बदलाव के मसीहा या नाकाम पीएम
२६ सितम्बर २०१२2004 में जब मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री का पद संभाला था, तब वह कोई पहली पसंद नहीं थे. दरअसल भारी बहुमत से चुनाव जीतने वाली कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनना चाहिए था लेकिन उनके इतालवी मूल को लेकर विपक्ष ने भारी विरोध किया. इसके बाद सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनने से इनकार कर दिया और मनमोहन सिंह भारत के 14वें प्रधानमंत्री बने.
भारतीय मीडिया ने उस समय कहा था कि मनमोहन सिंह पांच साल पूरा नहीं कर पाएंगे लेकिन हल्की और टूटी आवाज में बोलने वाले राजनेता को अकसर कमतर आंका गया है. उन्होंने दिखाया है कि उनके अंदर उससे कहीं ज्यादा छिपा है, जितना लोगों को लगता है. अब वह लगभग एक दशक से सत्ता में हैं. जितना भारत के सिर्फ दो प्रधानमंत्री रहे हैं.
सफल प्रधानमंत्री
"मनमोहन सिंह अपनी प्रतिभा के कारण सत्ता में आए, न कि किसी ताकतवर राजनीतिक परिवार से होने की वजह से," ये कहना है जर्मनी के भारत विशेषज्ञ क्रिस्टियान वागनर का. लेकिन उनकी यही खासियत शायद उनकी सबसे बड़ी कमजोरी भी है. वागनर कहते हैं, "वह पार्टी संरचना से कुछ मनवा नहीं सकते." इसके बावजूद मनमोहन सिंह भारत के इतिहास में सफलतम प्रधानमंत्री कहे जाएंगे. विदेश नीति के मामलों में उन्होंने कई चीजों की शुरुआत की. मसलन पाकिस्तान के साथ नजदीकी या अमेरिका के साथ परमाणु करार. लेकिन सबसे बढ़ कर वित्त मंत्री के रूप में भारत में उदारवादी आर्थिक नीतियों की शुरुआत में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है. वागनर कहते हैं, "बहुत से लोगों के लिए वह इसीलिए भारत के तेज आर्थिक विकास के जनक हैं."
बढ़ती आलोचना
लेकिन आर्थिक विशेषज्ञ की यह छवि, जिसके लिए पहले उनकी प्रशंसा होती थी, अब दांव पर है. भारत का आर्थिक विकास लगातार धीमा पड़ रहा है. भारत में विदेशी निवेशकों का भरोसा खो रहा है. हाल में कुछ सुधारों की घोषणा की गई है लेकिन इसे बहुत देर से किया गया उपाय बताया जा रहा है. इसके अलावा कभी न खत्म होने वाले भ्रष्टाचार की कहानी में, जिनमें प्रधानमंत्री खुद तो फंसे नहीं हैं, लेकिन उनकी सरकार के वरिष्ठ मंत्री जरूर फंसे हैं. पूर्व टेलीकॉम मंत्री ए राजा 2जी लाइसेंस में धांधली की वजह से गिरफ्तार हुए और इन दिनों जमानत पर हैं.
इससे भी बड़ा कांड कोयला आवंटन घोटाला बताया जा रहा है. देश और विदेशों में मनमोहन सिंह की आलोचना में तेजी आ गई है. पिछले दिनों वॉशिंगटन पोस्ट ने प्रधानमंत्री को नाकाम नौकरशाह करार दिया, जो भ्रष्टचार में गहराई से डूबी सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं. लोग मनमोहन सिंह का इसलिए आदर किया करते थे क्योंकि उन्हें सत्ता का लालची नहीं समझा जाता था, जिसकी दिलचस्पी सिर्फ भारत के विकास और अच्छी छवि में थी, एक ईमानदार शख्स, जिसे भ्रष्टाचार के दलदल में नहीं घसीटा जा सकता था, और जो अपने शांत और दोस्ताना मिजाज से लोगों की समस्याओं के करीब माना जाता था.
लेकिन वे लोग भी उनसे दूर जा रहे हैं. उनकी राय में सिंह अकसर समस्याओं को नजरअंदाज कर रहे हैं, उन्हें सुलझाने की जगह उससे मुंह मोड़ रहे हैं. जेएनयू के प्रोफेसर प्रवीण झा कहते हैं, "यह निश्चित तौर पर गलत था कि 1990 के दशक में मनमोहन सिंह को एक तरह का सुपरमैन समझा गया. अब उसका ठीक उल्टा किया जा रहा है. वे पिछले सालों में विश्व आर्थिक संकट और पार्टी के अंदर की कलह का शिकार हो गए हैं."
लंबा तजुर्बा
इन सब बातों के बावजूद सिंह का करियर बेहद प्रभावशाली है. मौजूदा पाकिस्तान के गाह गांव में 1932 में जन्मे मनमोहन सिंह ने 1947 में विभाजन का दुख और दर्द झेला है. शरणार्थी के रूप में किशोर मनमोहन पंजाब के अमृतसर शहर पहुंचे. उन्होंने अर्थशास्त्र की पढ़ाई की और अपने बेहतरीन नतीजों के कारण ऑक्सफोर्ड और कैंम्ब्रिज का वजीफा पाया. 1962 में उन्होंने वहीं से पीएचडी की.
पढ़ाई खत्म करने के बाद उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के लिए काम किया, दिल्ली विश्वविद्यालय के लिए पढ़ाया और अंत में भारत के वाणिज्य मंत्रालय के लिए काम करने लगे. भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के निदेशक मंडल के सदस्य के रूप में उन्होंने विदेशों में भी नाम कमाया. 1991 में जब वह भारत के वित्त मंत्री बने, तो भारत गंभीर वित्तीय संकट का सामना कर रहा था. भारत के उदारीकरण और उसे क्षेत्रीय शक्ति बनाने की नींव रखने का श्रेय उन्हें ही दिया जाता है.
राजनीतिक विरासत
मनमोहन सिंह ने 2006 में कहा था, "मैं एक छोटा आदमी हूं, जो बड़ी कुर्सी पर बैठा है. लेकिन जो जिम्मेदारियां दी गई हैं, मुझे उन्हें पूरा करना है." कुछ सालों से वह थके हुए दिखते हैं. बिना किसी ऊर्जा के, जैसे कि वह सत्ता में बचा हुआ समय किसी तरह गुजार लेना चाह रहे हों. मनमोहन का मतलब दिल जीतने वाला होता है लेकिन यह खासियत भारत की समस्याओं को सुलझाने के लिए काफी नहीं है.
सिंह के खिलाफ विरोध बढ़ता जा रहा है. उन्हें अपने स्वभाव के विपरीत अपनी राजनीतिक विरासत को बचाने के लिए संघर्ष करना होगा.
रिपोर्टः प्रिया एसेलबॉर्न/एमजे
संपादनः एन रंजन