दिल्ली दंगों में कैसे मिली एक आरोपी को बेल
३ जून २०२०उत्तर-पूर्वी दिल्ली में फरवरी में हुए दंगों से संबंधित एक मामले में एक आरोपी को दिल्ली हाई कोर्ट ने जमानत पर रिहा कर दिया है. ये अपने आप में कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन जिस मामले में यह व्यक्ति आरोपी है और उसे दोषी सिद्ध करने के लिए दिल्ली पुलिस और सरकारी पक्ष ने जो सबूत, गवाह और दलीलें दी हैं, वो चौंकाने वाले हैं. जमानत की अर्जी मंजूर करते हुए हाई कोर्ट के जज की टिप्पणी ने इन सब की परतें खोल दीं.
मामला 24 फरवरी का है. मुस्तफाबाद के न्यू महालक्ष्मी एन्क्लेव में मिठाई की दुकान चलाने वाले मोहम्मद शाहनवाज की दुकान को 200-250 लोगों की एक भीड़ ने जला डाला था. शाहनवाज की जिस शिकायत पर दयालपुर थाने में इस मामले में एफआईआर दर्ज हुई उसमें उन्होंने किसी का भी नाम नहीं लिया. दिल्ली पुलिस ने एक महीने बाद इस मामले में दो लोगों को गिरफ्तार किया- मोहम्मद अनवर और फिरोज खान.
संदिग्ध गवाह, अविश्वसनीय सबूत
अनवर को निचली अदालत से पहले ही जमानत मिल चुकी है. फिरोज खान अभी तक जेल में थे क्योंकि दिल्ली पुलिस के कांस्टेबल विकास का दावा था कि वो खुद घटना के चश्मदीद गवाह थे और उन्होंने फिरोज को शाहनवाज की दुकान को जलाते हुए अपनी आंखों से देखा था. मामले में एक सीसीटीवी कैमरे की फुटेज को भी सबूत के तौर पर पेश किया गया.
कांस्टेबल विकास के चश्मदीद गवाह होने पर संदेह व्यक्त करते हुए, जस्टिस अनूप भंभानी ने कहा कि शाहनवाज ने अपनी शिकायत में ये लिखवाया है कि घटना के समय उन्होंने कई बार पुलिस को फोन किया लेकिन उन्हें पुलिस से कोई मदद नहीं मिली.
जज ने पूछा कि अगर कांस्टेबल विकास वाकई वहां मौजूद होते तो शाहनवाज को पुलिस को बार बार फोन कर के बुलाने की जरूरत क्यों पड़ती? शिकायतकर्ता के बयान और कांस्टेबल विकास के दावे में इस विसंगति की वजह से अदालत ने कांस्टेबल की गवाही को मानने से मना कर दिया.
रही बात सीसीटीवी फुटेज की, तो इस पर अदालत का कहना था कि फुटेज जिस स्कूल के बाहर लगे कैमरे की है वो शाहनवाज की दुकान से करीब 400 मीटर दूर सड़क के दूसरी तरफ स्थित है और इतनी दूर से कैमरा दुकान को देख सके ये अविश्वसनीय लगता है.
'सन्देश' की दलील
अदालत ने गवाह और सबूत के साथ आरोपी की हिरासत बरकरार रखने के लिए सरकार की तरफ से दी गई दलील को भी ठुकरा दिया. सरकार की दलील थी कि अगर मामले के इस शुरूआती चरण में ही आरोपी को जमानत दे दी गई तो इस से समाज में प्रतिकूल संदेश जाएगा क्योंकि इस तरह के जुर्म राष्ट्रीय राजधानी में होने नहीं दिए जा सकते हैं.
इस बिंदु को भी ठुकराते हुए, जस्टिस भंभानी ने कहा, "ये जमानत को ठुकराने का आधार नहीं हो सकता अगर अदालत को ये विश्वास है कि आरोपी को न्यायिक हिरासत में रखे रहने से जांच और अभियोजन में किसी भी तरह की मदद मिलेगी". उन्होंने यह भी कहा, "कारावास दोषियों को सजा देने के लिए होता है ना कि अंडरट्रायलों को बंद रख कर समाज को कोई 'संदेश' देने के लिए. अदालत का काम है कानून के मुताबिक न्याय करना, ना की समाज को 'संदेश' भेजना".
इस समस्या के व्यापक पहलु पर रोशनी डालते हुए अदालत ने कहा, "जब सरकारें इस तरह अंडरट्रायलों को बिना किसी वजह जेल में रखने की मांग करती हैं तो इसी वजह से जेलों में भीड़ बढ़ती है और अंडरट्रायलों को ये लगता है की उन्हें सुनवाई के पहले ही सजा दी जा रही है और सिस्टम उनके साथ अन्याय कर रहा है."
अदालत ने ये भी कहा, "अगर लंबी सुनवाई के बाद अभियोजन पक्ष दोष साबित ना कर पाए तो सरकार उस व्यक्ति के वो बहुमूल्य साल नहीं लौटा पाएगी जो उसने जेल में गंवा दिए."
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