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प्रथम विश्व युद्ध की ना भूलने वाली पांच कहानियां

सोन्या अंगेलिका डीन
१० नवम्बर २०१८

प्रथम विश्व युद्ध की जमीन तो यूरोप में थी पर बहुत से देश दूर रह कर भी इसमें शामिल थे. इन्हें देशों से जुड़ी पांच अहम कहानियां जिन्हें जिन्हें कभी भुलाया नहीं जाना चाहिए.

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Litographie der Schlacht von Tsingtao 1914 Ausschnitt
तस्वीर: gemeinfrei

यूरोप के लिए पहले विश्व युद्ध के महत्व पर कोई विवाद नहीं है, इस युद्ध ने इस महादेश का राजनीतिक नक्शा दोबारा तैयार किया और बीसवीं सदी के विकास के लिए जमीन तैयार की. हालांकि पहले विश्व युद्ध में यूरोप से बाहर के देशों में भी बहुत कुछ हुआ जिसका इन इलाकों पर दूरगामी असर पड़ा.

1. प्रशांत क्षेत्र के जर्मन उपनिवेश उन इलाकों में जंग ले कर गए. जापान अपने सहयोगी ब्रिटेन की मदद के लिए आगे आया और अपने किनारों पर उसने रणनीतिक लिहाज से अहम ठिकानों पर कब्जा कर लिया, खासतौर से अपने प्रतिद्वंद्वी रूस को चुनौती देने के लिए. पीले सागर के तटवर्ती इलाके में सिंगताओ पोर्ट पर एक भयानक युद्ध लड़ा गया. 50 हजार जापानी सैनिकों ने दो महीने तक यह लड़ाई लड़ी. इस जीत के साथ जापान ने चीन पर लंबे समय के लिए प्रभुत्व हासिल किया, जापान के बढ़ते असर ने दुनिया की ताकतों को भी चिंता में डाल दिया.

Deutsch-Ost-Afrika, Askaris und Träger
कुलियों के रूप में अफ्रीकी लोगों की भर्ती ने जर्मन पूर्वी अफ्रीका में बहुत मुश्किलें पैदा की.तस्वीर: Bundesarchiv, Bild 134-C0258/CC-BY-SA

2. पहले विश्व युद्ध के दौरान अफ्रीका पर नियंत्रण के आखिरी संघर्ष को अफ्रीकी थिएटर माना जाता है. इसके खत्म होने तक जर्मन उपनिवेश अलग अलग ताकतों में विभाजित हो गए थे और इसके नतीजे में कुछ देशों ने आजादी हासिल कर ली. हालांकि जिस बात की चर्चा कम होती है वो यह है कि कैसे युद्ध के दौरान लाखों अफ्रीकी लोगों को उनकी मर्जी से और कई बार जबरन हथियारों और रसद की ढुलाई के काम में दोनों पक्षों की ओर से इस्तेमाल किया गया. बीमारी और थकान के कारण इनमें से 1 लाख लोगों की मौत हो गई. अफ्रीकी लोगों के मरने की दर यूरोप में पश्चिमी मोर्चे पर जंग लड़ रहे सैनिकों के बराबर ही थी.

3. ओटोमन साम्राज्य को तब "यूरोप का बीमार आदमी" कहा जाता था. पहले विश्व युद्ध की शुरुआत के बहुत पहले ही उसका पतन शुरू हो गया था लेकिन वह बिना जंग लड़े किसी विदेशी हित के आगे झुकने को तैयार नहीं था. ब्रिटेन के कब्जे वाले इलाकों में तुलनात्मक रुप से कुछ छोटी छोटी लड़ाइयां हुईं जिसका नतीजा बाद में इराक, फलस्तीन, सीरिया और लेबनान के रूप में सामने आया.

Flash-Galerie Lawrence von Arabien
1962 में आई "फिल्म लॉरेंस ऑफ अरेबिया" ने अरब विद्रोह को सिनेमा के पर्दे पर अमर कर दिया.तस्वीर: picture-alliance/dpa

यहां शक्ति के बंटवारे में यहूदियों को बहुत सी छूट मिल गई और एक बड़े अरब राष्ट्र की स्थापना के लिए हुआ "अरब विद्रोह"

नाकाम हो गया. इन सब की वजह से इस इलाके में निराशा और गुस्सा बहुत बढ़ गया और कई विशेषज्ञ मानते हैं कि वह आज भी पूरे मध्यपूर्व को तनाव दे रहा है.

4. ओटोमन और रूसी साम्राज्यों की लड़ाई में एक विध्वंसक अभियान अर्मेनिया में चला. अर्मेनिया में ओटोमन साम्राज्य के सैनिकों ने अल्पसंख्यक अर्मेनियाई समुदाय को इकट्ठा कर उनमें से बहुतों को मार डाला. बाकियों को जबरन मजदूरी या फिर सीरिया के रेगिस्तान में मरने के लिए छोड़ दिया गया.

तुर्की इस नरसंहार से इनकार करता रहा है लेकिन हाल ही में तुर्की के राष्ट्रपति रेचप तैयब एर्दोवान ने पहली बार इस दौरान मारे गए लोगों के परिजनों से माफी मांगी है.

Türkische Menschenrechtsaktivisten erinnern an Armenien-Völkermord
तस्वीर: Reuters

5. इसके साथ ही यह भी नहीं भूला जाना चाहिए कि करीब 10 लाख भारतीय सेना के जवानों ने विश्वयुद्ध के यूरोपीय, अफ्रीकी और मध्यपूर्व के मोर्चों पर जंग लड़ी. भारत ने युद्ध में सहायता ब्रिटेन की राजनीतिक गुलामी से मुक्ति पाने की उम्मीद में दी थी. यह उम्मीद तो पूरी ना हो सकी लेकिन इसने देश में आजादी की लड़ाई को तेज जरूर कर दिया. युद्ध में 70 हजार से ज्यादा भारतीय सैनिक मारे गए.

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