बहुत पुराना है गोरखालैंड आंदोलन का इतिहास
१६ जून २०१७इस हफ्ते गोरखा मोर्चा नेताओं के घर छापों के दौरान भारी तादाद में हथियार बरामद किए गए. इसके विरोध में मोर्चा समर्थकों ने सुरक्षा बलों पर पथराव किया और आगजनी की. केंद्र सरकार ने राज्य से इस मामले पर विस्तृत रिपोर्ट मांगी है. साथ ही उसने हालात पर काबू पाने में राज्य की सहायता के लिए अर्धसैनिक बल के लगभग डेढ़ हजार जवानों को पर्वतीय इलाके में भेजा है. इस बीच, तमाम राजनीतिक दल भी अब इस आंदोलन की आग पर सियासी रोटियां सेंकने में जुट गये हैं.
पुराना है इतिहास
दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र में गोरखालैंड की मांग सौ साल से भी ज्यादा पुरानी है. इस मुद्दे पर बीते लगभग तीन दशकों से कई बार हिंसक आंदोलन हो चुके हैं. ताजा आंदोलन भी इसी की कड़ी है. दार्जिलिंग इलाका किसी दौर में राजशाही डिवीजन (अब बांग्लादेश) में शामिल था. उसके बाद वर्ष 1912 में यह भागलपुर का हिस्सा बना. देश की आजादी के बाद वर्ष 1947 में इसका पश्चिम बंगाल में विलय हो गया. अखिल भारतीय गोरखा लीग ने वर्ष 1955 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु को एक ज्ञापन सौंप कर बंगाल से अलग होने की मांग उठायी थी.
उसके बाद वर्ष 1955 में जिला मजदूर संघ के अध्यक्ष दौलत दास बोखिम ने राज्य पुनर्गठन समिति को एक ज्ञापन सौंप कर दार्जिलिंग, जलपाईगुड़ी और कूचबिहार को मिला कर एक अलग राज्य के गठन की मांग उठायी. अस्सी के दशक के शुरूआती दौर में वह आंदोलन दम तोड़ गया. उसके बाद गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) के बैनर तले सुभाष घीसिंग ने पहाड़ियों में अलग राज्य की मांग में हिंसक आंदोलन शुरू किया. वर्ष 1985 से 1988 के दौरान यह पहाड़ियां लगातार हिंसा की चपेट में रहीं. इस दौरान हुई हिंसा में कम से कम 13 सौ लोग मारे गए थे. उसके बाद से अलग राज्य की चिंगारी अक्सर भड़कती रहती है.
आखिर क्यों?
राज्य की तत्कालीन वाममोर्चा सरकार ने सुभाष घीसिंग के साथ एक समझौते के तहत दार्जिलिंग गोरखा पर्वतीय परिषद का गठन किया था. घीसिंग वर्ष 2008 तक इसके अध्यक्ष रहे. लेकिन वर्ष 2007 से ही पहाड़ियों में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के बैनर तले एक नई क्षेत्रीय ताकत का उदय होने लगा था. साल भर बाद विमल गुरुंग की अगुवाई में मोर्चा ने नए सिरे से अलग गोरखालैंड की मांग में आंदोलन शुरू कर दिया.
लेकिन आखिर अबकी मोर्चा ने नए सिरे से गोरखालैंड की मांग उठाने का फैसला क्यों किया है? विमल गुरुंग का आरोप है, "गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) को समझौते के मुताबिक विभाग नहीं सौंपे गए. पांच साल बीतने के बावजूद न तो पूरा अधिकार मिला और न ही पैसा. राज्य सरकार ने हमें खुल कर काम ही नहीं करने दिया. ऊपर से जबरन बांग्ला भाषा थोप दी." मोर्चा के महासचिव रोशन गिरि कहते हैं, "यह हमारी अस्मिता का सवाल है. भाषा, संस्कृति और रीति-रिवाजों में भिन्नता के बावजूद हमें नेपाली कहा जाता है." वह कहते हैं कि नेपाली से पड़ोसी देश का नागरिक होने का संदेह होता है.
पर्यटन व चाय उद्योग को नुकसान
दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र में अलग गोरखालैंड की मांग में शुरू होने वाले ताजा आंदोलन ने इलाके की अर्थव्यवस्था की रीढ़ समझे वाले पर्यटन व चाय उद्योग को भारी नुकसान का अंदेशा है. अचानक शुरू हुई हिंसा और बेमियादी बंद के चलते पर्यटकों ने पहाड़ियों की इस रानी से मुंह मोड़ लिया है. पश्चिम बंगाल के इस अकेले पर्वतीय पर्यटन केंद्र में सालाना औसतन 50 हजार विदेशी और पांच लाख घरेलू पर्यटक आते हैं. इस पर्वतीय इलाके में पहले कई हिंदी फिल्मों और सीरियलों की शूटिंग हो चुकी है. दो साल पहले हिंदी फिल्म बर्फी के कई दृश्य यहां फिल्माए गए थे. पर्यटन उद्योग से जुड़े लोगों का कहना है कि एक फिल्म या सीरियल की शूटिंग से इलाके में औसतन 40 से 50 लाख रुपये तक का कारोबार होता है. अबकी आंदोलन से कम से कम पांच करोड़ रुपए का नुकसान तो इसी मद में हुआ है.
दार्जिलिंग एसोसिएशन आफ ट्रेवल एजेंट्स के सचिव प्रदीप लामा बताते हैं, "आंदोलन लंबा खिंचने की स्थिति में पर्यटन उद्योग की कमर टूट जाएगी." उनके मुताबिक इस आंदोलन से उद्योग को कम से कम 50 करोड़ रुपए का नुकसान होने का अंदेशा है. इस आंदोलन ने दुनिया भर में मशहूर चाय उद्योग पर भी खतरा बढ़ा दिया है. इलाके में चाय उद्योग की हालत पहले से ही खस्ता है. अब नए सिरे से शुरू हुए इस आंदोलन से उसकी बची-खुची हरियाली भी खत्म हो जाने का खतरा मंडराने लगा है.
सियासत तेज
अब राजनीतिक दल इस आंदोलन की आग में सियासी रोटियां सेंकने में जुट गये हैं. कांग्रेस ने मौजूदा हालात के लिए जहां मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की बदले की राजनीति को जिम्मेदार ठहराया है वहीं भाजपा ने भी इसके लिए गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के प्रति सरकार के सौतेले रवैये को दोषी करार दिया है. प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अधीर चौधरी कहते हैं, "दार्जिलिंग की परिस्थिति के लिए ममता जिम्मेदार हैं. वह मोर्चा के साथ बदले की राजनीति कर रही हैं." भाजपा अध्यक्ष दिलीप घोष ने भी सरकार पर मोर्चा और जीटीए के साथ सौतेला व्यवहार करने का आरोप लगाया है. घोष कहते हैं कि सरकार को इस मुद्दे पर एक सर्वदलीय बैठक बुलानी चाहिए. लेकिन वह ताकत का इस्तेमाल कर स्थानीय लोगों की आवाज दबाने का प्रयास कर रही है.
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि अगले महीने होने वाले जीटीए चुनावों और विपक्षी राजनीतिक दलों के रवैये को ध्यान में रखते हुए पर्वतीय क्षेत्र के हालात में फिलहाल सुधार की संभावना कम ही है. लंबे समय बाद एक बार अगर गोरखालैंड की मांग उठी है तो उसके नतीजे दूरगामी होंगे. अतीत में होने वाले ऐसे आंदोलन बरसों तक खिंचते रहे हैं. अबकी भी आसार कुछ ठीक नहीं नजर आ रहे हैं.
रिपोर्टः प्रभाकर