पीरियड्स में महिलाओं को छुट्टी देना ठीक है या नहीं?
२२ सितम्बर २०२०जोमैटो का कहना है कि महावारी को लेकर अभी जिस तरह की दकियानूसी सोच है, उसे बदलने की जरूरत है. इसीलिए कंपनी ने पिछले महीने अपनी महिला और ट्रांसजेंडर कर्मचारियों को साल में दस दिन तक की छुट्टियां देने का फैसला किया है. लेकिन बहुत से लोग अब भी इस कदम को संदेह की नजर से देखते हैं.
वैसे कल्चरल मशीनन और गोजूप जैसी कंपनियों में पहले से ही महिलाओं को पीरियड्स के पहले दिन छुट्टी लेने की अनुमति है. इसके अलावा बिहार में 1992 से प्रावधान है कि सरकारी महिला कर्मचारी हर महीने दो दिन छुट्टी ले सकती हैं.
जोमैटो अब ऐसा करने वाली भारत की पहली बड़ी कंपनी बन गई है. कंपनी के संस्थापक और सीईओ दीपिंदर गोयल ने अपने कर्मचारियों को भेजे एक मेमो में कहा, "जोमैटो में हम भरोसे, सच और स्वीकार्यता की संस्कृति को लागू करना चाहते हैं."
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खुल कर बात
माहवारी जैसे विषयों पर भारतीय समाज में आज भी बहुत कम बात होती है. बहुत ही कम लोग होंगे जो दफ्तर में इस बारे में बात करने में सहज महसूस करेंगे. कई अध्ययन बताते हैं कि भारत में 71 प्रतिशत लड़कियों को तब तक माहवारी के बारे में कुछ नहीं पता होता जब तक वे खुद पहली बार इस अनुभव से ना गुजरें.
पीरियड्स की वजह से बहुत ही महिलाओं और लड़कियों को कई बार पढ़ाई और रोजगार के पूरे मौके नहीं मिल पाते. भारत में 20 प्रतिशत से भी कम महिलाओं को सैनिटरी पैड्स उपलब्ध होते हैं. लैंगिक बराबरी के लिए काम करने वाली श्रीरेखा चक्रवर्ती कहती हैं, "हम में से ज्यादातर को बताया जाता है कि माहवारी एक बीमारी है और इसे दूसरों से छिपाना चाहिए. दफ्तर में ऐसा माहौल बनाना बहुत अच्छी पहल है जहां लोग इसे लेकर शर्माएं ना, इसके बारे में बात कर सकें. लेकिन यह समय ही बताएगा कि जोमैटो की नीति एक सकारात्मक कदम है या नहीं."
जापान, इंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया और जाम्बिया जैसे देशों में "पीरियड लीव्स" दी जाती हैं. लेकिन विशेषज्ञों की राय इस बारे में बंटी हुई है कि यह नीति फायदेमंद है या नहीं. इसके पीछे उद्देश्य तो अच्छा है, लेकिन बहुत से लोगों को चिंता है कि इस कदम की वजह से महिलाओं को बड़ी प्रशासनिक भूमिकाओं के हाथ धोना पड़ सकता है.
कुछ भारतीय महिला कार्यकर्ताओं को चिंता है कि इस कदम की वजह से महिलाएं कार्यस्थल पर अकेली पड़ सकती हैं. आलोचकों का मानना है कि पीरियड्स में छुट्टी मांगने से कार्यस्थल पर बराबरी के लिए लड़ने वाली महिलाओं का संघर्ष कमजोर होगा. भारत की जानी मानी पत्रकार बरखा दत्त ने ट्वीट किया कि पीरियड्स में छुट्टी देने के कदम से महिलाएं "एक दायरे में कैद" हो सकती हैं.
माहवारी स्वास्थ्य कार्यकर्ता अनन्या ग्रोवर ने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा, "मुझे लगता है कि लैंगिक समानता हासिल करने के लिए हमें समानता के तरीके ही अपनाने होंगे. समानता का मतलब है कि सब को बिल्कुल समान समझा जाए. लेकिन हम महिलाओं के बुनियादी शारीरिक अंतरों को कैसे अनदेखा कर सकते हैं, जिनके कारण महिलाओं की जरूरतें पुरुषों से अलग हैं? "
वह कहती हैं, "समानता वाले कदमों से ही समानता आएगी. महिलाओं की अलग जरूरतों को ध्यान में रखते हुए, जोमैटो जैसी कंपनियां उन्हें जरूरी समर्थन दे रही हैं, जो उन्हें अपने पुरुष साथियों के बराबर अवसर पाने के लिए चाहिए."
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सबको मिलेगा फायदा?
कमजोर और ग्रामीण तबकों के साथ काम करने वाली चक्रवर्ती कहती हैं कि भारत में करोड़ों महिलाएं असंगठित क्षेत्र में काम करती हैं. उन्हें पीरियड्स में छुट्टी नहीं मिल सकती है. वह कहती हैं, "असंगठित क्षेत्र की कर्मचारी और मजदूर महिलाओं को बच्चा होने पर छह महीने की छुट्टी, यौन शोषण से सुरक्षा और ऐसी दूसरी नीतियों का फायदा भी नहीं मिल पाता है. असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को तो पता भी नहीं है कि उनके अधिकार क्या हैं?"
हो सकता है कि इस तरह की नीतियां कुछ और कंपनियों में भी लागू हो, लेकिन निकट भविष्य में इस बात की संभावना नहीं दिखती कि दूसरों के घरों में काम करके अपना गुजारा चलाने वाली महिलाओं को भी इसका फायदा मिल पाएगा. ग्रोवर का कहना है, "भारत में माहवारी पर बात अक्सर महिलाओं और लड़कियों को माहवारी से जुड़े किफायती उत्पाद देने से शुरू होती है और इसी पर खत्म होती है. यह बुनियादी बात है. लेकिन सिर्फ इतना ही नहीं है. और भी बहुत कुछ करने की जरूरत है."
वह कहती हैं, "हमें माहवारी से जुड़े कलंक को दूर करना होगा. इसके बारे में एक सामान्य शारीरिक प्रक्रिया की तरह बात करनी होगी और योजना और नीतियां बनाते समय ऐसी बातों का ध्यान रखना होगा."
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