1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

बदहाल धरोहरों का देश भारत

१९ जून २०१३

भारत की सांस्कृतिक विरासत और ऐतिहासिक धरोहर, दुनिया में किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं लेकिन यहां की सरकार और जनता की उपेक्षा के चलते ये विश्व संस्थाओं की शरण में जाने को मजबूर हो गयी हैं.

https://p.dw.com/p/18siD
तस्वीर: DW/N. Yadav

भारत की जो धरोहरें अनादि काल से देश की पहचान हैं आज वे यूनेस्को से अपनी पहचान का दर्जा हासिल करने की जद्दोजेहद में लगी है. यहां भी सरकारी बाबुओं की लाल फीताशाही, धरोहरों की राह में साधक नहीं बल्कि बाधक बन रही है.

बात अब अजंता एलोरा, खजुराहो, ताज महल और नालंदा से आगे जा चुकी है. ये तो महज ऐतिहासिक स्थल हैं जिन्हें विश्व संस्थाओं ने इनके ऐतिहासिक महत्व को देखते हुए विरासत का दर्जा दे दिया है. मगर अब संघर्ष बनारस और दिल्ली जैसे शहरों के लिए चल रहा है जो तारीख और तहजीब की समृद्ध विरासत को अपनी आंगन में समेटे हुए हैं.

खासियतें खींचती हैं दुनिया को

भारत में खान पान हो, रहन सहन या फिर तीज त्यौहार और रस्म अदावतें, सब धरोहर की तरह पीढ़ी दर पीढ़ी सदियों से समाज की ओर से आगे बढ़ रही है. लखनऊ की नफासत, बनारस की अदावत या दिल्ली की शान ओ शौकत से लबरेज तहजीब, सब का अंदाज ए बयां कुछ और ही है. ये इतिहास का अकाट्य सत्य है कि अपनी सभ्यता संस्कृति से बेइंतहा मोहब्बत करने वाले भारतीय लोगों में अतीत की विरासत से रूबरू कराती धरोहरों के लिए खास लगाव नहीं है. यही वजह है कि जनता के संस्कारों में तहजीब रची बसी होने के बाद भी विरासत से जुड़ी धरोहरें खंडहर में तब्दील होती जा रही है.

Delhi Qutub Minar
तस्वीर: DW/N. Yadav

कवायद का मकसद

भारत में ऐतिहासिक धरोहरों के संरक्षण की जिम्मेदारी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण संस्थान (एएसआई )निभा रहा है. देश भर में फैले ऐतिहासिक धरोहरों के खजाने को एएसआई किसी तरह संभाल रहा है लेकिन संसाधनों की कमी को यूनेस्को जैसी विश्व संस्थाओं की मदद से पूरा करने में काफी मदद भी मिलती है. एएसआई के अतिरिक्त महानिदेशक बी आर मणि कहते हैं कि खजुराहो के मंदिर, ताज महल या लाल किला जैसे विश्व विख्यात स्थल सैलानियों की पहुंच में हमेशा रहते है लेकिन इनसे कम मशहूर स्थलों को यूनेस्को की विरासत सूची में जगह मिलने पर दुनिया की नजरों में आना आसान हो जाता है. इससे न सिर्फ सैलानियों की तादाद बढती है बल्कि विभाग की आमदनी भी बढ़ जाती है जो इन धरोहरों को संवारने में मददगार साबित भी होती है. मणि का कहना है कि भारत में विरासत स्थलों की बड़ी संख्या में मौजूदगी को देखते हुए कई शहर तो सांस्कृतिक लिहाज से विश्व विरासत शहर का दर्जा पाने के हकदार हैं और इसके लिए साल 2007 में इस कवायद को शुरू किया गया था. इसके लिए बनारस, मुंबई, बेंगलोर और दिल्ली अपना दावा पेश करने की कोशिश में जुटे है. (धरोहर बचाने की कवायद)

दावों की हकीकत

एएसआई के पूर्व क्षेत्रीय निदेशक के के मोहम्मद ने बताया की यूनेस्को ने 1972 में विश्व विरासत स्थल का तमगा देना शुरू किया और अब तक दुनिया भर में 812 धरोहरों को यह दर्जा मिल चुका है. इनमें से 27 स्थल भारत में हैं. इसी तरह इटली के रोम और वैटिकन जैसे दुनिया के कुछ शहरों को विश्व विरासत शहर दर्जा मिलने के बाद भारत के पुरातन शहरों ने भी इसमें अपनी भागीदारी की. मगर इसमें सम्बद्ध राज्य सरकार की भूमिका के चलते ये कवायद पूरी होती नहीं दिख रही है. वह कहते हैं कि यूनेस्को के कठिन मानदंडों की कसौटी पर खरा उतरने के लिए न सिर्फ दस्तावेजी सबूतों के आधार मजबूत दावा तैयार करना होगा बल्कि परीक्षण के दौरान दावे में कही गयी बातों पर खरा भी उतरना होगा. पहले से ही संसाधनों की कमी से जूझ रही राज्य सरकारें पुख्ता दावा भी तैयार नहीं कर पा रही है.

Delhi Safdarjung
तस्वीर: DW/N. Yadav

राह के रोड़े

यूरोप और दुनिया के अन्य विकसित देशों को सरकार और जनता की सहज भागीदारी से अपनी मुट्ठी भर एतिहासिक धरोहरों को सहेज कर आसानी से यूनेस्को की विरासत सूची में जगह मिल रही है. भारत में यह काम भी सरकार से लिए सफेद हाथी साबित हो रहा है. नतीजा ऐतिहासिक स्थलों को तो यूनेस्को की विश्व विरासत स्थल की सूची में जगह मिली है लेकिन पिछले कई सालों के तमाम प्रयासों के बावजूद अब तक किसी भी शहर को विश्व विरासत शहर का तमगा हासिल नहीं हो पाया है. यह बात दीगर है कि इस कवायद में पानी की तरह पैसा बहाने के बाद मूल नतीजा तो सिफर है लेकिन सरकारी तंत्र को दीमक की तरह खोखला कर रहे अफसरान खुद को खूब समृद्ध बना चुके है. जन भागीदारी का अभाव और सरकारी तंत्र का गैरजिम्मेदाराना रवैया इस राह के सबसे बड़े रोड़े बन गए है.

दिल्ली का दावा

वैसे तो ऐतिहासिक धरोहरों के खजाने से भरी दिल्ली को देश की सांस्कृतिक राजधानी भी कहा जाता है लेकिन इन धरोहरों के बुरे हाल के चलते यूनेस्को में दिल्ली का दावा अब तक पहुच भी नहीं पा रहा है. दिल्ली सरकार ने अपने के लिए दस्तावेज बनाने की जिम्मेदारी गैर सरकारी संस्था इंटेक को दी है. इंटेक ने तीन साल में तीन दावे बनाये लेकिन दावा पेश करने के लिए जिम्मेदार एएसआई को ये दावे पुख्ता नहीं लगे. इंटेक की दिल्ली इकाई के प्रमुख ए जी के मेनन ने बताया की अब नया दावा दिल्ली को मुगल, ब्रिटिश और आधुनिक भारत की राजनीतिक राजधानी के रूप में पेश करने का है. पहले इसमें प्राचीन दिल्ली के अवशेषों को भी शामिल किया गया था लेकिन पुराने किले और महरौली में कुतुब पुरातत्व पार्क में दिल्ली सरकार के संरक्षण वाले विरासत स्थलों की दुर्दशा के चलते इसे दावे से हटा दिया गया है. अब मुगलों की बसाई दिल्ली (शाहजहानाबाद) और ब्रिटिश काल की नयी दिल्ली (लुटियन जोन) को ही दावे का आधार बनाया गया है. मेनन का कहना है की इस साल दावा तैयार है और उम्मीद है की अगले साल फरवरी में नियत समय पर एएसआई इसे पेश कर देगी.

उम्मीद है कि कम से कम दिल्ली का दावा इस बार पेश हो जाये.

ब्लॉग: निर्मल यादव, दिल्ली

संपादन: निखिल रंजन