तुर्की का सैन्य साहस एर्दोवान कब तक दिखाते रहेंगे
१ जनवरी २०२१घरेलू मोर्चे पर आर्थिक मुश्किलों और पश्चिमी देशों से तनातनी के बीच भी तुर्क राष्ट्रपति रेचप तैयप एर्दोवान किसी तरह दुनिया के सबसे कड़े सैन्य संघर्षों में अपनी सेना भेजने की महत्वाकांक्षा पूरी कर ले रहे हैं. सोमालिया और कतर में सैन्य अड्डे तो सीरिया और लीबिया में सीधे युद्ध में शामिल तुर्की की सेना फिलहाल दुनिया के कम से कम 12 देशों में मौजूद है. तुर्की दक्षिणी कॉकेशस के इलाके में विवादित नागोर्नो कारबाख में भी अपनी शांति सेना भेजने जा रहा है. इसके अलावा तुर्की की नौसेना पूर्वी भूमध्यसागर के विवादित तेल और गैस क्षेत्र की निगरानी कर रही है. इसकी वजह से उस पर यूरोपीय संघ का विरोध और ग्रीस, साइप्रस और फ्रेंच सैनिकों से संघर्ष का भी खतरा मंडरा रहा है.
यह सब कुछ 2016 के नाकाम सैन्य तख्तापलट के साए में ही चल रहा है जब हजारों अनुभवी सैनिकों की सेना से छुट्टी कर दी गई. तो आखिर एर्दोवान किस वजह से सैन्य दुस्साहसों को जारी रखे हुए हैं? इस सवाल का जवाब कुछ हद तक देश में उभरते राष्ट्रवाद में छिपा है. ये वो ट्रंपकार्ड है जिसके दम पर बीते सत्रह सालों में एर्दोवान ने घरेलू राजनीतिक लाभ कमाना सीख लिया है.
एर्दोवान का अस्तित्व और सेना
वॉशिंगटन इंस्टीट्यूट फॉर नियर ईस्ट पॉलिसी में तुर्क रिसर्च प्रोग्राम के निदेशक सोनार कागाप्ते कहते हैं, "एर्दोवान ने वो युद्ध नहीं शुरू किए जिसमें वो फिलहाल शामिल हैं बल्कि वह अपना अस्तित्व और तुर्की की सीमा पर सुरक्षा की चिंताओं को आपस में जोड़ रहे हैं. कागाप्ते बताते हैं, "बहुत से तुर्क इस नई विदेश नीति से अभिभूत हैं जो तुर्की को उसकी सीमाओं से आगे ले जा रही है. तो इन सारे विदेशी मामलों में झगड़ालू रुख से एर्दोवान अपने घरेलू समर्थकों को संतुलित कर रहे हैं जो नौकरी जाने, क्रय शक्ति घटने और महंगाई की ऊंची दर से परेशान हैं.
वैश्विक महामारी के दौर में आर्थिक समस्याएं आसमान पर हैं, तुर्की की मुद्रा लीरा 2020 की शुरुआत से अब तक अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 30 फीसदी कीमत खो चुकी है लेकिन फिर भी एर्दोवान का जादू उनके देश में कायम है. विश्लेषकों को कहना है कि तुर्की भले ही आर्थिक रूप से पूरी तरह संकट में ना घिरा हो लेकिन धीमा विकास और बढ़ती बेरोजगारी का उस पर आने वाले दिनों में असर होगा. आर्थिक रूप से कमजोरी के अलावा एर्दोवान के सैन्य अभियानों के लिए एक बड़ा खतरा तुर्की की अमेरिका और जर्मनी में बने हथियारों पर निर्भरता भी होगी.
रक्षा मामलों से जुड़े एक सूत्र ने समाचार एजेंसी डीपीए को बताया कि तुर्की की वायु सेना का पूरा हमलावर दस्ता या तो अमेरिका में बना है या फिर अमेरिका से आने वाले पुर्जों पर चलता है. इसी बीच तुर्की के आधे से ज्यादा टैंक और नौसेना के आधे से ज्यादा दस्ते भी अमेरिका में बने हैं और बाकी आधे का संबंध जर्मनी से है.
रक्षा उत्पादों में आत्मनिर्भरता
एर्दोवान अकसर स्थानीय फर्मों को तुर्की में रक्षा निवेश बढ़ाने का आग्रह करते रहे हैं. हालांकि इन कोशिशों में घरेलू हथियार बनाने वालों की विदेशी पुर्जों पर निर्भरता भारी पड़ जाती है. यह जानते हुए भी और पश्चिम के साथ रिश्तों में आए तनाव को देखते हुए तुर्की अब अपने लिए रक्षा उपकरण खुद तैयार करने की कोशिश में है. इनमें सबसे प्रमुख है बेहद उन्नत टीबी2 ड्रोन. इस्तांबुल के थिंक टैंक ईडीएएम के निदेशक जान कारापोग्लु बताते हैं, "तुर्क सेना को ड्रोन में पारंगत करने से सीमा पार की कार्रवाइयों के लिए मजबूती आ गई है. ये किफायती हैं, नुकसान को घटाते हैं और पैसा वसूल हैं. इसके साथ ही यह निर्यात के लिए भी बढ़िया है."
रक्षा विशेषज्ञ हाकान किलिज कहते हैं, "तुर्की के बायराक्तार टीबी2 ड्रोन ने इस साल सीरिया, लीबिया और नागोर्नो काराबाख में सफल अभियान पूरे कर दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा." टीबी2 ड्रोन की कीमत के बारे में किलीज का अनुमान है कि 27 घंटे उड़ान भरने में सक्षम ड्रोन की कीमत करीब 70 लाख डॉलर है. यह एक आधुनिक एफ-16 लड़ाकू विमान की कीमत का मात्र दसवां हिस्सा है. जबकि एफ 16 लड़ाकू विमान औसतन महज तीन घंटे के लिए ही उड़ान भर सकता है.
कासापोग्लू का कहना है कि एर्दोवान की सैन्य महत्वाकांक्षाओं पर तुलनात्मक रूप से नरम ही सही लेकिन अमेरिकी प्रतिबंधों का बुरा असर हुआ है. ये प्रतिबंध 2017 के सीएएटीएसए एक्ट के तहत रूस से एस 4000 एयर डिफेंस सिस्टम खरीदने की प्रतिक्रिया में लगाए गए और यह रक्षा क्षेत्र में तुर्की की क्रय शक्ति पर बुरा असर डाल सकता है. अमेरिका एफ-35 विमान संयुक्त रूप से बनाने के कार्यक्रम को स्थगित कर पहले ही तुर्की की हवाई हमलों की क्षमता बढ़ाने की कोशिशों को बड़ा झटका दे चुका है. किलीज के मुताबिक इसकी वजह से तुर्की के 10 कांट्रैक्टरों को 12 अरब डॉलर की चपत लगी है.
उम्मीद की किरण बाइडेन
हालांकि तुर्की के लिए अभी उम्मीद की एक किरण अमेरिका के निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन के रूप में बची हुई है. माना जा रहा है कि वो सीरिया और लीबिया में तुर्की का समर्थन करने के साथ ही दक्षिणी कॉकेशस में शांति की कोशिशों के लिए भी साथ देंगे. राजनीतिक विश्लेषक कागाप्ते कहते हैं, "मुझे लगता है कि अमेरिकी सेना इस बात को पसंद करती है कि तुर्की ने इन देशों के ज्यादातर हिस्से को मुख्य रूप से रूसी नियंत्रण में जाने से रोका है." इसके साथ ही कागाप्ते ने यह भी कहा कि एर्दोवान का रूसी राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन के साथ "टिकाऊ रिश्ता" भी उन्हें संकट के प्रमुख इलाकों में सक्रिय रहने का मौका दे रहा है. हालांकि वो सावधान भी करते हैं कि रूस पर मध्यम अवधि के लिए निर्भरता बोझ बन सकती है.
कासापोग्लु एक और अहम बात बताते हैं कि तुर्की देश के बाहर रणनीतिक रूप से अग्रिम मोर्चे पर सेना की तैनाती के बारे में कोई वचन देने में सावधानी रख रहा है और ज्यादातर सहयोगी की भूमिका में ही सामने आ रहा है. इस चतुराई वाली दूरदृष्टि और वैश्विक स्तर पर अमेरिकी नेतृत्व में परिवर्तन का मतलब हो सकता है कि एर्दोवान का सैन्य साहस कुछ और समय के लिए जारी रहे.
एनआर/एमजे (डीपीए)
__________________________
हमसे जुड़ें: Facebook | Twitter | YouTube | GooglePlay | AppStore