पाकिस्तान में मुश्किलों से जूझते फिल्मकार
८ दिसम्बर २०२०उमर नफीस की पैदाइश और परवरिश लाहौर में हुई है और वह पाकिस्तान के युवा फिल्मकारों की युवा पीढ़ी से नाता रखते हैं. वह इसी ऐतिहासिक शहर के प्रतिष्ठित नेशनल कॉलेज ऑफ आर्ट्स में पढ़ते हैं. लाहौर के बारे में वह कहते हैं, "शहर के पुराने हिस्से में हर आदमी एक कहानी है, हर गली, हर कोने और हर मोड़ की एक कहानी है." वह कहते हैं, "एक फिल्मकार को और भला क्या चाहिए."
कभी मुगलों की राजधानी रहा लाहौर बीते सालों में बहुत बदला है. लेकिन शहर के पुराने हिस्से में उसका गौरवशाली अतीत साफ झलकता है. नफीस की बनाई ज्यादातर डॉक्यूमेंट्री फिल्में शहर के इसी हिस्से के इर्द गिर्द घूमती हैं. उनकी तरह बहुत से पाकिस्तानी युवा डॉक्यूमेंट्री फिल्में बनाने के लिए आकर्षित हो रहे हैं. लेकिन आम लोग ऐसी फिल्मों पर ज्यादा तवज्जो नहीं देते.
घाटे का सौदा
पाकिस्तान में डॉक्यूमेंट्री फिल्मों की तरफ उस वक्त सबका ध्यान गया जब फिल्मकार शरमीन औबेद चिनोय की बनाई फिल्म "सेविंग फेस" को 2012 में ऑस्कर से सम्मानित किया गया. यह फिल्म पाकिस्तान में एसिड हमलों की पीड़ितों पर आधारित थी. 2016 में ऑनर किलिंग के विषय पर बनाई गई उनकी फिल्म "ए गर्ल इन द रीवर: द प्राइस ऑफ फॉरगिवनेस" को भी बहुत सराहना मिली. इसके बावजूद पाकिस्तान में डॉक्यूमेंट्री फिल्में बनाना फायदे का सौदा नहीं है.
इस्लामाबाद में रहने वाले यूट्यूबर और फिल्मकार अब्दुल बासित कहते हैं कि पाकिस्तान में टीवी विज्ञापन और सीरियल बहुत कामयाब हैं लेकिन कोई भी डॉक्यूमेंट्री को नहीं अपनाना चाहता. वह कहते हैं, "ऑरिजिनल और नॉन कमर्शियल कंटेट के लिए पाकिस्तान के मार्केट में कोई जगह नहीं है."
एक युवा उद्यमी अहमद सलीम ने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा, "क्या होगा अगर आप फिल्म मेकिंग की पढ़ाई करें और एक जबरदस्त किस्सागो बनना चाहते हैं लेकिन सच्चाई कुछ और ही हो." वह कहते हैं कि पढ़ाई पूरी करने के एक साल बाद उन्होंने विज्ञापन की दुनिया में जाने का फैसला किया क्योंकि वहां पैसा है. उनका सपना है कि पाकिस्तान की जबरदस्त कहानियां लोगों के सामने पेश करें लेकिन वह कहते हैं कि उससे पहले घर चलाने के लिए पैसा बहुत जरूरी है.
पत्रकार और मीडिया ट्रेनर इमरान शिरवानी कहते हैं, "ऐसा कोई प्लेटफार्म नहीं है जहां डॉक्यूमेंट्री दिखाई जा सकें. टीवी पर डॉक्यूमेंट्रीज के लिए कोई जगह नहीं है. उन्हें सीरियल के रूप में चाहिए. और इसके लिए बहुत पैसे की जरूरत होती है जो पाकिस्तान के टीवी चैनल नहीं दे सकते."
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छोटे छोटे कदम
पाकिस्तानी फिल्मकार मुश्ताक गजदार की किताब "पाकिस्तानी सिनेमा 1947-1997" को पाकिस्तान में सिनेमा का एक विश्वसनीय दस्तावेज माना जाता है. इस किताब में वह लिखते हैं कि पाकिस्तानी सिनेमा 1957 से 1966 के बीच बदलाव के दौर से गुजरा. इसके बाद जो दशक आया उसे "बदलाव का दशक" कहा गया. लेकिन इसके बाद वाला दशक "पतन का दशक" था, जब सिनेमा पर सरकार का पूरी तरह नियंत्रण हो गया. फिर 1987 से 1997 के दशक को लेखक ने बदहाली के दशक के रूप में परिभाषित किया.
लेकिन 1990 का दशक ही वह समय था जब केबल टीवी की बदौलत पाकिस्तान भारतीय फिल्मों और सीरियलों के लिए बड़ा बाजार बन गया. उसके बाद का समय पाकिस्तानी सिनेमा के लिए मिला जुला रहा. 2007 में आई शोएब मंसूर की फिल्म "खुदा के लिए" बहुत पसंद की गई और लोगों को उम्मीदें हो गईं कि अब पाकिस्तानी सिनेमा खड़ा हो जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं हो सका.
पिछले दस साल में प्राइवेट टीवी चैनलों ने फिल्मों में पैसा लगाया है. लेकिन पाकिस्तानी फिल्म उद्योग अब भी बहुत छोटा और अस्थिर है. पाकिस्तानी फिल्म उद्योग की नेट वर्थ जहां 82 लाख डॉलर है वहीं भारतीय फिल्म उद्योग की नेट वर्थ 2.4 अरब डॉलर है.
डिजिटल दौर में फिल्में
पाकिस्तान में बीते दो दशकों में तेजी से मजबूत होते इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की वजह से फिल्मकारों के लिए मौके बढ़ रहे हैं. जनवरी 2020 के आंकड़ों के मुताबिक पाकिस्तान में 7.6 करोड़ इंटरनेट यूजर्स हैं. इनमें से 3.7 करोड़ सोशल मीडिया पर भी सक्रिय हैं. फेसबुक, यूट्यूब और इंस्टाग्राम जैसे प्लेटफार्म वहां तेजी से बढ़ रहे हैं. लेकिन दुख की बात यह है कि ऑनलाइन कंटेंट किस तरह का होगा, यह विज्ञापन और बाजार ही तय करते हैं.
नफीस कहते हैं, "किसी वीडियो को मिलने वाले व्यूज ही तय करते हैं कि वह हिट है या फ्लॉप. बाकायदा सिनेमा की पढ़ाई करके इस क्षेत्र में आने वाले और फिल्म निर्माण की बिल्कुल भी समझ ना होते हुए भी वीडियो बनाने वाले, दोनों को एक ही कैटिगरी में रखा जा रहा है."
लेकिन अन्य फिल्मकार डिजिटल प्लेटफार्म्स को एक अवसर के तौर पर देखते हैं. फिल्ममेकर से यूट्यूबर बने अब्दुल बासित कहते हैं कि सोशल मीडिया प्लेटफार्म कंटेटर क्रिएटर्स के लिए बहुत अहम हैं जिनके जरिए वे अपने काम को दुनिया के सामने रख सकते हैं, खासकर तब जब फिल्म फेस्टिवल ना हो रहे हों.
लेकिन बासित कहते हैं कि पाकिस्तान जैसे देश में डिजिटल प्लेटफार्म की भी अपनी एक सीमा है. उनके मुताबिक, "सेंसरशिप, सरकार का नियंत्रण, अनियमित नीतियां और यूट्यूब पर बैन की धमकियां और वेबसाइटों पर प्रतिबंध लगाने से हम पर असर पड़ता है."
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