बीजेपी विधायक की रद्द सदस्यता और राजनीति में अपराध
१२ दिसम्बर २०२१गोसाईंगंज से बीजेपी के विधायक खब्बू तिवारी को अदालत ने पिछले दिनों फर्जी मार्कशीट मामले में दोषी ठहराया था. यूपी की मौजूदा विधानसभा में खब्बू तिवारी चौथे और बीजेपी के तीसरे विधायक हैं जिनकी अदालत से सजा होने के बाद सदस्यता रद्द की गई है. विधानसभा के प्रमुख सचिव प्रदीप कुमार दुबे के कार्यालय से जारी अधिसूचना के मुताबिक इंद्र प्रताप उर्फ खब्बू तिवारी की सदस्यता 18 अक्टूबर 2021 से समाप्त मानी जाएगी और उनका पद खाली हो गया है. साल 2002 के चुनाव बेहद नजदीक होने के कारण इस सीट पर उपचुनाव नहीं कराया जाएगा.
खब्बू तिवारी को तीन दशक पहले अयोध्या के साकेत महाविद्यालय में फर्जी मार्कशीट मामले में अदालत ने गत 18 अक्टूबर को दोषी करार दिया था और उन्हें पांच साल की सजा सुनाई थी. साल 1990 में कॉलेज के प्राचार्य की ओर से उनके खिलाफ फर्जी कागजात के जरिए बीएससी के दूसरे साल में प्रवेश लेने का मामला दर्ज कराया गया था.
इस दौरान इंद्रप्रताप तिवारी ने तीन बार अलग-अलग पार्टियों से विधानसभा चुनाव लड़ा लेकिन पहली बार वो साल 2017 में बीजेपी के टिकट पर गोसाईंगंज सीट से विधायक चुने गए. साल 2007 में उन्होंने समाजवादी पार्टी से और साल 2012 में बहुजन समाज पार्टी से चुनाव लड़ा था लेकिन दोनों ही बार उन्हें हार का सामना करना पड़ा था.
यूपी के चार अपराधी विधायकों की सदस्यता रद्द
उत्तर प्रदेश की मौजूदा विधानसभा में अब तक चार विधायकों की सदस्यता अदालत से आपराधिक मामलों में दोषी ठहराए जाने के कारण जा चुकी है. इससे पहले रामपुर जिले में स्वार सीट से समाजवादी पार्टी के विधायक अब्दुल्ला आजम की सदस्यता भी जा चुकी है. सपा के वरिष्ठ नेता आजम खान के बेटे अब्दुल्ला आजम पर आरोप था कि चुनाव के दौरान उन्होंने अपनी उम्र कम दिखाई थी और उसके लिए उन्होंने फर्जी दस्तावेजों का सहारा लिया था.
दो साल पहले बांगरमऊ से बीजेपी के विधायक कुलदीप सिंह सेंगर को भी उन्नाव के माखी गांव में एक नाबालिग लड़की से बलात्कार मामले में आजीवन कारावास की सजा के बाद सदस्यता गंवानी पड़ी थी. हमीरपुर से बीजेपी विधायक अशोक चंदेल को भी साल 1997 में हुए एक हत्याकांड में अदालत ने दोषी ठहराया, जिसके बाद उनकी विधायकी भी रद्द कर दी गई.
दूसरे राज्य में भी अपराधी विधायकों को सजा
यूपी के अलावा दूसरे राज्यों में भी इस तरह के कई उदाहरण हैं जब निर्वाचित जन प्रतिनिधियों को अदालत से दोषसिद्ध होने के बाद सदस्यता गंवानी पड़ी है. दिल्ली में आम आदमी पार्टी के विधायक जितेंद्र सिंह तोमर भी साल 2015 में फर्जी डिग्री के मामले में गिरफ्तार किए गए थे. हालांकि बाद में वो जमानत पर रिहा कर दिए गए लेकिन दिल्ली हाईकोर्ट ने उन्हें इस मामले में दोषी बताते हुए उनकी विधानसभा सदस्यता रद्द कर दी थी.
जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 आपराधिक मामलों में दोषी राजनेताओं को चुनाव लड़ने से रोकती है. लेकिन ऐसे नेता जिन पर केवल मुक़दमा चल रहा है यानी उनके मुकदमे किसी भी अदालत में लंबित हैं और उन पर फैसला नहीं आया है तो वे चुनाव लड़ने के लिये स्वतंत्र हैं. कानून के मुताबिक, जब तक अदालत ने सजा न सुनाई हो, तब तक उन्हें चुनाव लड़ने से नहीं रोका जा सकता, भले ही उन पर लगा आरोप कितना भी गंभीर हो. जानकारों के मुताबिक, कानून की इन्हीं बारीकियों और अदालतों में लंबे समय से लंबित मामलों का लाभ उठाकर न सिर्फ अपराधी प्रवृत्ति के लोग चुनाव लड़कर जीतते हैं बल्कि राजनीतिक दल भी उन्हें बिना हिचक टिकट देते हैं.
इसी कानून की धारा 8(4) में यह भी प्रावधान है कि यदि दोषी सदस्य निचली अदालत के इस आदेश के खिलाफ तीन महीने के भीतर उच्च न्यायालय में अपील दायर कर देता है तो वह अपनी सीट पर बना रह सकता है. लेकिन साल 2013 में ‘लिली थॉमस बनाम यूनियन ऑफ इंडिया' के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने इस धारा को असंवैधानिक घोषित करते हुए निरस्त कर दिया था. निर्वाचन आयोग ने भी समय- समय पर अपनी रिपोर्ट में यह प्रावधान खत्म करने के लिए कानून में संशोधन की सिफारिश की थी.
जनप्रतिनिधियों के अपराध पर सुप्रीम कोर्ट सख्त
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद कांग्रेस सांसद रशीद मसूद की राज्यसभा की सदस्यता समाप्त हो गई थी और सर्वोच्च न्यायालय से दोषी ठहराए जाने के बाद राज्य सभा सदस्यता खोने वाले वो पहले जनप्रतिनिधि बन गए थे. सहारनपुर के रहने वाले रशीद मसूद पर आरोप था कि विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार में 1990 से 1991 तक स्वास्थ्य मंत्री रहने के दौरान उन्होंने देश भर के मेडिकल कालेजों में केन्द्रीय पूल से त्रिपुरा को आवंटित एमबीबीएस सीटों पर अयोग्य उम्मीदवारों को धोखाधड़ी कर नामित किया था. अदालत ने इस मामले में उन्हें दोषी पाया था और उसके बाद उनकी राज्यसभा की सदस्यता रद्द कर दी गई.
आपराधिक मामलों में दोषी पाए जाने पर न सिर्फ सदस्यता जाती है बल्कि आगे भी चुनाव लड़ने के लिए कोई व्यक्ति अयोग्य घोषित हो जाता है. राजद नेता और बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद भी चारा घोटाला मामले में साल 2018 में दोषी पाए गए थे जिससे उनके चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लग गया. हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला भी सजा पाने के बाद चुनाव लड़ने के अयोग्य हो गए.
चुनाव से पीछे नहीं हट रहे आपराधिक पृष्ठभूमि के उम्मीदवार
हालांकि सुप्रीम कोर्ट की सख्ती, चुनाव सुधार पर आई कई रिपोर्ट्स और चुनाव आयोग की ओर से कई बार दी गई रिपोर्टों के बावजूद, आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों की संख्या में कोई कमी नहीं आई है. सुप्रीम कोर्ट ने 13 फरवरी 2020 को सभी राजनीतिक दलों को आदेश दिया था कि वे चुनाव में अपने उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि की जानकारी और उन्हें क्यों चुना गया, इसकी जानकारी अपनी वेबसाइट, स्थानीय अखबारों और सोशल मीडिया में सार्वजनिक करें. लेकिन उसके बाद ही हुए बिहार विधानसभा चुनाव और फिर पश्चिम बंगाल विधानसभा या अन्य चुनावों में भी किसी भी राजनीतिक दल ने इन निर्देशों का पालन नहीं किया.
दरअसल, दोष सिद्ध होने के बाद जन प्रतिनिधियों के चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगाने की व्यवस्था तो है लेकिन कई मामलों में कई साल लंबी सुनवाई के बावजूद फैसला नहीं आता है और कोई भी व्यक्ति न सिर्फ चुनाव लड़ता है बल्कि अपना कार्यकाल तक पूरा कर लेता है और अदालतों में सुनवाई चलती रहती है. ऐसे में सजा के बाद चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित करने का कोई मतलब नहीं रह जाता. एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रैटिक रिफॉर्म्स संगठन के एक सर्वे के अनुसार उत्तर प्रदेश की मौजूदा विधान सभा में 35 फीसदी सदस्यों पर आपराधिक मुकदमे लंबित है. इनमें से 27 फीसदी के खिलाफ गंभीर आरोप हैं. कम से कम सात विधायकों के खिलाफ हत्या, 36 के खिलाफ हत्या की कोशिश और 2 के खिलाफ महिलाओं के खिलाफ अपराध के आरोप हैं.