प्रवासी मजूदर नहीं लौटे तो ठिकाने आई कंपनियों की अक्ल
१६ फ़रवरी २०२१केरल के औद्योगिक इलाके में लॉकडाउन के बाद कामकाज जोर पकड़ने लगा है. प्रिंटिंग प्रेस, वर्कशॉप और केमिकल प्लांटों में ऑर्डर की भरमार होने लगी है लेकिन मालिकों के माथे पर चिंता की लकीरे हैं. लॉकडाउन के दौर में गांव गए मजदूर काम पर लौटने में जल्दी नहीं दिखा रहे हैं. केरल के 200 छोटे कारोबार का प्रतिनिधित्व करने वाले संघ के प्रमुख राजेश गोपालकृष्णन कहते हैं, "मजदूरों में काम पर लौटने के प्रति भारी अनिच्छा है." गोपालकृष्णन का कहना है, "शायद उन्हें अपने गृह राज्य में नौकरी मिल गई है और या फिर शायद जिस तरीके से लॉकडाउन के दौर में उनका अच्छे से ख्याल नहीं रखा गया इससे उन्हें बुरा लगा है."
अनियमित मजदूरों की कमी को पूरा करने और लॉकडाउन के दौरान दिए जख्मों पर मरहम लगाने के लिए बड़ी संख्या में कंपनियां मजदूरों को वो सब सुविधाएं देने को तैयार हो रही हैं जो अब तक सिर्फ नियमित कर्मचारियों को ही मिलती रही हैं.
90 फीसदी अनियमित मजदूर
भारत के 45 करोड़ मजदूरों में 90 फीसदी अनियमित हैं. उन्हें ठेकेदारों के जरिए काम पर रखा जाता है, कम मजदूरी मिलती है और जिनके लिए ना तो स्वास्थ्य बीमा है, ना पेंशन, ना सामाजिक सुरक्षा और ना हीं नौकरी की गारंटी. इनमें से करीब एक चौथाई अनियमित मजदूर प्रवासी हैं, जो अपने गांवों से बड़े शहरों में रोजगार के लिए आते हैं. इनमें से ज्यादातर लोग ईंट भट्ठे, कपड़े की फैक्ट्रियों, होटलों या फिर निर्माण उद्योग में काम करते हैं.
बहुत सारे लोगों ने महामारी की शुरुआत में ही अपनी नौकरी गंवा दी और जो थोड़ी बहुत बचत थी उससे कुछ दिन काम चलाया. उनकी मुश्किलें दुनिया भर में मीडिया की सुर्खियों में आईं जब वो हजारों किलोमीटर पैदल चल कर अपने गांव लौटे.
पुणे में मुख्यालय वाली इंजीनियरिंग कंपन फोर्ब्स मार्शल की रति फोर्ब्स मजदूरों की इस हालत को देख बहुत परेशान हुईं और अनियमित मजदूरों के साथ रिश्तों पर नए सिरे से विचार करने के लिए कंपनी को मजबूर किया. उन्होंने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, "वह कुछ करने के लिए जरूरी बना गया. हमने महसूस किया कि इनमें से बहुत सारे लोग हमारे यहां काम करते हैं और हम कैसे उनके प्रति अपने व्यवहार को बदलें."
कंपनी अब दिहाड़ी मजदूरों के लिए हेल्थ इंश्योरेंस की योजना बना रही है. इसके साथ ही उन्हें बेरोजगारी के समय सुरक्षा देने के लिए दूसरे कारोबारी नेताओं से बात कर रही है और सप्लाई चेन के जरिए कर्मचारियों से संपर्क कर पता लगा रही है कि उनके पास किस तरह की सामजिक सुरक्षा मौजूद है.
सबके लिए बढ़िया काम
दुनिया भर में करीब दो अरब लोग अनौपचारिक अर्थव्यवस्था के लिए काम करते हैं. इनमें से ज्यादातर लोग उभरते और विकासशील देशों में हैं खासतौर से दक्षिण और दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों में. संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि "सब के लिए बढ़िया काम" के लक्ष्य को हासिल करना एक बड़ी चुनौती है.
कई सालों से भारत में अनियमित मजदूर ज्यादा मजदूरी, नियमित काम के घंटे और बेहतर रिहाइश की मांग करते रहे हैं लेकिन अब तक उनकी मांगों को मोटे तौर पर अनसुना ही किया गया है. श्रम सुधारों के लिए आवाज उठाने वाले कहते हैं कि इससे पहले कि मजदूरों की जो दुर्दशा लॉकडाउन के दौर में दिखी वह नजरों से ओझल हो जाए उसे रोजगार के मामले में सुधारों के लिहाज से पूरा कर दिया जाना चाहिए. प्रवासीयों के अधिकार के बारे में बात करने वाले संगठन आजीविका ब्यूरो के सहसंस्थापक राजीव खंडेलवाल कहते हैं, "प्रवासियों की कहानी तो पहले ही भुला दी गई है, इससे पहले कि यह बिल्कुल गायब हो जाए हमें इसके लिए कदम उठाना चाहिए."
यह संगठन सोशल कॉम्पैक्ट प्रोजेक्ट का हिस्सा है. इस प्रोजेक्ट को फोर्ब्स मार्शल और दूसरी कंपनियां समर्थन दे रही हैं ताकि पुणे, मुंबई और अहमदाबाद के करीब 150 फर्मों में काम करने वाले लाखों मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा मुहैया कराई जा सके. खंडेलवाल ने बताया, "यह प्रोजेक्ट उद्योग जगत को ठेके पर काम करने वाले मजदूरों के लिए वेतन, सुरक्षा, स्वास्थ्य जैसे श्रम के मानक सुधारने के लिए कहता है. यह कॉर्पोरेट चैरिटी के बारे में नहीं बल्कि बुनियादी श्रम नीतियों के बारे में है."
बेहतर आवास
कोविड-19 की महामारी में अनियमित मजदूरों के लिए सरकारी सहायता हासिल करने की भी बड़ी समस्या रही. अब देश में रोजगार देने वाली बड़ी कंपनियां मजदूरों का रिकॉर्ड और कागजात की कमियों को भी दूर करने के लिए काम कर रही हैं. इस बारे में इसी महीने एक करार भी हुआ है. इसके तहत पश्चिमी महाराष्ट्र के करीब 20,000 ठेकेदारों ने सरकारी पोस्टल बैंक के साथ एक लाख अनियमित मजदूरों के जीरो बैलेंस वाले खाते खोलने के लिए करार किया है.
सबसे ज्यादा अनियमित मजदूर निर्माण उद्योग में ही काम करते हैं. इनके लिए रिहाइश की समस्या को भी सुलझाने पर काम हो रहा है. इसके तहत बेस्ट लेबर कैंप को अवॉर्ड देने की शुरुआत की गई है. इसके साथ ही लेबर कैंप में साफ पीने के पानी, सफाई और मनोरंजन की सुविधाओं का ख्याल रखने के लिए काम हो रहा है. अवॉर्ड के लिए प्रोजेक्ट को अब तक 90 आवेदन मिल चुके हैं. रियल एस्टेट डेवलपर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया की स्वाती राठी का कहना है, "हमने महसूस किया है कि अगर हम उन्हें पर्याप्त सुविधाएं और भोजन देंगे तो वो अपने गांव वापस क्यों जाएंगे."
कुछ कंपनियां इससे आगे भी गई हैं. जर्मन बॉश कंपनी की भारत में सब्सिडियरी बॉस चेसीस सिस्टम, इंजीनियरिंग कंपनी सैंडविक और ऑटो कंपनी टाटा मोटर्स ने स्टाफ के लिए मुफ्त परिवहन, स्वास्थ्य जांच और कई दूसरे बोनस की योजनाएं शुरू की हैं ताकि अनियमित मजदूरों का ख्याल रखा जा सके.
कितनी बदली मजदूरों की जिंदगी
हालांकि इन सब के बावजूद मजदूरों की जिंदगी पर इन कदमों का कोई बड़ा असर होने में वक्त लगेगा, खासतौर से जब तक कि उनकी मजदूरी नहीं बढ़ती. 20 साल के कुशु गोप पुणे में जिस निर्माण की जगह पर काम करते थे, वहां वापस नहीं जाना चाहते, लेकिन झारखंड में जब उन्हें कोई काम नहीं मिला और खर्च चलाने की मुश्किलें बढ़ती गईं तो वो यहां आए. गोप कहते हैं, "हमारे पास पैसे नहीं हैं तो हमने उनसे मजदूरी में 50 रुपये बढ़ाने को कहा जो तब 400 रुपये थी. उन्होंने सिर्फ 20 रुपये ही बढ़ाए. हमारी जिंदगी में कुछ नहीं बदला. हम तो अपनी आवाज भी नहीं उठा सकते क्योंकि हमें काम चाहिए. हमारे पास कोई विकल्प नहीं."
नौकरी का कॉन्ट्रैक्ट या फिर सामाजिक सुरक्षा में नौकरी देने वाले की तरफ से निवेश की बजाय भारत के मजदूरों के लिए सबसे जरूरी मजदूरी बढ़ाना है. कोची के सेंटर फॉर माइग्रेशन एंड इनक्लूसिव डेवलपमेंट, सीएमआईजी ने जब अनियमित मजदूरों को स्वास्थ्य सुविधा और पेंशन के साथ नियमित नौकरी की पेशकश की तो 1500 लोगों की वेकेंसी में मुट्ठी भर लोगों के ही आवेदन मिले. सीएमआइडी के कार्यकारी निदेशक कहते हैं, "हमने 70 लोगों को नौकरी दी लेकिन उनमें से भी बहुत सारे लोग छोड़ गए."
बहुत से मजदूर सामाजिक सुरक्षा, पेंशन या इस तरह की दूसरी चीजों के नाम पर होने वाली वेतन में से कटौती के भी पक्ष में नहीं हैं. मजदूरी पहले से ही कम है अगर वो भी कटने लगी तो मुश्किलें और बढ़ेंगी. मजदूर चाहते हैं कि पूरा पैसा उन्हें ही मिले.
एनआर/आईबी (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)
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