दवा कंपनियों के गिनिपिग अस्पताल
९ मई २०११पोलैंड का गोदीनगर ग्दांस्क अपने शिपयार्ड के लिए मशहूर है, हंगरी का पेच अपनी प्राचीन वास्तुकला के लिए. मेडिसिन के नक्शे पर इनका कोई खास महत्व नहीं है. लेकिन हाल में जब अस्त्राजेनेका पीएलसी कंपनी दिल के दौरे के मरीजों के लिये अपनी नई महंगी दवाई का प्रयोग कर रही थी, तो इन शहरों के अस्पतालों को चुना गया. एक रिसर्च से पता चला है कि परीक्षण के 18 हजार रोगियों में से 21 फीसदी पोलैंड और हंगरी के होते हैं, जबकि अमेरिका और कनाडा को मिलाकर सिर्फ इसके आधे रोगी ही मिलते हैं.
भूमंडलीकरण का असर
कुछ साल पहले स्थिति ऐसी नहीं थी. नई महंगी दवाइयों के पहले प्रयोग पश्चिम के विकसित देशों में होते थे. उस वक्त जर्मन कंपनी जर्मनी की होती थी, अमेरिकी कंपनी अमेरिका की. इस बीच भूमंडलीकरण का दौर आ चुका है, सारी कंपनियां सारी दुनिया की हैं, और सारी दुनिया सारी कंपनियों की है. इसलिये वे प्रयोग के लिये ऐसे देश चुनती हैं, जहां सस्ते में काम निपटाया जा सकता है. साथ ही उन्हें इन देशों में आसानी से ऐसे रोगी मिल जाते हैं, जिनका शरीर दूसरी दवाइयों से ठसा हुआ नहीं है. इसलिये नई दवाई का असर कहीं बेहतर ढंग से नापा जा सकता है.
अहम सवाल
हंगरी के पेच के विश्वविद्यालय में कार्डियोलॉजी के प्रधान डॉक्टर इवान होरवाथ कहते हैं, "पूर्वी यूरोप व एशिया में प्रयोगों में कहीं अधिक रोगियों को शामिल किया जाता है. इसके तीन कारण हैं. हमारे रोगियों को एक नई दवाई मिलती है, जो प्रयोग के स्तर पर मुफ्त होती है. वैज्ञानिक दृष्टि से यह हमारे लिये महत्वपूर्ण होता है. और हमें इसके पैसे भी मिलते हैं."
इस बीच परीक्षणों की आउटसोर्सिंग पर तीखे सवाल भी पेश किये जा रहे हैं. क्या इन परीक्षणों के नतीजों पर उतना भरोसा किया जा सकता है, जितना कि अमेरिकी या पश्चिम यूरोप के क्लिनिकों के परीक्षणों पर किया जा सकता था? क्या परीक्षणों के दौरान नैतिक मापदंडों का पूरा खयाल रखा जा रहा है? क्या इन देशों में किये गये परीक्षणों के परिणाम पश्चिम के देशों के रोगियों पर भी लागू होते हैं? इस तीसरे सवाल के संदर्भ में कहा जा सकता है कि ग्लोबल कंपनियों के लिये नई महंगी दवाइयों का बाजार अब सिर्फ पश्चिम में नहीं है, वह भी ग्लोबल हो चुका है.
रिपोर्ट: एजेंसियां/उभ
संपादन: वी कुमार