पुलिस सोच में बदलाव की जरूरत
६ मार्च २०१३उनका चेहरा बिगड़ गया है, नाक की हड्डी और चेहरे की हड्डियां टूट गई हैं. म्यूनिख की 23 साला टेरेसा का चेहरा दिमाग में जैसे छप गया है. टेरेसा ने पुलिस को बुलाया था क्योंकि उसका अपने दोस्त के साथ झगड़ा गंभीर रूप ले चुका था. लेकिन उस पर हुए ये गहरे वार उसके दोस्त ने नहीं बल्कि पुलिसकर्मी ने किए थे. पुलिस का कहना है कि ये उन्होंने आत्मरक्षा में किया. मामले की जांच अभी भी चल रही है.
जर्मनी में हर साल पुलिसकर्मियों के खिलाफ गैरकानूनी हिंसा की करीब 2000 शिकायतें होती हैं. असली आंकड़े कई गुना ज्यादा होने की आशंका है. जर्मनी के चौथे सबसे बड़े शहर कोलोन के पुलिस प्रमुख ऊडो बेरेंडेस का मानना है कि इस समस्या को पूरी तरह कभी समाप्त नहीं किया जा सकता, "लेकिन हम इसे पेशेवर बना सकते हैं." उनके विचार से पुलिसकर्मियों को पेशे की वजह से आक्रामक परिस्थितियों में फंसना पड़ता है और उसमें हमेशा गलती की गुंजाइश होती है.
बेरेंडेस यह बात अपने अनुभवों से कह रहे हैं. 2002 में उन्हें कोलोन की चार पुलिस चौकियों का प्रमुख बनाया गया. उनमें से एक शहर के बदनाम आइगेलश्टाइन इलाके की पुलिस चौकी थी जहां पुलिसकर्मियों ने एक संदिग्ध अपराधी को इतना मारा-पीटा कि उसकी मौत हो गई. "हमने पुलिस चौकी को दाएं से बाएं करने में डेढ़ साल का समय लिया." आत्मशुद्धि की इस प्रक्रिया के अंत में पुलिसकर्मियों में एक नया आत्मविश्वास पैदा हुआ, पुलिस पेशे के लिए एक नया रवैया जिसमें बेरेंडेस के अनुसार पेशेवर होने का मतलब ताकतवर होना नहीं बल्कि विवाद को निबटाने वाला मैनेजर होना है. इसमें टीम भावना का मतलब साथियों की गलतियों को छुपाना नहीं होता.
अपनी गलतियों के साथ इस तरह से पेश आने की संस्कृति अभी भी बहुत से पुलिस दफ्तरों में सामान्य बात नहीं है, यह कहना है बोखुम यूनिवर्सिटी के राजनीतिशास्त्री थोमास फेल्टेस का. "यहां एक संरचनात्मक समस्या है. गलतियां पुलिस सेवा में भी उसी तरह होती हैं जैसे किसी दूसरे पेशे में. मेरे विचार में गलतियों के प्रति रवैये को बेहतर बनाने की जरूरत है." पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी आरोपों की जांच से पहले ही अपने जवानों की रक्षा में सामने आ जाते हैं.
इसकी एक वजह यह है कि इस समय जिम्मेदारी निभा रहे अधिकारियों की ट्रेनिंग 20 से 30 साल पहले हुई थी. और उस समय का सिद्धांत था कि पुलिस कोई गलती नहीं करती. फेल्टेस का कहना है कि बहुत से पुलिस अधिकारी अभी भी पुरानी सोच में जकड़े हैं. असल समस्या ऐसे पुलिस नेतृत्व की है जो प्रबुद्ध नहीं है. इसके विपरीत नई पीढ़ी सामने आ रही है जो मसलों को अलग तरीके से देखती है. इन दिनों नागरिक और मानवाधिकार पुलिस ट्रेनिंग का अभिन्न हिस्सा हैं, लेकिन ट्रेनिंग और रोजमर्रे में बहुत फर्क है. अच्छे से अच्छे पुलिसकर्मी तैनाती के बाद पुलिस चौकी के माहौल में रम जाते हैं.
मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल के अलेक्जांडर बॉश भी पुलिस ट्रेनिंग की तारीफ करते हैं. लेकिन उनकी शिकायत है कि पुलिस अधिकारियों के खिलाफ की गई शिकायत की जांच बहुत जल्द रोक दी जाती है. "90 फीसदी पुलिस जवानों को सजा नहीं मिलती." एमनेस्टी सालों से पुलिस जवानों के गैरकानूनी बर्ताव को दर्ज कर रहा है. अपनी रिपोर्ट के लिए उन्होंने पिछले समय में कई मामलों की गहराई से जांच की है. "और उनमें हमने पाया कि पुलिस अधिकारी पुलिसकर्मियों के खिलाफ उतनी सफाई से जांच नहीं करते जितनी सामान्य नागरिकों के खिलाफ. और अभियोक्ता कार्यालय इस प्रक्रिया पर आंखे मूंदे रखता है."
इसलिए अलेक्जांडर बॉश पुलिस के खिलाफ आरोपों की जांच के लिए एक स्वतंत्र जांच आयोग के गठन की मांग करते हैं, जैसा ब्रिटेन जैसे देशों में सामान्य है. अब तक सरकार ने ऐसा नहीं किया है जबकि संयुक्त राष्ट्र और यूरोपीय संघ लंबे समय से इसकी मांग कर रहे हैं. लेकिन दूसरे देशों पर नजर डालने से यह भी पता चलता है कि जर्मनी में पुलिस हिंसा का आयाम अपेक्षाकृत छोटा है.
इसके बावजूद हालत और बेहतर हो सकती है, यह कोलोन के पुलिस प्रमुख ऊडो बेरेंडेस का अनुभव दिखाता है. वे कहते हैं, "हमें कोई बटन नहीं मिल गया जिसे दबाना पड़ता, हमने दरअसल बहुत से छोटे छोटे सामान्य से कदम उठाए." उनमें पुलिस के जवानों के बीच गहन आपसी बातचीत और समस्या वाले मुद्दों पर वर्कशॉप शामिल था. उन्हें उन गुटों के बारे में विशेष जानकारी दी गई जिनसे उनका रोजमर्रा का वास्ता था, जंकी, सेक्स वर्कर और रॉक गिरोह. लक्ष्य था उन्हें बेहतर तरीके से जानना और समझना ताकि मामले के बिगड़ने से पहले कदम उठाए जा सकें.
अपनी कतारों में हिंसा की समस्या से निबटने की शुरुआत के दस साल बाद ऊडो बेरेंडेस कहते हैं, "मुझे लगता है कि हम बहुत शांत हुए हैं, और हम हमारे साथ होने वाली हिंसा से बेहतर तरीके से निबट पा रहे हैं और खुद को बेहतर नियंत्रण में रख पा रहे हैं." यह दोनों ही पक्षों के लिए फायदेमंद है.
रिपोर्ट: डायना पेसलर/एमजे
संपादन: आभा मोंढे