जौ के जीन मैप से बढ़िया बीयर
२२ अक्टूबर २०१२वैज्ञानिकों के एक अंतरराष्ट्रीय समूह ने मिलकर जौ के पौधे के कुल 32,000 जीन का पता लगाया है. विज्ञान के लिए यह इसलिए भी बड़ी बात है क्योंकि जौ का जिनोम, यानी उसकी कोशिकाओं में सारे जीन मनुष्य के जिनोम से भी ज्यादा हैं. ऑस्ट्रेलिया में ऐडेलेड विश्वविद्यालय के वनस्पति वैज्ञानिक पीटर लैंगरिज कहते हैं, "लोगों को ज्यादातर इस बात का अहसास नहीं होता कि जौ का जीनोम मनुष्य के जीनोम से दोगुना है."
जौ के जीनोम में उसके बीजों के बारे में जटिल जानकारी, जैसे की गर्मी को बर्दाश्त करने की उसकी ताकत और सूखे से जूझने की क्षमता के बारे में जानकारी है. शोध से जौ के पौधों में बदलाव किए जा सकेंगे जिससे की पौधा बीमारियों से लड़ने में और सक्षम हो सकेगा और उसमें पोषण भी ज्यादा हो.
जौ दुनिया में उगाए जाने वाला चौथा सबसे बड़ा पौधा है. इसके जेनेटिक ढांचे को समझने से विश्व में भुखमरी और कुपोषण का भी सामना किया जा सकेगा. नेचर पत्रिका में प्रकाशित इस शोध का दावा है कि इससे बनी बीयर भी ज्यादा अच्छी होगी.
एक अनोखा जीनोम
जौ के जीनोम में पांच अरब मूल जोड़ियां यानी बेस पेयर हैं. यह हाइड्रोजन से बने रसायनों की जोड़ी होती है. इन्हें जोड़कर डीएनए बनता है जो किसी भी जीव की रचना के कोड जैसा होता है. इन पांच अरब जोड़ियों में से केवल एक या दो प्रतिशत प्रोटीन में बदलते हैं. जौ के जीनोम में बाकी जोड़ियों में डीएनए केवल दोहराया गया है. इसे पहले जंक डीएनए कहा जाता था, यानी कचरा डीएनए. लेकिन वैज्ञानिक अब भी जानने की कोशिश कर रहे हैं कि इसका असल काम क्या है.
जर्मनी में लाइबनिज इंस्टिट्यूट ऑफ प्लांट जेनेटिक्स एंड क्रॉप प्लांट रिसर्च के नील्स श्टाइन कहते हैं कि पहले जिसे कचरा डीएनए समझा जाता था, उसके बारे में आजकल माना जा रहा है कि वह जीनोम की स्थिरता, उसके ढांचे और उसके काम में अहम योगदान देता है. एडेलेड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर लैंगरिज कहते हैं कि पौधों में बहुत सारे जीन्स चाहिए होते हैं क्योंकि उनके पास खुद की सुरक्षा का और पर्यावरण से बाहर निकलने का विकल्प नहीं होता. उनका कहना है कि पौधों के पास अपनी जेनेटिक जानकारी का एक बैंक होता है और अगर उन्हें बदलते पर्यावरण के साथ बदलना पड़े, तो यह उनके काम आता है.
बीयर को बढ़ावा
कोपनहेगन में कार्ल्सबर्ग लैबोरेटरी के शोधकर्ता जौ के पर्यावरण के अनुकूल होने की क्षमता की जांच कर रहे हैं. यह लैबोरेटरी कार्ल्सबर्ग कंपनी की है जो विश्व की चौथी सबसे बड़ी बीयर कंपनी है. कोपनहेगन की लैबोरेटरी में वैज्ञानिक मैट्स हैंसन कहते हैं कि यह शोध मील का पत्थर है. कंपनी के शोध में पता किया जा रहा है कि जौ को अलग अलग मौसम वाले इलाकों में कैसे उगाया जा सकता है. साथ ही बीयर के लिए और बेहतर जौ बनाने की कोशिश की जा रही है. वैज्ञानिक इसके लिए ऐसा जौ उगाना चाहते हैं जिसमें स्टार्च ज्यादा हो और प्रोटीन कम.
जौ के जीनोम का पता लगाने में जर्मन वैज्ञानिकों का बड़ा हाथ है. जर्मनी अपने 500 साल पुराने बीयर कानून के लिए भी जाना जाता है. बीयर में केवल जौ के फूल और खमीर डाला जा सकता है. लेकिन बढ़ती प्रतियोगिता की वजह से जर्मन बीयर बाजार को परेशानी हो रही हैं. ब्रूइंग बार्ली एसोसिएशन के वाल्टर कोएनिग कहते हैं कि अगर ज्यादा अच्छी जौ की पैदाइश हो सके तो इससे बीयर निर्माताओं को फायदा हो सकता है.
लेकिन शोध का असली फादा खाद्य सुरक्षा लाने में होगा. एडिलेड के वैज्ञानिक लैंगरिज कहते हैं कि जौ विश्व के कई इलाकों में खाने का अहम हिस्सा है. धान, मक्का और आटे के बाद जौ सबसे ज्यादा खाया जाता है और इसे गर्म इलाकों से लेकर उत्तरी ध्रुव के कुछ जगहों में भी उगाया जा सकता है. साथ ही लाइबनिज इंस्टिट्यूट के श्टाइन कहते हैं कि जौ का पौधा गेहूं के पौधे जैसा होता है और जौ में शोध के नतीजों को गेहूं की खेती में भी लगाया जा सकता है. लैंगरिज का मानना है कि बीमारियों को रोकने वाली डिएनए को भी दोबारा सक्रिय किया जा सकता है.
हालांकि गेहूं के मुकाबले जौ को लोग कम मानते हैं. लैंगरिज का कहना है, "लोग मिलकर बैठते हैं और बीयर पीते हैं, बहस करते हैं. बीयर बौद्धिकता के लिए अच्छी है."
रिपोर्टः सोन्या आंगेलिका डीन/एमजी
संपादनः आभा मोंढे