फिर गूंजी हिमालय की पुकार
हिमालय में पर्वतारोहण का सीजन शुरू हो चुका है. दुनिया भर के पर्वतारोही नेपाल पहुंच रहे हैं. सबका का एक ही ख्वाब है, उस शिखर को छूना. चलिए उनके साथ इस साहसिक यात्रा पर.
विनम्र और विशाल
सामने खड़ा विशाल और ऊंचा हिमालय, इंसान को अहसास कराता है कि प्रकृति कितनी जादुई है. ऊंची से ऊंची चीजें कितनी शांत और स्थिर रहती हैं. ऐसे रूमानी ख्यालों में डुबो देने वाले हिमालय को छूने हर साल गर्मियों में हजारों सैलानी नेपाल, भारत, भूटान और तिब्बत जाते हैं.
हिमालय की रानी
ज्यादातर पर्वतारोहियों के जीवन में माउंट एवरेस्ट को छूने का लक्ष्य जरूर होता है. 8,848 मीटर ऊंची इस चोटी पर पहली बार 1953 में न्यूजीलैंड के एडमंड हिलेरी और नेपाल के शेरपा तेनजिंग नॉर्गे पहुंचे.
तैयारी ही सब कुछ
खुम्बू ग्लेशियर में माउंट एवरेस्ट का बेस कैंप है. माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने वाले पर्वतारोही यहीं जमा होते हैं. 5,350 मीटर ऊंचे बेस कैंप में सांस लेने के लिए काफी मेहनत करनी पड़ती है. यहां कुछ दिन बिताने के बाद कम ऑक्सीजन की आदत पड़ जाती है. फिर आगे का सफर शुरू होता है.
ट्रैकिंग के शौकीन
हरी भरी और शांत वादियों में पैदल चलने के शौकीन ट्रैकर अन्नपूर्णा रूट लेते हैं. ट्रैकर आम तौर पर नेपाल के शेरपाओं को गाइड के तौर पर इस्तेमाल करते हैं. शेरपाओं को इलाके की बढ़िया जानकारी होती है. उनका साथ जान बचाने के लिये जरूरी होता है..
डरपोक लौट जाएं
खुम्बू आइसफॉल से एवरेस्ट की तरफ बढ़ने के लिए इस दर्रे को पार करना ही पड़ता है. झूलती सीढ़ी पार करने के लिए हुनर, साहस और सही उपकरण होने जरूरी हैं. गलतियों और कमजोर तैयारियों के चलते हर साल हिमालय में कई सैलानी मारे भी जाते हैं.
सबसे ऊंचा कूड़ेदान
हर साल सैकड़ों पर्वतारोही माउंट एवरेस्ट पर चढ़ते हैं. वह अपने साथ ऑक्सीजन के सिलेंडर, खाना पीना, टेंट और बहुत कुछ ले जाते हैं. कुछ पर्वतारोही भार कम करने के लिए कूड़ा वहीं फेंक देते हैं.
शिखर पर टूरिज्म
ट्रैकिंग के ज्यादातर टूर नेपाल में ही होते हैं. नेपाल की अर्थव्यस्था में हिमालय का बड़ा योगदान है. 2015 के विनाशकारी भूंकप के बाद धीरे धीरे सैलानी फिर से नेपाल जाने लगे हैं. (रिपोर्ट: वेरा केर्न/ओएसजे)