दम तोड़ रही हैं उम्मीदें
१३ अक्टूबर २०१५इससे छह दिन पहले 20 मई को जब भारत के मनोनीत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद की सीढ़ियों पर सिर झुकाकर उस महान परंपरा को प्रणाम किया था जिसकी बुनियाद गांधी और नेहरू ने रखी थी तो थोड़ी उम्मीद जगी थी. ये उम्मीद सिर्फ इस बात के लिए थी कि मोदी के लिए जो कहा जा रहा है उसे वे आगे चलकर गलत साबित करेंगे. इस उम्मीद को थोड़ी और ताकत उनके उन भाषणों से भी मिली जिसमें वे अक्सर कहा करते हैं कि सवा सौ करोड़ देशवासियों को साथ लेकर चलना है, कि सामान्य मानव के जीवन में बदलाव लाना है, कि अब सबका साथ सबका विकास होगा. लेकिन अफसोस कि उम्मीद का पौधा बड़ा होने से पहले ही मुरझा गया. उम्मीद का पौधा थपेड़े पर थपेड़े खाता रहा और मोदी बड़ी चतुराई से, पैसा खर्चा करके बनाई गई अपनी ही ‘विकास' पुरुष की छवि से जड़बद्ध होते रहे.
वे या तो बेलगाम हो चुके हिंसक हिंदूवादी संगठनों को काबू करने लायक बचे ही नहीं है या फिर वे करना नहीं चाहते. मोदी जैसे मजबूत शख्सियत के व्यक्ति के लिए दूसरी बात ज्यादा सही साबित होती है. वर्ना क्या वजह है कि जो प्रधानमंत्री चौबीसों घंटे ट्विटर पर ऑनलाइन रहते हैं वे एक बुजुर्ग अल्पसंख्यक की भीड़ द्वारा हत्या जैसे मामले में चुप्पी साध जाएं? कितना निर्मम, वीभत्स और डरावना था वह सब! सिर्फ गोमांस रखने की अफवाह पर हिंदुओं की भीड़ ने दिल्ली के पास दादरी में एक बुजुर्ग मुसलमान के घर में घुसकर पीट-पीटकर मार डाला. भारत के किसी दूर दराज इलाके में यह घटना हुई होती तो खुद को झूठा दिलासा दिया जा सकता है लेकिन यहां राजधानी दिल्ली के ठीक बगल में. और जैसे यह ‘अंत' और अपमान काफी नहीं था. हत्या के बाद मोदी के संस्कृति मंत्री ने कहा कि यह हत्या नहीं ‘हादसा' था. मतलब कि यह सब कुछ यूं ही स्वत:स्फूर्त तरीके से हो गया. फिर लाउडस्पीकर पर किसने आवाज लगाई थी? लोगों को किसने इकट्ठा करके हमले के लिए उकसाया था? हत्या के आरोप में जिस स्थानीय बीजेपी नेता के बेटों को पकड़ा गया है उसके साथ संस्कृति मंत्री की तस्वीर कैसे आ गई? हिंदू रक्षक दल के लोग अचानक दादरी में कहां से सक्रिय हो गए थे?
सवाल यह नहीं है कि बतौर प्रधानमंत्री मोदी को प्रतिक्रिया देने के लिए बाध्य करने वाले हम कौन हैं? बल्कि यह है कि जब एक प्रधानमंत्री किसी मुद्दे पर अपनी राय रखता है या चेतावनी जारी करता है तो उसका दूसरा अर्थ होता है. दादरी हत्याकांड तो उन सिलसिलों का क्लाइमैक्स है जो मोदी के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही शुरू हो गए थे. अगर प्रधानमंत्री की हैसियत का इस्तेमाल करते हुए मोदी ने समय रहते ही घुड़की लगा दी होती तो शायद भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का ख्वाब देखने वाले फासीवादी दक्षिणपंथी संगठन कुछ सहम गए होते और हो सकता है कि दादरी में अखलाक नाम के अल्पसंख्यक की हत्या नहीं होती.
कितना अजीबोगरीब और एक हद तक शर्मनाक लगता है ये सब कि जो देश खुद को विकसित कहलाने का सपना देखता है, जो सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए दावेदारी पेश करना चाहता है और जो मुल्क अपनी कल्पना में अमेरिका बनना चाहता है, उस देश के राष्ट्रीय बहस में गोमांस, गोमूत्र और गोबर है. मोदी के मातृसंगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने बाकायदा एक बुकलेट निकालकर दावा किया है कि अगर घर की दीवारों पर गाय का गोबर चिपका दिया जाए तो परमाणु बम का भी असर नहीं होगा. आधुनिकता, तर्क और विज्ञान को बोगस साबित करती इन दलीलों को खारिज करने का जोखिम कौन उठाएगा?
कर्नाटक में हम्पी युनिवर्सिटी के कुलपति और जाने माने वामपंथी विचारक एम कलबुर्गी ने इन दलीलों को खारिज करने का जोखिम उठाया था. नतीजा क्या हुआ? उन्हें घर में घुसकर गोली मार दी गई. तमाम तरह के दबाव और विरोध प्रदर्शन के बाद पुलिस ने आखिरकार जिस भुवित शेट्टी नाम के शख्स को गिरफ्तार किया वो बजरंग दल का निकला. बजरंग दल वही संगठन है जिसका परिचय इंटरनेट पर भी मिलिटेंट (उग्र या आतंकी) हिंदूवादी संगठन के तौर पर मिलता है. और जिसका घोषित लक्ष्य है अयोध्या, मथुरा और काशी (जहां से पीएम मोदी सांसद हैं) में मौजूद मस्जिदों के बगल में क्रमश राम, कृष्ण और काशी विश्वनाथ के मंदिर का निर्माण कराना. (क्या मस्जिद गिराकर?)
प्रोफेसर कलबुर्गी इकलौते उदाहरण नहीं है. उनसे पहले उनके दोस्त कॉमरेड गोविंद पनसारे और उनसे भी पहले महाराषट्र के मशहूर तर्कशास्त्री और लेखक नरेंद्र दाभोलकर की गोली मारकर इसी तरीके से हत्या की गई थी? क्या ये महज संयोग है कि इन सारी हत्याओं के पीछे दक्षिणपंथी संगठनों से जुड़े लोगों के नाम आ रहे हैं? जो हश्र धार्मिक अल्पसंख्यक अखलाक का हुआ वही हश्र अलग सोच रखने वाली अल्पसंख्यक अस्मिताओं का भी हो रहा है.
एनडीटीवी के पत्रकार रवीश कुमार को इन्हीं दलीलों से लड़ने की सजा सोशल साइट्स से पलायन करके चुकानी पड़ी. याकूब मेमन की फांसी के बारे में लुंपेन राष्ट्रवादियों के उलट मैंने कुछ विचार रखे तो मेरा अकाउंट बंद करा दिया गया. इनबॉक्स में गालियां खाना जैसे आदत का हिस्सा बन चुका है. बाहर भी देख लेने की धमकी अक्सर मिलती रहती है. सवाल यह है कि एक इंसान के तौर पर हम कर क्या सकते हैं? खासतौर से उस वक्त में जब खुद को लोकतंत्र का चौथा खंभा कहलाने वाले मीडिया ने बेशर्म चुप्पी ओढ़ रखी हो. क्या पुरस्कार लौटा देना काफी है जैसा कि कई बड़े और दिग्गज साहित्यकारों ने किया? पंडित जवाहर लाल नेहरू की भतीजी नयनतारा सहगल से लेकर मलायली लेखिका सारा जोसेफ समेत उदय प्रकाश, कश्मीरी लेखक गुलाम नबी खयाल, अशोक वाजपेयी, अमन सेठी, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल अंग्रेजी लेखक के सच्चिदानंदन जैसों ने या तो अपने पुरस्कार लौटा दिए हैं या फिर साहित्य अकादमी की ‘चुप्पी' के लिए उससे संबंध तोड़ लिया है. बेशक यह प्रतिरोध तूफान के आगे किसी दिए को जलाने के दुस्साहस जैसा लगे लेकिन एक इंसान और एक बहुलतावादी देश के नागरिक के तौर पर यह बात हमें ढाढ़स की एक थपकी जरूर दे जाती है. भरोसे की सांस आती और फिर गुजर जाती है. लगने लगता है कि रात कितनी भी गहरी क्यों न हो, एक न एक वक्त उजियारा आता है.
ब्लॉग: विश्वदीपक