तालिबान हैं पाकिस्तानी तुरुप का पत्ता
१८ जून २०१०जानते सभी हैं, लेकिन मुँह कम ही खोलते हैं. यही कि तालिबान की असली ताक़त आज भी पाकिस्तानी गुप्तचर सेवा आईएसआई है. पाकिस्तान को नाराज़ नहीं करना है, इसलिए इसे खुल कर नहीं कहा जाता. लेकिन, अफ़ग़ानिस्तान के हेलमंद प्रदेश में एक हेलीकॉप्टर को मार गिराने और कंदहार प्रदेश में आत्मघाती हमले द्वारा बच्चों और महिलाओं सहित 50 से अधिक लोगों की हत्या के बाद जर्मन दैनिक वेल्ट ने लिखाः
"पड़ोसी पाकिस्तान से मिल रही व्यापक मदद के बल पर विद्रोही अपने आप को बड़े जुझारु सिद्ध कर रहे हैं. लंदन स्कूल ऑफ़ इकनॉमिक्स की एक छानबीन से सामने आया है कि पाकिस्तानी गुप्तचर सेवा आईएसआई तालिबान की उससे कहीं ज़्यादा और व्यापक मदद कर रही है, जितना अब तक पता था. आईएसआई से इन विद्रोहियों को पैसा और हथियार तो मिलता ही है, सुरक्षा और संरक्षण भी मिलता है. छानबीन करने वालों ने निष्कर्ष निकाला है कि यहां तक कि इन विद्रोहियों के रणनितिक निर्णयों पर में भी पाकिस्तानी गुप्तचर सेवा का भारी दखल रहता है."
गहरी मिलीभगत
म्यूनिक के ज़्युइडडोएचे त्साइटुंग ने भी लिखा कि तालिबान और आईएसआई की मिलीभगत उससे कहीं गहरी है, जितना अब तक समझा जाता था. तालिबान को पाकिस्तानी पैसों और हथियारों से लेकर रसदपूर्ति तक हर तरह की मदद मिलती हैः
"निष्पक्ष पाकिस्तानी विशेषज्ञों का मानना है कि पाकिस्तानी सेना विद्रोहियों के केवल उस हिस्से से लड़ रही है, जिसने पाकिस्तान के ही ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ दिया है. नाम नहीं बताने की शर्त पर एक सुरक्षा विशेषज्ञ ने कहा, सेना और गुप्तचर सेवा की नज़र से अफ़ग़ान तालिबान सामरिक तुरुप का पत्ता हैं. तालिबान के असली बड़े नेता अब भी पाकिस्तान में ही रहते हैं. पाकिस्तानी सेना चाहती है कि अफ़ग़ानिस्तान का भावी सत्तातंत्र उसकी मनमर्ज़ी के अनुसार ही बने. इस विशेषज्ञ का कहना है कि पाकिस्तान की इस सोच में तालिबान का केंद्रीय स्थान है.... गुमनाम रहने की ही शर्त पर आईएसआई के आदमी ने कहा, हमसे यदि कहा जाये, तो हम इस तरह के संपर्क जोड़ सकते हैं."
मुशर्रफ़ की पार्टी
पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ पाकिस्तानी राजनीति में लौटने की बात कह ही चुके हैं. अब पाकिस्तान में उनके भक्तों और समर्थकों ने अखिल पाकिस्तान मुस्लिम लीग नाम से एक नयी पार्टी भी बनाली है और उनकी स्वदेश वापसी के लिए मैदान तैयार कर रहे हैं. स्विट्ज़रलैंड के जर्मन दैनिक नोए त्स्युइरिशर त्साइटुंग का कहना है कि यह लोग वास्तविकता से अब भी कोसों दूर हैं:
"सेना और राजनीति में 66 वर्षीय मुशर्रफ़ के अब शायद ही कोई समर्थक हैं. उनकी अलोकप्रियता को देखते हुए स्वयं उनके पुराने संगी-साथी भी उन से दूर ही रहना चाहते हैं. इस्लामी अतिवादी उन्हें मार डालना चाहते हैं. देशद्रोह के आरोप सहित अनेक केस-मुकदमे अदालतों में हैं. इसीलिए राजनीति में लौटने की उनकी घोषणा को शुरू में किसी ने गंभीरता से लिया भी नहीं. सभी यही मान रहे थे कि वे भला ऐसे देश में क्यों लौटना चाहेंगे, जहां, सबसे अनुकूल स्थिति में उन्हें जेल की सज़ा और प्रतिकूल स्थिति में मौत का सामना करना पड़ सकता है...मुशर्रफ़ इस समय अपने देश में सबसे घृणित आदमी हैं."
शांतिदूत अंबानी भाई
अब भारत की कुछ बातें. जब से एशिया के दो सबसे धनी भाइयों-- अनिल और मुकेश अंबानी-- के बीच सुलह-सफ़ाई हो गयी है, तब से दोनो के बीच एक-दूसरे के कार्यक्षेत्र में निवेश करने की होड़ भी चल पड़ी है. जर्मन दैनिक फ्रांकफ़ुर्टर अल्गेमाइने त्साइटुंग का मत हैः
"दोनो भाइयों के बीच चला दुश्मनी का ड्रामा किसी बॉलीवुड फ़िल्म की तरह वर्षों तक भारत की जनता का मनोरंजन करता रहा. अब वे किसी शांतिदूत की तर पंख फड़फड़ा रहे हैं. पिछले सप्ताह अनिल अंबानी ने दो अरब 12 करोड़ डॉलर वज़नी मानहानि का अपना मुकदमा वापस ले लिया. अब अफ़वाहें हैं कि दोनो के परिवार अफ्रीका में साथ-साथ छुट्टियां मनायेंगे. उनके दौरान वे अपने कारोबारी साम्राज्यों की शक्ति एकजुट करने के बारे में भी बातें करेंगे. इससे उनके प्रतिस्पर्धियों के कान खड़े हो जाने चाहिये. दोनो की कंपनियों के शेयरों के भावों ने दोहरे अंकों की छलांग लगायी."
हत्या मानरक्षा के निए
भारत में, विशेषकर हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश में इज़्ज़त बचाने के नाम पर हत्या का अब भी काफ़ी प्रचलन है, कहना है स्विट्ज़रलैंड के नोए त्स्युइरिशर त्साइटुंग काः
"कई बार गांव के पंच ऐसी हत्याओं का समर्थन करते हैं या कम से कम उन पर उंगली नहीं उठाते. लंबे समय तक इस विषय पर चुप्पी साध ली जाती थी, लेकिन आजकल भारत के मीडिया उन्हें काफ़ी उछालने लगे हैं. दिल्ली में हुई ऐसी कुछेक हत्याओं को काफ़ी प्रचार मिला. समाजशास्त्रियों का मत है कि घर-परिवार की इज़्ज़त बचाने के नाम पर होने वाली हत्याओं के बढ़ जाने के पीछे महानगरीय जीवनशैली और रूढ़िवादी परंपराओं के बीच टकराव मुख्य कारण है. अब तक परिवार के बड़े-बूढ़े सारे निर्णय लिया करते थे, लेकिन अब पढ़े-लिखे युवा भारतीय महत्वपूर्ण निर्णय स्वयं लेना चाहते हैं."
संकलन- अना लेमान / राम यादव
संपादन- उज्ज्वल भट्टाचार्य