जासूसी से बढ़ता वर्चस्व
१ अगस्त २०१३अमेरिका की राष्ट्रीय जांच एजेंसी एनएसए के कर्मचारी एडवर्ड स्नोडन ने जब खुलासा किया कि अमेरिका फोन और ईमेल पर निगरानी रख रहा है तो जर्मनी का नाम भी उन देशों में था जहां लोगों के ईमेल और इंटरनेट की जांच हुई. जर्मनी में लोगों को अब लग रहा है कि चांसलर अंगेला मैर्केल के दफ्तर को इसके बारे में जानकारी जरूर रही होगी. राष्ट्रपति योआखिम गाउक ने इसे लेकर चिंता जताई है कि इससे निजी जानकारी को सुरक्षित रखने और अभिव्यक्ति की आजादी पर असर पड़ेगा.
यह यारी पुरानी है
लेकिन जर्मन और अमेरिकी सरकारों की मिलीभगत नई बात नहीं है. जर्मनी में संपर्क सेवाओं पर निगरानी पर किताब "ऊबरवाख्टेस डॉयचलांड" (जर्मनी की निगरानी) लिखने वाले इतिहासकार योसेफ फोशपोथ कहते हैं कि इस बात से उन्हें कोई हैरानी नहीं हुई है, "नहीं, ज्यादा नहीं. मैं प्रतिक्रिया पर हैरान था, खासकर नेताओं की प्रतिक्रिया को देखकर." वह कहते हैं कि जर्मन इतिहास में ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है. उन्होंने रिसर्च में पता किया है कि ऐसा पहले सैकड़ों बार हो चुका है. पहले यह छिप छिपाकर होता था और इस बार स्नोडन की मेहरबानी से यह बाहर निकल गया है.
जर्मनी पर निगरानी रखने में अमेरिकी भूमिका समझने के लिए दूसरे विश्व युद्ध के बाद जर्मनी के हालात पर नजर डालनी होगी. फोशेपोथ बताते हैं, "उस वक्त दूसरे विश्व युद्ध को जीतने वाले देश जर्मनी पहुंचे और उस पर नियंत्रण कर लिया. वह चाहते थे कि नाजी शासन के दौरान जो भी हुआ, वह दोहराया नहीं जाए." जर्मनी का पश्चिमी हिस्सा फ्रांस, ब्रिटेन और अमेरिका के हाथों में था, जबकि पूर्वी हिस्से पर रूस ने हक जमाया. इसके बाद शीत युद्ध शुरू हो गया और अमेरिका को नई रणनीति बनानी पड़ी. फोशेपोथ के मुताबिक संघर्ष के दो पहलू थे, अमेरिका एक तरफ से सोवियत रूस को दबाना चाहता था लेकिन दूसरी तरफ जर्मनी को भी. इसका एक बड़ा हिस्सा था संपर्क पर निगरानी रखना.
क्या है दीवार के पीछे
पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी को बांटने के बाद पश्चिमी हिस्से पर अमेरिका का वर्चस्व था. पूर्वी हिस्से में रूस ने बर्लिन को बांटने वाली दीवार भी खड़ी कर दी. यह दीवार एक तरह से पश्चिमी पूंजीवादी जगत को पूर्वी यूरोप यानी साम्यवादी देशों से अलग करता था. दोनों जर्मन राष्ट्र इस वजह से शीत युद्ध में अहम पड़ाव बन गए. यहीं से वैश्विक रणनीति तय होती थी. 1955 में फिर अमेरिका ने पश्चिमी जर्मनी के साथ एक समझौता किया जिसके मुताबिक जर्मनी को एक स्वायत्त देश के सारे अधिकार दिए गए जो अपने भीतरी और बाहरी मुद्दों पर खुद फैसले ले सके.
फोशेपोथ का कहना है कि सुनने में तो यह समझौता बेहद अच्छा था लेकिन यह बातें प्रचार भर के लिए थीं, "1955 के समझौते में और कई शर्तें थीं. मित्र देशों ने अपने लिए कई अधिकार रखे, इनमें से टेलीफोन और डाक सेवाओं पर निगरानी रखना अहम था."
वर्चस्व बना रहे
वह कहते हैं कि अमेरिकी उस वक्त जर्मनी को खोना नहीं चाहते थे. पश्चिम जर्मनी के नेता अब सबको बोल सकते थे कि वह अमेरिकी नियंत्रण से आजाद हैं. लेकिन अमेरिका की सेना फिर भी जर्मनी में तैनात रही और उन्हें यहां खास अधिकार मिले. वह जर्मन सरकार पर भी नजर रख सकते थे. जर्मन एकीकरण के बाद भी इन समझौतों को बदला नहीं गया क्योंकि इसमें देर लगती.
बहरहाल, जर्मन चांसलर अंगेला मैर्केल इस बात पर जोर दे रही हैं कि जर्मनी ऐसा देश नहीं जहां संपर्क पर निगरानी रखी जाती है. लेकिन जैसा कि फोशेपोथ कहते हैं, "जर्मनी के पहले चांसलर कॉनराड आडेनाउअर ने 1955 में मित्र देशों को जर्मनी पर उनके अधिकार रखने दिए थे. यह जर्मन संविधान के खिलाफ था. टेलीफोन और डाक संपर्क पर निगरानी रखी गई और फिर जर्मनी और मित्र देशों की जटिल खुफिया सेवाओं का फैलाव हुआ."
तो अब क्या किया जा सकता है. फोशेपोथ कहते हैं कि एक रास्ता है कि सब कुछ वैसे ही रहने दिया जाए जैसे पहले था. लोगों की दिलचस्पी खत्म हो जाएगी, सारे आयोग भी खत्म कर दिए जाएंगे, कोई एक रिपोर्ट लिखेगा और बात खत्म हो जाएगी. लेकिन एक और रास्ता है, कि जनता का दबाव बना रहे और संसद चुनावों के बाद इस पर बहस हो कि जर्मनी वाकई कितना स्वायत्त है. इस पर एक सार्वजनिक बहस होनी चाहिए.
रिपोर्टः पेट्रा लांबेक/डीपीए/एमजी
संपादनः ए जमाल