हैं. टायर बेचने वालों में सबे बड़ा नाम ब्रिटेन का है जिसके बाद इटली और अमेरिका की बारी आती है. भारत फिलहाल इन पुराने टायरों का सबसे बड़ा खरीदार है. बीते साल भारत ने पुराने टायरों में से 32 फीसदी का आयात किया जो एक साल पहले के आंकड़ों की तुलना में करीब 7 फीसदी ज्यादा है.
बहुत से टायरों को रिसाइकिल के लिए भेजा जाता है. जहां उत्सर्जन और कचरा निपटाने के नियमों का पालन होता है. हालांकि इसके अलावा पर्दे के पीछे भी एक बड़ा कारोबार चल रहा है जिसमें किसी नियम कानून का ध्यान नहीं रखा जाता है. इसी साल मई में दक्षिण मलेशिया के कुछ इलाकों में बड़े स्तर पर जहर फैलने की बात सामने आई थी और इसका संबंध पाइरोलिसिस करने वाली कंपनियों से जुड़ा था.
कई विकसित देशों के लिए खराब टायरों को दूसरे देश भेजना ज्यादा सस्ता है बजाय इसके कि उनका रिसाइकिल किया जाए. यही वजह है कि अंतराष्ट्रीय कारोबार में रबर के कचरे की मात्रा 2018 में 20 लाख टन तक पहुंच गई है. 2013 में यह आंकड़ा 11 लाख टन था. इस कारोबार की एक वजह भारत जैसे देशों में औद्योगिक भट्टियों के लिए ईंधन की मांग का बढ़ना भी है. सस्ते चीनी पाइरोलिसिस उपकरणों और दुनिया भर में इसे लेकर कमजोर कानूनों की वजह से भी इसमें तेजी आई है.
टायरों को बाजेल कंवेंशन के तहत नुकसानदेह नहीं माना गया है. यह कंवेंशन खतरनाक कचरे से जुड़े नियम बनाता है. इसमें खतरनाक कचरे का आयात करने वाले देश को इसके नुकसान के बारे में बताना जरूरी है. चीन और अमेरिका समेत ज्यादातर देशों में पुराने टायरों के अधिकांश हिस्से का निपटारा अपने ही घरेलू स्तर पर ही कर दिया जाता है. इसमें रिसाइकिल करने से लेकर, लैंडफिल एरिया में दबाने या फिर सीमेंट और कागज बनाने वाली फैक्ट्रियों में ईंधन के रूप में इस्तेमाल जैसे तरीके शामिल हैं.
पाइरोलिसिस का समर्थन करने वाले कहते हैं कि यह प्रक्रिया टायरों को निपटाने के लिए तुलनात्मक रूप से स्वच्छ है. इसमें टायर खत्म भी हो जाते हैं और उनसे उपयोगी ईंधन भी मिल जाता है. हालांकि उत्सर्जन को नियंत्रित करना और कई प्रकार के रसायनों के साथ ही कृत्रिम और प्राकृतिक रबर से बने टायरों को जलाने पर निकलने वाले कचरे को निपटाना एक महंगी प्रक्रिया है. बड़े पैमाने पर इसे मुनाफे का सौदा बनाना बेहद कठिन है. इस तरह के बढ़िया संयंत्रों की कीमत करोड़ों डॉलर है जबकि चीन में बने साधारण पाइरोलिसिस उपकरण ऑनलाइन दुकानों पर 30,000 डॉलर तक में खरीदे जा सकते हैं.
भारत सरकार के ऑडिट में पता चला कि जुलाई 2019 तक पूरे देश में 637 लाइसेंसी पाइरोलिसिस प्लांट चल रहे हैं. इनमें से 270 पर्यावरण से जुड़े मानकों का पालन नहीं कर रहे थे और 116 को बंद करना पड़ा है. ऑडिट में बताया गया कि ज्यादातर ऑपरेटर बिल्कुल साधारण उपकरणों का इस्तेमाल कर रहे हैं जिसमें मजदूर कार्बन कणों के संपर्क में आते हैं और इस प्लांट से निकलने वाला धुआं, धूल और तेल आसपास के इलाकों में फैलता है. उद्योग से जुड़े सूत्रों का कहना है कि सैकड़ों गैर लाइसेंसी पाइरोलिसिस संयंत्र भी पूरे देश में चल रहे हैं.
दक्षिण मलेशिया के जोहोर में भी पिछले दशक में कई पाइरोलिसिस संयंत्र शुरू हो गए हैं. यहां ये संयंत्र जहाजों के लिए ईंधन की सप्लाई करते हैं. कुलाई के पास जोहोर में समाचार एजेंसी रॉयटर्स की एक टीम गई थी. वहां उन्हें कार्बन की धूल में सने बांग्लादेशी आप्रवासी ऑस्ट्रेलिया और सिंगापुर से आए टायर को टुकड़ों में तोड़ कर चीनी भट्टी में डाल कर जलाते दिखे. ये लोग भट्टी के पास ही बनी झोपड़ियों में रहते भी हैं.
पाइरोलिसिस के कारण भारत और मलेशिया जेसे देशों में पर्यावरण पर जो असर हो रहा है उस पर टायर का निर्यात करने वाले देशों को ही ध्यान देना होगा. ऑस्ट्रेलिया ने इस साल कहा है कि वह भारत और दूसरे एशियाई देशों को टायर समेत सभी कचरे का निर्यात बंद करेगा. हालांकि इसके लिए उसने कोई समय सीमा नहीं बताई है. ऑस्ट्रेलिया का कहना है कि उसे कचरा निपटाने की खराब प्रक्रियाओं के बारे में पता चला है और इसलिए उसने यह फैसला किया है.
टायरों को पर्याप्त उत्सर्जन नियंत्रण के बगैर चलाने से कई प्रकार के जहरीले रसायन और गैस पर्यावरण में घुल सकते है. भारत में स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों पर रिसर्च करने वाली एक संस्था के प्रमुख ललित डांडाना का कहना है कि इस धुएं की चपेट में आने से शुरु में त्वचा में जलन और फेफड़ों में संक्रमण होता है. हालांकि अगर लंबे समय तक इसके संपर्क में रहें तो यह दिल का दौरा और फेफड़े के कैंसर का रूप ले सकता है. अमेरिकी पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी ईपीए ने भी इसी तरह की बात कही है. 1997 में इपीए ने एक रिपोर्ट जारी की थी जिसमें कहा गया था कि टायरों को जलाने से डायोक्सिन, सल्फर ऑक्साइड और मर्करी, आर्सेनिक समेत कई तरह के धातुओं का उत्सर्जन होता है.
भारत पहुंचने वाले टायरों में बड़ी हिस्सेदारी ब्रिटेन से आने वाले टायरों की है. 2018 में केवल ब्रिटेन से भारत ने करीब 263,000 टन टायर का आयात किया जो पूरी दुनिया में होने वाले पुराने टायर के कारोबार का करीब 13 फीसदी है. 2013 में यह आंकड़ा महज 48,000 टन था.
ज्यादातर यूरोपीय देश टायर बनाने वालों और सप्लाई करने वालों के लिए टायर को वापस लेना और उनका निपटारा जरूरी बनाते हैं. मतलब कि इन देशों में ज्यादातर रिसाइक्लिंग का काम घरेलू स्तर पर होता है. ब्रिटेन में ऐसी कोई बाध्यता नहीं है. इसका नतीजा यह है कि छोटी छोटी कंपनियां आसानी से पुराने टायर जमा करने का लाइसेंस ले लेती हैं और उन्हें फिर विदेशों में भेज देती हैं. ब्रिटेन के पर्यावरण, भोजन और ग्रामीण मामलों के विभाग का कहना है कि वह टायर बनाने वालों को पुराने टायर के लिए जिम्मेदार बनाने के साथ ही यहां से भेजे जाने वाले टायरों पर निगरानी बढ़ाने की योजना बना रहा है.
भारत में पहले टायरों को रिसाइकिल करने वालों को दिया जाता था. जो उनके छोटे छोटे टुकड़े कर सड़क बनाने या फिर खेल के मैदान बनाने वालों के देते थे या फिर उन्हें सीमेंट या ईंट की फैक्ट्रियों में दे देते थे. भारत के ऑटोमोटिव टायर मैन्यूफैक्चरर्स एसोसिएशन के उप निदेशक विनय विजयर्गीय का कहना है कि अब ज्यादातर आयातित पुराने टायर पाइरोलिसिस संयंत्रों में ही जाते हैं.
पर्यावरण समूहों और आस पास रहने वाले लोगों की नाराजगी को देखते हुए भारत बेहद उन्नत संयंत्रों को छोड़ कर पाइरोलिसिस के संयंत्रों पर रोक लगाने पर विचार कर रहा है. देश की पर्यावरण अदालत इस बारे में अगले साल जनवरी को रोक लगा सकती है.
एनआर/एमजे (रॉयटर्स)
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